Tuesday, September 30, 2008

ऐसी बहस कोई अच्छा संदेश नहीं देती-आलेख

देश में आतंक के नाम पर निरंतर हिंसक वारदातें हो रहीं है पर आश्चर्य की बात यह है कि इसे धर्म,जाति,भाषा और क्षेत्रों से ना जोड़ने का आग्रह करने वाले ही इसे जोड़ते भी दिख रहे हैं. यह कैसे संभव है कि आप एक तरफ यह कहें के आतंकियों का कोई धर्म, भाषा और जाति नहीं है दूसरी तरफ उसी उनके समूहों की तरफ से सफाई भी देते फिरें. आश्चर्य की बात है कि अनेक बुद्धजीवी तो भ्रमित हैं. उनके भ्रम का निवारण करना तो बहुत कठिन है.

वैसे तो किसी भी प्रकार कि हिंसा को किसी धर्म,भाषा या जाति से जोड़ना ठीक नहीं पर कुछ लोग ऐसा कहते हुए बड़ी चालाकी से इनका आधार पर बने समूहों का वह प्रशस्ति गान करते हैं. तब फिर एक आम आदमी को यह कैसे समझाया जा सकता है कि इन अपराधिक घटनाओं को सहजता से ले. हालत तो और अधिक खराब होते जा रहे हैं पर कुछ बुद्धिजीवी अपनी बौद्धिक खुराक के लिए सतही विचारों को जिस तरह व्यक्त कर रहे हैं वह चिंताजनक है. उनके विचारों का उन लोगों पर और भे अधिक बुरा प्रभाव पडेगा जो पहले से ही भ्रमित है.

कुछ बुद्धिजीवी तो हद से आगे बाद रहे हैं. वह कथित रूप से सम्राज्यवाद के मुकाबले के लिए एस समुदाय विशेष को अधिक सक्षम मानते हैं. अपने आप में इतना हायास्पद तर्क है जिसका कोई जवाब नहीं है. वैसे तो हम देख रहे है कि देश में बुद्धिजीवि वर्ग विचारधाराओं में बँटा हुआ है और उनकी सोच सीमित दायरों में ही है. इधर अंतरजाल पर कुछ ऐसे लोग आ गए हैं जो स्वयं अपना मौलिक तो लिखते नहीं पर पुराने बुद्धिजीवियों के ऐसे विचार यहाँ लिख रहे हैं जिनका कोई आधार नहीं है. वैसे देखा जाए तो पहले प्रचार माध्यम इतने सशक्त नहीं थे तब कहीं भाषण सुनकर या किताब पढ़कर लोग अपनी राय कायम थे. अनेक लोग तब यही समझते थे कि अगर किसी विद्वान ने कहा है तो ठीक ही कहा होगा. अब समय बदल गया है. प्रचार माध्यम की ताकत ने कई ऐसे रहस्यों से परदा उठा दिया है जिनकी जानकारी पहले नहीं होती थी. अब लोग सब कुछ सामने देखकर अपनी राय कायम करते हैं। ऐसे में पुरानी विचारधाराओं के आधार पर उनको प्रभावित नहीं करती।

अमरीकी सम्राज्यवाद भी अपने आप में एक बहुत बड़ा भ्रम है और अब इस देश के लोग तो वैसे ही ऐसी बातों में नहीं आते। अमेरिका कोई एक व्यक्ति, परिवार या समूह का शासन नहीं है। वहां भी गरीबी और बेरोजगारी है-यह बात यहां का आदमी जानता है। अमेरिका अगर आज जिन पर हमला कर रहा है तो वही देश या लोग हैं जो कभी उसके चरणों में समर्पित थे। अमेरिका के रणनीतिकारों ने पता नहीं जानबूझकर अपने दुश्मन बनाये हैं जो उनकी गलतियों से बने हैं यह अलग रूप से विचारा का विषय है पर उसके जिस सम्राज्य का जिक्र लोग यहां कर रहे हैं उन्हें यह बात समझना चाहिये कि वह हमारे देश पर नियंत्रण न कर सका है न करने की ताकत है। अभी तक उसने उन्हीं देशों पर हमले किये हैं जो परमाणु बम से संपन्न नहीं है। उससे भारत की सीधी कोई दुश्मनी नहीं है। वह आज जिन लोगों के खिलाफ जंग लड़ रहा है पहले ही उसके साथ रहकर मलाई बटोर रहे थे। अब अगर वह उनके खिलाफ आक्रामक हुआ है तो उसमें हम लोगों का क्या सरोकार है?

