Wednesday, October 29, 2008

शब्द भी नकाब बन जाते हैं-हिन्दी शायरी

अपने चरित्र पर लगे काले दागों से
जो लोग घबडाते हैं
वही अपना सच छुपाने के लिए
शब्दों का नकाब लगाते हैं
यूं तो शब्द सौन्दर्य की रचना
उनके लिए खेल होता है
पर उनके अर्थों में ढूंढो तो
खोखले भाव सहजता से
सामने आते हैं
शब्दों के नकाब में उनके सच को
पकड़ने के लिए दिल की नहीं
होती है दिमाग की जरूरत
क्योंकि उनके शब्द भावना से नहीं
निज स्वार्थ के लिए रचे जाते हैं
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Sunday, October 26, 2008

नीयत में हो तो जिन्दगी में भी खिलेगा चमन-हिन्दी शायरी

नाम है हीरो
बहादुरी में जीरो
पर्दे पर बडों-बडों की करते छुट्टी
लोगों को पिलाते बहादुरी की घुट्टी
पर पर्दे के पीछे छोटे विलेन भी
अपने मुताबिक उनको नचवाते
चाहे जहाँ चाहे जैसा
नृत्य और गीत गंवाते
उनके इशारे ऐसे होते की
साइड रोल में आ जाता हीरो
जो पूछो कोई सवाल तो
परदे पर मजबूरों और गरीबों के
लिए जोर से गरजने वाला
मजबूरी जताता है हीरो
देखने वाले रहें भ्रम में
पर पढ़ने वाले जानते हैं
कौन है पर्दे का कौन है और
कौन है पर्दे के पीछे का हीरो
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छोटे पर्दे पर भी
नजर आते है तमाम विरोधाभासी दृश्य
देखकर हैरान होता है मन
कोई हीरो कहता है 'संतुष्ट नहीं हो जाओ'
कोई संत कहैं'संतोष है सबसे बड़ा धन'
बच्चे ने पूछा अपने दादा से
'आप ही करो हमारी शंका का निवारण
राम को माने या देखें रावण
जंग में कूदें या ढूंढें अमन'
दादा ने कहा
'हीरो तो पैसा लेकर बोलता है
संत सच्चा है तो ग्रंथों से
रहस्य खोलता है
झूठा है तो बस ज्ञान को भी
दान की तराजू में तौलता है
इस रंग बदलती दुनिया में
सब रंग देखो दृष्टा बनकर
तो दिल और दिमाग में रहेगा अमन
नीयत में हो तो जिन्दगी में खिलेगा
सच का चमन

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Saturday, October 18, 2008

आख़िर कब तक रहेगा यह मंदी का दौर-आलेख

कहने को किसी भी देश के शेयर बाजारों के सूचकांक को उसकी आर्थिक ताकत का परिचायक माना जाता है पर कई लोग इसका समर्थन नहीं करते क्योंकि आम आदमी के जीवन यापन के लिये जो वस्तुऐं कृषि के माध्यम से प्राप्त होती हैं उसका इससे अधिक संबंध नहीं होता।
अन्य देशों की बात छोड़ कर अगर भारत की बात की जाये तो आज भी भारतीय अर्थव्यवस्था को कृषि उन्मुख माना जाता है। भले ही प्रचार माध्यम शेयर बाजारों के उतरा चढ़ाव पर लंबी चौड़ी बहसें कर रहे हों पर यह सच सभी जानते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था का इससे अधिक लेना देना नहीं हैं। उद्योग और सूचना प्रौद्योगिकी से से कई लोगों को रोजगार मिला है पर फिर भी देश में भारी बेरोजगारी है और उसके बावजूद यह देश अपनी कृषि के सहारे चल रहा है।
भारत के शेयर बाज़ार में मंदी या कई लोगों के चैन को छीन लिया है और जिन छोटे लोगों ने अपनी बड़ी बचतों (यह अलग बात है कि बड़े लोगों के हिसाब से वह भी छोटी होती है) को इनमें अधिक लाभ से लगा दिया था वह भी अब त्रस्त हैं। हालत यही है कि कई ऐसे लोग भी अपने व्यथा कथा कह रहे हैं जिन्होंने अपना विनिवेश चुपचाप कर उसके कागज़ एक तरफ रख दिए थे क्योंकि यह उनके लिए एक तरफ रखे गए पैसे की तरह था जिसका उपयोग कम से कम तात्कालिक रूप से करने वाले नहीं थे।