अमेरिकी सम्राज्य का भ्रम कई वर्षों तक इस देश में चला। अब अमेरिका ऐसे झंझटों में फंसा है जिससे वर्षों तक छुटकारा नहीं मिलने वाला। इराक और अफगानिस्तान से वह निकल नहीं पाया और ईरान में भी फंसने जा रहा है, मगर इससे इसे देश के लोगों का कोई सरोकार नहींं है। ऐसे में उससे लड़ रहे लोगों के समूहों का नाम लेकर व्यर्थ ही यह प्रयास करना है कि वह अमेरिकी सम्राज्यवाद के खिलाफ सक्षम हैं। देश में विस्फोट हों और उससे अपराध से अलग केवल आतंक से अलग विषय में देखना भी एक विचार का विषय है पर उनकी आड़ में ऐसी बहसे तो निरर्थक ही लगती हैं। इन पंक्तियों का लेखक पहले भी अपने ब्लागों परी लिख चुका है कि इन घटनाओं पर अपराध शास्त्र के अनुसार इस विषय पर भी विचार करना चाहिये कि इनसे लाभ किनको हो रहा है। लोग जबरदस्ती धर्म,जातियों और भाषाओं के समूहों का नाम लेकर इस अपराध को जो विशिष्ट स्वरूप दे रहा है उससे पैदा हुआ आकर्षण अन्य लोगों को भी ऐसा ही करने लिये प्रेरित कर सकता है। दरअसल कभी कभी तो ऐसा लगता है कि आतंक के नाम फैलायी जा रही हिंसा कहीं व्यवसायिक रूप तो नहीं ले चुकी है। यह खौफ का व्यापार किनके लिये फायदेमंद है इसकी जांच होना भी जरूरी है पर इसकी आड़ में धर्म,भाषा और जातियों को लेकर बहस आम आदमी के लिये कोई अच्छा संदेश नहीं देती।
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Saturday, September 27, 2008

आश्वासन और सिंहासन का खेल-व्यंग्य आलेख

देश के बुद्धिजीवियों के लिये इस समय कुछ न कुछ लिखने के लिये ऐसा आ ही जाता है जिसमें उनको संकुचित ज्ञान को व्यापक रूप से प्रस्तुत करने का अवसर मिल जाता है। देश में निरंतर हो रही आतंकी घटनाओं ने विचाराधारा पर अनेक भागों में बंटे बुद्धिजीवियों को अपने दृष्टिकोण से हर हादसे पर विचार व्यक्त करने का अवसर दिया है। घटना से पीडि़त लोगो के परिवारों के हाल पर कोई नहीं लिख रहा पर हादसों के आधार पर बहसों के दौर शुरू हो गये हैं।

पिछले कई दिनों से लग रहा था कि विचाराधारा के आधार पर लिखने पढ़ने वालों के दिल लद गये और अब कुछ नवीनतम और सत्य लिखकर नाम कमाया जा सकता है पर हमारे जैसे लोगों के दिन न पहले आये और न आयेंगे। हम तो सामाजिक और वैचारिक धरातल पर जो समाज में कहानियां या विषय वास्तव में रहते हैं उस पर लिखने के आदी हैं। विचाराधारा के लोग न केवल पूर्वाग्रह से सोचते हैं बल्कि किसी भी घटना पर संबंधित पक्ष की मानसिकता की बजाय अपने अंदर पहले से ही तय छबि के आधार पर आंकलन कर अपना निष्कर्ष प्रस्तुत कर देते हैं। चूंकि समाज पर बड़े लोगों का प्रभाव है इसलिये उनके पास अपनी विचारधारा के आधार पर इन बुद्धिजीवियों का समूह भी रहता है। इन्हीं बड़े लोगों का सभी जगह नियंत्रण है और अखबार और टीवी चैनल पर उनके समर्थक बुद्धिजीवियेां को ही प्रचार मिलता है। ऐसे मेें शुद्ध सामाजिक एवं वैचारिक आधार वाले समदर्शी भाव वाले लेखक के लिये कहीं अपनी बात कहने का मंच ही नहीं मिल पाता।

इधर अंतर्जाल पर लिखना शुरू किया तो पहले तो अच्छी सफलता मिली पर अब तो जैसे विचारधारा पर आधारित सक्रिय बुद्धिजीवियों को देश मेंं हो रहे हादसों ने फिर अपनी जमीन बनाने का अवसर दे दिया। अब हम लिखें तो लोग कहते हैं कि तुम उस ज्वलंत विषय पर क्यों नहीं लिखते! हमने गंभीर चिंतन,आलेख और कविताओं को लिखा। मगर फिर भी फ्लाप! क्योंकि हम किसी का नाम लेकर उसे मुफ्त में प्रचार नहीं दे सकते। वैसे तो समाज को बांटने के प्रयासों के प्रतिकूल जब हमने पहले लिखा तो खूब सराहना हुई। वाह क्या बात लिखी! अब लगता है कि हमारे दिल लद रहे हैंं।
तब ऐसा लग रहा था कि समाज अब भ्रम से निकलकर सच की तरफ बढ़ रहा है पर हादसों ने फिर वैचारिक आधार पर बंटे बुद्धिजीवियों को अपनी बात कहने का अवसर दे दिया। यह बुद्धिजीवी बात तो एकता की करते हैं मगर उससे पहले समाज को बांट कर दिखाना उनकी बाध्यता है। उनके तयशुदा पैमाने हैं कि अगर दो धर्म, जातियों या भाषाओं के बीच विवाद हो तो एक को सांत्वना दो दूसरे को फटकारो। ऐसा करते हुए यह जरूर देखते हैं कि उनके आका किसको सांत्वना देने से और किसको फटकारने से खुश होंगे।

एकता, शांति और प्रेम का संदेश देते समय छोड़ मचायेंगे। इतिहास की हिंसा को आज के संदर्भ में प्रस्तुत कर अहिंसा की बात करेंगे।

जिस धर्म के समर्थक होंगे उसे मासूम और जिसके विरोधी होंगे उसके दोष गिनायेंगे। मजाल है कि अपने समर्थक धर्म के विरुद्ध एक भी शब्द लिख जायें। जिस जाति के समर्थक होंगे उसे पीडि़त और जिसके विरोधी हों उसे शोषक बना देंगे। यही हाल भाषा का है। जिसके समर्थक होंगे उसको संपूर्ण वैज्ञानिक, भावपूर्ण और सहज बतायेंगे और जिसके विरोधी हों तो उसकी तो वह हालत करेंगे जो वह पहचानी नहीं जाये।
मतलब उनका केंद्र बिंदु समर्थन और विरोध है और इसलिये उनके लेखक में आक्रामकता आ जाती है। ऐसे में समदर्शिता का भाव रखने वाले मेरे जैसे लोग सहज और सरल भाषा में लिखकर अधिक देरी तक सफल नहीं रह सकते। इनकी आक्रामकता का यह हाल है कि यह किसी को राष्ट्रतोड़क तो किसी को जोड़क तक का प्रमाणपत्र देते हैं। बाप रे! हमारी तो इतनी ताकत नहीं है कि हम किसी के लिये ऐसा लिख सकें।