कई व्यवसायी पुरुषों तथा कामकाजी महिलाओं ने अपने परिवार को जानकारी देने की आवश्यकता अनुभव किये बिना इन म्यूचल फंडों में विनिवेश किया था। पिछले कुछ समय से लोगों का रुझान म्यूचल फंडों में अपनी बचत लगाने की तरफ बढ़ रहा था। कारण था इसमें कुछ कपनियों के भुगतान के तत्काल बाद ही लाभांश के रूप में एक निश्चित रकम की प्राप्ति। म्यूचल फंडों के बेचने वाले एजेंट पुराने साल के लाभांश को नए आवेदनों पर दिलवाने के नाम पर लोगों को इस तरफ खींचते रहे। सच तो यह है कि विनिवेशकों को १५ से २५ प्रतिशत तक की राशि लगाने के तत्काल बाद प्राप्त भी हुई।

इन म्यूचल फंडों में उन लोगों ने भी पैसा लगाया जो शेयर बाजार पर भरोसा नहीं करते थे। फिर इसमें कुछ सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के म्यूचल फंडों की उपस्थिति ने भी अन्य कंपनियों के म्यूचल फंडों के प्रति लोगों में विशवास कायम किया। कुल मिलाकर म्यूचल फंडों को इतना आकर्षक बनाया गया जिससे इसके साथ नए विनिवेशक भी जुड़े जो पहला शेयर बाजार से दूर थे। वैसे तो इन म्यूचल फंडों में पैसा उन्ही लोगों ने ही लगाया है जिनके पास बचत की राशि अतिरिक्त रूप में थी और अब बाजार के गिरने से उनको कोई अधिक फर्क नहीं पडा क्योंकि उनकी अपनी नियमित आय यथावत है पर वह अपने म्यूचल फंडों से वह जिस प्रकार के अतिरिक्त लाभ की आशा कर रहे थे वह प्राप्त नहीं हुआ। ऐसे विनिवेशक अधिकतर नौकरी पेशा हैं और अतिरिक्त लाभ की आशा पूर्ण न होने से निराश जरूर हैं पर मानसिक रूप से हताश बिलकुल नहीं हैं क्योंकि उनके नियमित खर्चों के भुगतान में उनको कोई परेशानी नहीं है। हाँ जिन लोगों ने इस चक्कर में अपनी नौकरी छोडी या सेवानिवृत्ति के बाद वहां से पैसा धन इन म्यूचल फंडों में लगाया उनके लिए हालत बहुत दु:खदायी हैं।

इसके अलावा जिन लोगों ने अपने छोटे व्यवसाय बंद कर नियमित रूप से इसमें अधिक धन पाने की आशा लगाई उनके लिए यह समय संकट का है। जिन लोगों ने रातों रात अमीर होने की आशा में अपना सब कुछ दाव पर लगा दिया उनके लिए तो हालत बदतर हैं-क्योंकि न तो अब कहीं से कोई उनको लाभांश प्राप्त हो रहा है और न उनके म्यूचल फंडों की पूँजी उतनी है जितनी उन्होंने लगाई थी। जो लाभांश उनको पहले प्राप्त हुआ था उन्होंने अपने रहन सहन का स्तर बढाने में उसे लगा दिया।
अब इस मंदी के बारे में विचार करें तो यह एक कृत्रिम मंदी लगती है क्योंकि आखिर इस देश को औद्योगिक सम्राज्य चंद लोगों के हाथ में ही है और वह सभी मिलकर किसी खास रणनीति के तहत बाजार को अपने हिसाब से चलाने का मादा रखते हैं। जिन लोगों ने अपना अतिरिक्त धन म्यूचल फंडों में लगाया है वह चिंतित अवश्य हैं पर इसके बावजूद वह उनको औने पौने दाम पर बेचने के लिये तैयार नहीं। वह जानते हैं कि आगे पीछे फिर इनके दाम बढ़ने हैं। अगर उनकी पूरी रकम डूब जाती है तो वह इसके लिये तैयार दिखते हैं पर ऐसा नहीं होगा क्योंकि उसके बाद देश के उद्योगपति छोटे निवेशकों का विश्वास हमेशा के लिये खो बैठेंगे और जिनकी इस बाजार में दिलचस्पी हो उन्हें यह समझना चाहिये कि भारत की बैंकों का मुख्य आधार उसके छोटे बचत कर्ता ही रहे हैं-भले ही देश के अर्थशास्त्री उसकी परवाह करते हुए नहीं दिखते।