इन बुद्धिजीवियों ने ऐसे इतिहास संजोकर रखा है जिस पर यकीन करना ही मूर्खता है क्योंकि इनके बौद्धिक पूर्वजों ने अपना नाम इतिहास में दर्ज कराने के लिये ऐसी किताबें लिख गये जिसको पढ़कर लोग उनकी भ्रामक विचाराधारा पर उनका नाम रटते हुए आगे बढ़ते जायेंं। ऐसा तो है नहीं कि सौ पचास वर्ष पूर्व हुए बुद्धिजीवी कोई भ्रमित नहीं रहे होंगे बल्कि हमारी तो राय है कि उस समय ऐसे साधन तो थे नहीं इसलिये अधिक भ्रमित रहे होंगे। फिर वह कोई देवता तो थे नहीं कि हर बात सच मान जी जाये पर उनके समर्थक इतने यहां है कि उनसे विरोधी बुद्धिजीवी वर्ग के ही लोग लड़ सकते हैं। समदर्शी भाव वाले विद्वान के लिये तो उनसे दो हाथ दूर रहना ही बेहतर है। अगर नाम कमाने के चक्कर में हाथ पांव मारे तो पता पड़ा कि सभी विचारधारा के बुद्धिजीवी कलम लट्ठ की तरह लेकर पीछे पड़ गये।
इतिहास के अनाचार, व्याभिचार और अशिष्टाचार की गाथायें सुनाकर यह बुद्धिजीवी समाज में समरसता का भाव लाना चाहते हैं। ऐसे में अगर किसी प्राचीन महान संत या ऋषि का नाम उनके सामने लो तो चिल्ला पड़ते हैं-अरे, तुझे तो पुराने विषय ही सूझते हैं।‘

अब यह बुद्धिजीवी क्या करते हैं उसे भी समझ लें
किसी जाति का नाम लेंगे और उसको शोषित बताकर दूसरी जाति को कोसेंगे। मतलब शोषक और और शोषित जाति का वर्ग बनायेंगे। फिर जायेंगे शोषित जाति वाले के पास‘उठ तू। हम तेरा उद्धार करेंगे। चल संघर्ष कर।’

फिर शोषक जाति वाले के पास जायेंगे और कहेंगे-‘हम बुद्धिजीवी हैं हमारा अस्तित्व स्वीकारा करो। हमसे बातचीत करो।’

तय बात है। फिर चंदे और शराब पार्टी के दौर चलते हैं। इधर आश्वासन देंगे और उधर सिंहासन लेंगे। अब अगर यह समाज को बांट कर समाज को नहीं चलायेंगे तो फिर इनका काम कैसे चलेगा।

ऐसे ही धर्म के लिये भी करेंगे। एक धर्म को शोषक बताकर उसे मानने वाले से कहेंगे-‘उठ तो अकेला नहीं है हम तेरे साथ हैं। उठ अपने धर्म के सम्मान के लिये लड़। तू चाहे जो गलती कर हम तुझे और तेरे धर्म को भले होने का प्रमाणपत्र देंगे।’

दूसरे धर्म वाले के पास तो वह जाते ही नहीं क्योंकि उसके लिये प्रतिकूल प्रमाणपत्र तो वह पहले ही तैयार कर चुके होते हैं। फिर शुरू करेंेगे इधर आश्वासन देने और उधर सिंहासन-यानि सम्मान और को पुरस्कार आदि-लेने का काम।’

मतलब यही है कि अब फिर वह दौर शुरू हो गया है कि हम जैसे समदर्शी भाव के लेखक गुमनामी के अंधेरे में खो जायें, पर यह अंतर्जाल है यहां सब वैसा नहीं है जैसा लोग सोचते हैं। यही वजह है कि लिखे जा रहे हैं। समदर्शिता के भाव में जो आनंद है वह पूर्वाग्रहों में नहीं है-अपने लेखन के अनुभव से यह हमने सीखा है। इसमें इनाम नहीं मिलते पर लोगों की वाह वाह दिल से मिलती है। अगर प्रकाशन जगत ने हमें समर्थन दिया होता तो शायद हम भी कहीं विचाराधाराओं की सेवा करते होते। ऐसी कोशिश यहां भी हो रही है पर यहां हर चीज वैसी नहीं है जैसे लोग सोचते हैं। सो लिखे जा रहे हैं। वैसे इन बुद्धिजीवियों का ज्ञान तो ठीक ठाक है पर अपना चिंतन और मनन करने का सामथर््य उनमें नहीं है। वैसे उनके आका यह पसंद भी नहीं करते कि कोई अपनी सोचे। हां, अब तो अंतर्जाल पर भी चरित्र प्रमाण पत्र बांटने का काम शुरू हो गया है। देखते हैं आगे आगे होता है क्या। यह आश्वासन और सिंहासन का खेल है हालांकि समाज का आदमी इसे देखता है पर उसका निजी जीवन अब इतना कठिन है कि वह इसमें दिलचस्पी नहीं लेता।

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Wednesday, September 24, 2008

इंसान का वहम-हिन्दी शायरी


हर शय की जिन्दगी की

कुछ कुछ न होती है मियाद

उसके बाद रह जाती है

बस जमाने में उसकी याद

फिर भी इंसान हमेशा

अपने बने रहने का रहता हैं गुमान

नहीं उसे अगले पल की सांस का अनुमान

बन जाता हैं अपने खुद ही भगवान

इसी वहम में गुजार देता हैं जिन्दगी कि

नहीं चलेगी यह दुनिया उसके जाने के बाद
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Tuesday, September 23, 2008

जब फिक्र ही कयामत लायी-हिंदी शायरी

पूरी उम्र फिक्र करते रहे
कयामत के खौफ और इंतजार की
पर वह नहीं आयी
आंखें तब खुलीं जब
फिक्र ही कयामत लायी
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उनका ‘बेफिक्र रहो’ कहने से ही

अपनी फिक्र बढ़ जाती है

क्योंकि फिर उनको हमारी याद नहीं आती

उनकी बेफिक्री बहुत डराती है

उनके लिये यह दो लफ्ज हैं

जिसकी जगह उनके दिल में ही नहीं होती

ऐसे में फिर फिक्र कहां दूर हो पाती है

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Monday, September 22, 2008

चालाकियों से ही राज्य चलता है-हास्य व्यंग्य कविता

शेर से उसके बच्चे ने पूछा
"हम राजा लोग इस जंगल में
चालाक लोमड़ को ही क्यों
मंत्री बनाते
जो सिवाय पेंतरेबाजी के
अलावा कुछ नहीं जानता
हमारे और अपने भले के
अलावा और कोई काम नहीं मानता
बाकी जनता पर तो बस अपनी अकड़ तानता''

शेर ने कहा
''राज्य चालाकियों से चलते हैं
भले से लोग भी कहाँ डरते हैं
जिन्दगी तो चलती है भगवन भरोसे
राजा का तो बस नाम है
मुसीबत में जनता उसे ही कोसे
इसलिए बचाव के लिए अपनी ताकत के अलावा
किसी चालाक का सहारा भी चाहिए
हाथी की अक्ल को कुंद कर उसे बैल बना दे
ऐसा कोई नारा चाहिए
लोमड़ करता है यही
हमारे लिए वही है सही
कमजोर जनता क्या, ताक़तवर होते हुए मैं भी उसे ही मानता
इसलिए उसकी हर बात पर लगा देता हूँ अंगूठा
पीढ़ियों से चला आ रहा है रिवाज़
इससे अधिक तो में भी नहीं जानता

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Sunday, September 21, 2008

आत्ममुग्ध लोगों की कमी नहीं इस जमाने में-व्यंग्य कविता

अपने मूंह से अपनी तारीफ़

लोग कुछ इस तरह किये जाते हैं

जैसे दुनियां में उनके नाम के ही

सभी जगह कसीदे पढे जाते हैं

आत्म मुग्ध लोगों की कमी नहीं

इस जमाने में

तारीफ़ के काबिल लोग

इसलिये किसी के मूंह से

अपने लिये कुछ अच्छे शब्द सुनने को

तरस जाते हैं

शायद इसलिये ही

चमक रहे आकाश में कई नाम

गरीब लोगों की भलाई के सहारे

फ़िर भी गरीबी से सभी हारे

क्योंकि भलाई एक नारा है

जिसके पांव ज़मीं पर नज़र नहीं आते हैं
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उनका दिल समंदर है