यह छोटे निवेशक आज के औद्योगिक स्वरूप का आधार हैं। वह अगर लाभांश लेते हैं तो फिर उससे इन्हीं कंपनियों का सामान भी खरीदते हैं। अगर देश के उद्योगपति इस तरह के खेल में अगर उनकी रकम डुबा बैठे तो भविष्य में संकट उनके लिये ही गहराने वाला है-शारीरिक और बौद्धिक श्रम कर कमाने वाला निवेशक तो फिर भी दोबारा कमा लेगा।
अमेरिका की मंदी का भारत में प्रभाव सच कम अफसाना अधिक लगता है। आखिर भारत की कृषि और उद्योग का अपना एक आधार है। उसके निवेशकों पर यहां के जो उद्योग निर्भर हैं उनका तो उबरना कठिन हो सकता है पर जिनके आधार भारत के छोटे निवेशकों पर टिका है वह फिर उबर आयेंगे।

अभी अनेक कंपनियों ने अपने लाभांश की घोषणा नहीं की है। उनके अगर आगे निवेश चाहिये तो लाभांश घोषित तो कभी न कभी करना ही होगा और तब बाजार उठेगा। इतिहास में एक बार बाजार जबरदस्त ऊपर उठा था तब किसी के समझ में नहीं आया था पर पोल बाद में खुली थी। उस समय भी कई निवेशक दिवालिया हो गये थे। आज की मंदी भी कम रहस्यमय नहीं है। भारतीय बाजारों मे सामान की खरीद फरोख्त निरंतर हो रही है। किसी कंपनी ने अपने उत्पाद या सेवा का मूल्य कम नहीं किया तब आखिर यह किस तरह मंदी को एक सच्चाई स्वीकारकिया जाये। बाजार में आम उपभोग की वस्तुओं का मूल्य सूचकांक निंरतर बढ़ रहा है तब शेयक बाजार के सूचकांक का गिरना किसी को भी रहस्यमय लग सकता है। इसमें वह बड़े निवेशक अपना फायदा ले सकते हैं जो बेचने के लिये मजबूर निवेशक से उसका निवेश खरीद लेंगे।
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Monday, October 13, 2008

मोबाइल और प्यार-हास्य व्यंग्य

मोबाइल की बेटरी में खराबी की
खबर ने उसे हिला दिया
क्योंकि उसने अपनी गर्ल फ़्रेंड को दिये थे
उसी कंपनी की मोबाइल प्रेजेंट जिनकी बेट्री
के फ़ट्ने की खबर ने देश में भूचाल ला दिया
मिलता था वह जिन गर्लफ्रैंडस से
अलग दिन और अलग जगह पर
बेटरी फटने के भय ने
सबको एक ही दिन और ऐक ही समय
उसकी होस्टल के कमरे की छत के नीचे
आपस में मिलवा दिया

उसने सबको एक ही कंपनी के
मोबाइल तोहफ़े में दिये थे
जिनकी बेटरी फटने के चर्चे
टीवी चैनलों ने किये थे
भय से काँपती सब उसके रूम में पहुँची
अपने मोबाइल की बेटरी
बदलवाने का आग्रह लेकर
पर जो देखा वहां का मंजर
वह गुस्से में सब भूल गयीं और मिलकर
उसे छठी का दूध याद दिला दिया
जिसे जो मिला उसके सिर पर मार दिया


वह पिटा-कूटा अपने कमरे में पडा था
ऐक दोस्त ने आकर उसे उठाया
वजह पूछी पर वह कुछ नहीं बता रहा था
बस ऐक ही बात रोते हुए दोहरा रहा था
‘मोबाइल वालों तुमने यह क्या किया
बेटरी फट जाने देते
पहले ही प्रचार क्यों किया
जिस कंपनी के मोबाइल खरीद्कर लव में
हो गया था हिट उसने ही आज पिटवा दिया


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Sunday, October 12, 2008

सर्वशक्तिमान के दरबार में क्लर्क और हीरो-हास्य व्यंग्य कविता

हीरो और क्लर्क ऐक ही दिन
और ऐक ही समय पर
मंदिर में करने दर्शन करने पहुँचे
क्लर्क तो रोज वहाँ जाकर
अपना शीष नवाता था
नहीं करता कोई मिन्नत
न थे उसके सपने भी ऊँचे
उस दिन वहाँ सुरक्षाकर्मियों और
हीरो के प्रशंसकों की भीड़ थी
क्लर्क की समस्या यह थी कि
अपने इष्ट तक कैसे पहुँचे
उसने मुख्य चरण सेवक को पुकारा
यह सोचते हुए की वह तो जानते हैं
पूरी करेंगे मेरी आस
इससे पहले उसने नहीं डाली थी
कभी भी उनको घास
रोज आता और दर्शन कर चला जाता
कभी नहीं गया उनके पास
उनसे अब की उसने याचना और कहा
'हम तो यहाँ रोज आते हैं
आज दरवाजे बंद हैं
अपने को मुश्किल में पाते हैं
आप ही थोड़ी मदद कर दें तो
अपने इष्ट के दर्शन करने पहुँचे'

वह बोले
'मालूम है कि तुम रोज आते हो
और कभी हमें प्रणाम भी नहीं कर जाते हो
अपना अहसान क्यों जताते हो
हो तो ऐक मामूली क्लर्क
हीरो से पहले ही दर्शन करने की
इच्छा मन में पालते हो
कभी सोचा है
वह तो हर माह बहुत बडी रकम
चढ़ावे में भेजता है
तुम बताओ आज कितना
दान-पेटी में डाल जाते हो
फिर तुम्हारे पास है क्या
उसके पास सब है
बंगला,गाड़ी और दौलत के अंबार
उसके परिवार के सदस्यों का
देश-दुनिया में नाम है
ऊपर वाले की उस पर कृपा अपार है
तुम बाद में आना
समझ लो नीली छतरी वाले की मर्जी
हम तो चले, देखो वह आ पहुँचे'


क्लर्क मुस्कराया और फिर
अपने इष्ट को बाहर से किया नमन
फिर आने का विचार कर
निकल गया किये सिर ऊँचे

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Thursday, October 09, 2008

इतिहास तो कूड़ेदान की तरह है-व्यंग्य आलेख

लोग कहते हैं कि इतिहास से सीखना चाहिये। किसी को कोई नया काम सीखना होता है तो उससे कहा जाता है पीछे देख आगे बढ़। यह शायद अंग्रेजों द्वारा बताया गया कोई तर्क होगा वरना समझदार आदमी तो आज वर्तमान को देखकर न केवल भूतकाल का बल्कि भविष्य का भी अनुमान कर लेता है और जो पीछे देख आगे बढ़ के नियम पर चलते हैं वह जीवन में कोई नया काम नहीं कर सकता।

इतिहास किसी न किसी के द्वारा लिखा जाता और लिखने वाला निश्चित रूप से अपने पूर्वाग्रहों के साथ लिखता है। इसलिये जो इतिहास हमें पढ़ाया जाता है वह एक तरह का कूड़ेदान होता है। उससे सीखने का मतलब है कि अपनी बौद्धिक क्षमता से दुश्मनी करना। जिनकी चिंतन, मनन और अध्ययन की क्षमता कमजोर होती है पर वही इतिहास पढ़कर अपना विचार व्यक्त करते हैं। तय बात है जिसने अपनी शिक्षा के दौरान ही अपनी चिंतन,मनन और अध्ययन की जड़ें मजबूत कर ली तो फिर उसे इतिहास की आवश्यकता ही नहीं हैं। न ही उसे किसी दूसरे के लिखे पर आगे बढ़ने की जरूरत है।