इसलिये ही ज़माने भर का माल

उनके घर के अंदर है

ज़माने भर की भलाई का ठेका लेते हैं

सारी मलाई कर देते हैं फ़्रिज़

छांछ पिला देते हैं अपने ही गरीब चाकरों को

जो उनकी नज़र में पालतू बंदर हैं

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Sunday, September 14, 2008

भारतीय भाषा दिवसःएक फ्लाप लेखक का विशेष संपादकीय

लोग आज इसे हिंदी दिवस कह रहे हैं पर एक हिंदी विद्वान का मत है कि इसे भारतीय भाषा दिवस के रूप में मनाना चाहिये क्योंकि हिंदी का अर्थ बहुत व्यापक है। ऐसी कई क्षेत्रीय भाषायें है जिनका लिखा साहित्य हिंदी का ही भाग माना जाता है। यह एक अलग विषय है पर हम यहां हिंदी के अंतर्जाल पर भावी स्वरूप पर विचार करें तो कई ऐसी संभावनायें दिखायीं देंगी जो दिलचस्पी पैदा करती है।

इस समय हिंदी के ब्लाग लेखकों को आम पाठक नहीं मिल रहे हैं पर इस बात की संभावना पूरी है कि जब रुचिकर लेखन होगा तो पाठक यहां आयेंगे और लेखक अपने स्वंतत्र अस्तित्व के साथ उनसे जुड़ेंगे जो अभी तक नहीं हुआ। ब्लाग पर लिखने के लिये थोड़ा हिंदी अंग्रेजी टाइपिंग का ज्ञान होना जरूरी है जो कि अधिकतर लेखकों को है। शेष कोई ऐसी बात नहीं है कि कोई सीख न सके। पाठकों का रुझान देखकर तो लग रहा है कि अपनी भाषा में पढ़नें की उनकी उत्कंठा बढ़ती जा रही है। प्रश्न है कि उनकी रुचियों के अनुरूप लिखा जाना चाहिये और फिर उसकी जानकारी भी वहां तक पहुंचना चाहिये।

वैसे अंतर्जाल पर कई बात पूरी तरह दावे से नहीं कही जा सकती क्योंकि अभी किसी ब्लाग लेखक को किसी के मुकाबले गुणात्मक बढ़त नहीं मिली यानि कोई ऐसा लेखक नहीं दिख रहा जिसने आम पाठक में अपनी पैठ अपने स्वतंत्र और मौलिक लेखन के जरिये बनाई हो। मेरे कुल बीस ब्लाग हैं पर मैं 12 ब्लाग को ही अपना अधिकृत ब्लाग मानता हूं और उन पर पाठकों की आवक सात सौ से आठ सौ के बीच है। हिंदी पत्रिका और ईपत्रिका प्रतिदिन डेढ़ सौ के ऊपर तक पहुंच जाती है। चार ऐसे ब्लाग है जिन पर सौ से अधिक पाठक आते हैं। वर्डप्रेस के ब्लाग तेजी से पाठक जुटाते हैं पर ब्लाग स्पाट के ब्लाग एकदम सुस्त हैं। पता नहीं इसके पीछे क्या वजह है? बहरहाल पाठकों की संख्या जिस तरह बढ़ रही है उससे एक बात तो लगती है कि मेरा अधिक से अधिक आम लोगों तक अपनी बात पहुंचाने का प्रयास आज नहीं तो कल सफल होगा।
एक खास बात जो अब तक के अनुभव लग रही है कि अंतर्जाल पर हिंदी कई रंग बदलती हुई ऊंचाई पर आयेगी। हो सकता है कुछ लोग इस बात से सहमत न हों पर कुछ ऐसा है जिसे अभी तक अनदेखा किया जाता है। सबसे बड़ी बात यह है कि आम लेखक को कहीं किसी प्रकार का समर्थन नहीं मिला पर ब्लाग पर उसे केवल पाठकों का ही समर्थन बहुत ताकत देगा। ब्लाग अपने आप में बहुत बड़ी ताकत रखता है यह बात मैंने तमाम प्रयोगों से जान ली है। अगर कोई ब्लाग लेखक पाठकों की अभिरुचि के अनुसार लिखने में सफल रहा और लोेग उसका आपसी बातचीत के जरिये ही प्रचार करने लगे तो वह किसी का मोहताज नहीं होगाा। यहां अपने प्रसिद्धि के लिये किसी की चिरौरियां करने की आवश्यकता नहीं हैं जैसा कि बाहर करना पड़ती है। यह अलग बात है कि यहां पहले से स्थापित कुछ लोगों का व्यवहार अब प्रकाशकों की तरह हो रहा है पर वह यह भूल रहे हैं कि ब्लाग का एक स्वतंत्र अस्तित्व है। हिंदी के ब्लागों को सर्वाधिक पाठक दिलवाने एक फोरम पर अंपजीकृत होने के बावजूद मेरे कुछ ब्लाग पर्याप्त संख्या में पाठक जुटा रहे हैं जो इस बात का प्रमाण है हिंदी का पाठक अपने लिये यहां कुछ ढूंढ रहा है। अभी महामशीन पर लिखा और अंपंजीकृत ब्लाग पर प्रकाशित एक पाठ अपने लिये एक दिन में पचास पाठक जुटा ले गया। उससे मुझे खुद आश्चर्य हुआ।

अभी अंतर्जाल पर पर सक्रिय लोगों में अधिकतरी केवल फोटो या यौन साहित्य में अधिक दिलचस्पी ले रहे हैं क्योंकि उनको यह पता ही नहीं है कि यहां सत् साहित्य लिखा जा रहा है। दूसरी जो महत्वपूर्ण बात है कि इन दोनों आधारों पर अधिक समय तक अंतर्जाल पर उनकी सक्रियता नहीं रहेगी और हो सकता है कि लोग टीवी और अखबारों की तरह इससे भी विरक्त हो जायें। स्वयं मैं भी कई बार विरक्त होकर इंटरनेट कनेक्शन कटवाने की सोचता हूं क्योंकि मैंने इस उद्देश्य से लिया था वह निकट भविष्य में पूरा होता नहीं दिख रहा। अगर हिंदी के पाठक अधिक होते तो शायद मैं ऐसा विचार नहीं करता। ऐसे में हिंदी में सत् साहित्य लिखते रहने का विचार इसलिये मन मेंे रहता है क्योंकि उसके दम पर ही अंतर्जाल का प्रयोग एक आदत के रूप में लोगों स्थापित किया जा सकता है जो कि दीर्घकालीन अवधि के लिये होगा। इसके लिये सवाल यह है कि लिखेगा कौन और पढ़ेगा कौन? पहले सत् साहित्य लिखा जाये कि पहले पढ़ने वाले जुटाये जायें। ऐसे में एक ही बात सही लगती है कि सत्साहित्य लिखो और फिर शांति से बैठ जाओ।