आये दिन अनेक लेखक और विद्वान इतिहास की बातें उठाकर अपनी बातें लिखते हैंं। ऐसा हुआ था और वैसा हुआ था। एतिहासिक व्यक्तियों के चरित्र की मीमांसा ऐसा करेंगेे जैसे कि वह भोजन नहीं करते थे या और कपड़े कोई सामान्य नहीं बल्कि दैवीय प्रकार के पहनते थे। उनमें कोई दोष नहीं था या वह सर्वगुण संपन्न थे। कभी कभी लोग कहते हैं कि साहब पहले का जमाना सही था और हमारे शीर्षस्थ लोग बहुत सज्जन थे। अब तो सब स्वार्थी हो गये हैं। कुछ अनुमान और तो कुछ दूसरे को लिखे के आधार पर इतिहास की व्याख्या करने वाले लोग केवल कूड़ेदान से उठायी गयी चीजों को इस तरह प्रस्तुत करते हैं जैसे वह अब भी नयी हों।

बात जमाने की करें। कबीर और रहीम को पढ़ने के बाद कौन कह सकता है कि पहले समाज ऐसा नहीं था। जब समाज ऐसा था तो तय है कि उसके नियंत्रणकर्ता भी ऐसे ही होंगे। फिर देश में विदेशी आक्रमणकारियों की होती है। कहा जाता है कि वह यहंा लूटने आये। सही बात है पर वह यहां सफल कैसे हुए? तत्कालीन शासकों, सामंतों और साहूकारों की कमियां गिनाने की बजाय विभक्त समाज और राष्ट्र की बात की जाती है। इस सवाल का जवाब कोई नहीं देता कि आखिर विदेशी शासकों ने इतने वर्ष तक राज्य कैसे किया? यहां के आमजन क्यों उनके खिलाफ होकर लड़ने को तैयार नहीं हुए।

इतिहास से कोई बात उठायी जाये तो इस पर फिर अपनी राय भी रखी जाये। हम यहां उठाते हैं महात्मा गांधी द्वारा अंग्रेजों के विरुद्ध प्रारंभ किये आंदोलन की घटना। दक्षिण अफ्रीका में अंग्रेजों को जमीन दिखाने के बाद जब वह भारत लौटे तो उनसे यहां स्वाधीनता आंदोलन का नेतृत्व प्रारंभ करने का आग्रह किया गया। उन्होंने इस आंदोलन से पहले अपने देश को समझने की लिये दो वर्ष का समय मांगा और फिर शुरु की अपनी यात्रा। उसके बाद उन्होंने आंदोलन प्रारंभ किया। दरअसल वह जानते थे कि आम आदमी के समर्थन के बिना यह आंदोलन सफल नहीं होगा। अंग्रेजों की छत्रछाया में पल रही राजशाही और अफसरशाही का मुकाबला बिना आम आदमी के संभव नहीं था। आज भी भारत में गांधीजी को याद इसलिये किया जाता है कि उन्होंने आम आदमी की चिंता की। यह पता नहीं कि उन्होंने इतिहास पढ़ा था या नहीं पर यह तय है कि उन्होंनें इसकी परवाह नहीं की और इतिहास पुरुष बन गये। यह पूरा देश उनके पीछे खड़ा हुआ।

गांधीजी का नाम जपने वाले बहुत हैं और उनके चरित्र की चर्चा गाहे बगाहे उनके साथी करते हैं पर आम आदमी को संगठित करने के उनके तरीके के बारे में शायद ही कोई सोच पाता है। अपने अभियानों और आंदोलनों को जो सफल करना चाहते हैं उनको गांधीजी द्वारा कथनी और करनी के भेद को मिटा देने की रणनीति पर अमल करना चाहिये। हो रहा है इसका उल्टा।
गांधीजी के नारे सभी ने ले लिये पर कार्यशैली तो अंग्रेजों वाली ही रखी। इसलिये हालत यह है कि आम आदमी किसी अभियान या आंदोलन से नहीं जुड़ता।