यहां सत् साहित्य लिखते जायें पर पाठक मिलें नहीं इससे कभी कभी मन ऊबने लगता है। पैसा तो यहां मिलने का प्रश्न ही नहीं है। फिर जो सक्रिय समूह हैं वह केवल आत्मप्रचार तक ही सीमित हैं और ब्लाग लेखकों को वह अपने साथ ऐसे जोड़े हुए हैं जैसे कि वह उनके अंतर्गत काम करने वाले व्यक्ति हों। यह सच है कि यही लोग अभी तक स्वतंत्र मौलिक लेखकों को प्रोत्साहित किये हुए हैं पर पाठकों का समर्थन अधिक न होने से इन पर निर्भर भी रहने से कई बार मानसिक संताप भी होता है। ऐसे में एक ही उपाय है कि अपने ब्लाग पर लिखते जायें और किसी की परवाह न करें। कम से कम टिप्पणियों का मोह छोड़ दें। वैसे मैं तो केवल स्वांत सुखाय ही यहां आया था पर टिप्पणियों के चक्कर में वह सब भूल गया। आज से यही सोचकर लिखना शुरू कर रहा हूं कि मुझे अब अकेले ही अपने रास्ते पर चलना चाहिये। इसलिये एक ब्लाग बना रहा हूं जहां सभी ब्लाग से चुनींदा रचनायें उठाकर वहां प्रकाशित करूंगा। इस ब्लाग को कहीं भी लिंक करने की अनुमति नहीं होगी। जिन लोगों को चुनींदा रचनायें पढ़नी हों वह वहीं आकर पढ़ें। अन्य ब्लाग पर भी नियमित लेखन में अब आम पाठकों के लिये रुचिकर लिखने का प्रयास जारी रहेगा। इस ब्लाग के तीस हजार पाठक पूरा होने पर यह दूसरा संपादकीय इसलिये लिख रहा हूं क्योंकि आज हिंदी दिवस है और मैंने यहां ब्लाग लिखने से पहले एक लेख में पढ़ी यह बात गांठ बांध ली है कि अपने ब्लाग पर कुछ न कुछ लिखते रहो। अभी फ्लाप है तो क्या कभी तो हिट होंगे। इस हिंदी दिवस-जिसे मै भारतीय भाषा दिवस भी कह रहा हूं-पर सभी ब्लाग लेखक मित्रों और पाठकों को बधाई।

Thursday, September 04, 2008

नव संपादकीय

आजकल जब अखबारों के सम्पादकीय पढ़ने को मिलते हैं तो ऐसा लगता है कि वह केवल समाचारों का विस्तार हैं और उनके संपादक के अपने कोई विचार नहीं हैं। कुछ संपादक तो ऐसे लिखते हैं जैसे वह केवल उसी सामग्री पर रोशनी डाल रहे हैं जो समाचारों में रहना शेष रह गयी है। ऐसे में किसी ऐसे संपादक की आवश्यकता अनुभव हो रही है जो अपनी बात को मौलिकता और स्वतंत्रता के साथ कह सके। इसी मद्देनजर यह पत्रिका लिखी जा रही है। चूंकि यह स्वतंत्र और निष्पक्ष विचार सामग्री के साथ ओतप्रोत होगी तो यह बात भी तय है कि इसके संपादक को संरक्षण की आवश्यकता होगी और इसके लिये धन की आवश्यकता होगी।
अभी इस पत्रिका के पाठक नगण्य है पर जब इसमें रुचिकर, निष्पक्ष और प्रभावी संपादकीय लिखी जायेगी तो लोग इसे पढ़ना चाहेंगे पर यह तभी संभव है कि पत्रिका और उसके पास आर्थिक सुरक्षा होगी। अंततः संपादकीय लिखना एक व्यवसायिक कार्य है और इसलिये कोई अगर इसके लिये तैयार हो तो ही यह संभव है कि इस पर लिखा जाये।
इसके दो तरीके हैं जो पाठक इसे पढ़ना चाहते हैं वह इसके लिये भुगतान करने को तैयार हो जायें तो उनके ईमेल पर यह लिखकर ब्लाग भेजा जायेगा या फिर कोई प्रायोजक जो अपना विज्ञापन देकर इसे अनुग्रहीत करना चाहे तो फिर इसे हमेशा खोलकर रखा जायेगा। अगर इसे केवल पाठक पढ़ना चाहते हैं तो उनके लिये कुछ घंटे तक ही खोला जा सकेगा और बाकी तो उनको ईमेल पर ही पढ़ने को मिल जायेगा।

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