बड़े बड़े सूरमाओें से इतिहास भरा पड़ा है पर वह हारे क्यों? सीधा जवाब है कि आम आदमी की परवाह नहीं की इसलिये युद्ध हारे। आखिर विदेशी आक्रमणकारी सफल कैसे हुए? क्या जरूरत है इसे पढ़ने की? आजकल के आम आदमी में व्याप्त निराशा और हताशा को देखकर ही समझा जा सकता है। पद, पैसे और प्रतिष्ठा मंें मदांध हो रहे समाज के शीर्षस्थ लोगों को भले ही कथित रूप से सम्मान अवश्य मिल रहा है पर समाज में उनके प्रति जो आक्रोश है उसको वह समझ नहीं पा रहे। महंगी गाड़ी को शराब पीकर चलाते हुए सड़क पर आदमी को रौंदने की घटना का कानून से प्रतिकार तो होता है पर इससे समाज में जो संदेश जाता है उसे पढ़ने का प्रयास कौन करता है। बड़े लोगों की यह मदांधता उन्हें समाज से मिलने वाली सहानुभूति खत्म किये दे रही है। देश की बड़ी अदालत ने शराब पीकर इस तरह गाड़ी चलाने वाले की तुलना आत्मघाती आतंकी से की तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिये। यह माननीय अदालतें इसी समाज का हिस्सा है और उनके संदेशों को व्यापक रूप में लेना चाहिये।

आखिर धन और वैभव से संपन्न लोग उसका प्रदर्शन कर साबित क्या करना चाहते हैं। शादी और विवाहों के अवसर पर बड़े आदमी और छोटे आदमी का यह भेद सरेआम दिखाई देता है। आजकल तो प्रचार माध्यम सशक्त हैं और जितना वह इन बड़े लोगों को प्रसन्न करने के लिये प्रचार करते हैं आम आदमी के मन में उनके प्रति उतना ही वैमनस्य बढ़ता हैं।

इतिहास में दर्ज अनेक घटनाओं के विश्लेषण की अब कोई आवश्यकता नहीं है। कई ऐसी घटनायें हो रही हैं जो इतिहास की पुनरावृति हैंं। एक मजे की बात है कि विदेशियों के विचारों की प्रशंसा करने वाले कहते हैं कि इस देश के लोग रूढि़वादी, अंधविश्वासी और अज्ञानी थे पर देखा जाये तो भले ही ऐसे लोगों ने विदेशी ज्ञान की किताबें पढ़ ली हों पर वह भी कोई उपयोगी नहीं रहा। कोई कार्ल माक्र्स की बात करता है तो कोई स्टालिन की बात करता और कोई माओ की बात करता जबकि उनके विचारों को उनके देश ही छोड़ चुके हैं। ऐसे विदेशी लोगों के संदेश यहां केवल आम आदमी को भरमाने के लिये लाये गये पर चला कोई नहीं। यही कारण है कि आम आदमी की आज किसी से सहानुभूति नहीं है। लोग नारे लगा रहे हैं पर सुनता कौन है? हर आदमी अपनी हालतों से जूझता हुआ जी रहा है पर किसी से आसरा नहीं करता। यह निराशा का चरम बिंदू देखना कोई नहीं चाहता और जो देखेगा वह कहेगा कि इतिहास तो कूड़ेदान की तरह है। टूटे बिखरे समाज की कहानी बताने की आवश्यकता क्या है? वहा तो सामने ही दिख रहा है।
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Sunday, October 05, 2008

जब मन की हलचल बेजार कर देती है-हिन्दी शायरी

दिल के अन्दर चलती हुई हलचल
जब बेजार कर देती है
तब कुछ शब्द लिखने को
हो जाता हूँ बेताब
यही एक रास्ता लगता है बचने के वास्ते
अपने अन्दर मच रहे कुहराम से
डर लगता है मुसीबत की नाम से
अगर अपनी सोच को
बाहर जाने का रास्ता नहीं दिखाता
तो बन जाता है जला देने वाला तेजाब

अपनी कविता लिखकर उबर आता हूँ
शब्दों को फूलों की तरह सहलाता हूँ
उनसे ज़माना उबर आयेगा
यह कभी ख्याल नही आता
कोई देगा शाबाशी
यह ख्याल भी नहीं भाता
अपनी बैचेनी से निकलना
भला किसी क्रांति से कम है
लोगों की क्या सोचें
उनको भ्रान्ति के ढेर सारे गम हैं
ख्वाहिशों की अंधे कुँए में
डूबते हुए लोग और
उसमें धँसने को तैयार हैं
आना कोई बाहर नहीं चाहता
दिखते जरूर हैं आज़ादी पाने को बेताब

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