Monday, December 29, 2008

अपना लेखक घर पर ही टांगकर सम्मलेन में जायें-व्यंग्य

अक्सर कुछ लेखक जब कहीं बड़े लेखकों की साहित्य से संबंधित ऐसी बात सुनते हैं जो उनको अरुचिकर लगे तो उस पर अपनी कड़ी प्रतिक्रिया कहीं अखबार में पत्र संपादक में लिखते हैं-उनको अखबार अन्य कहीं जगह दे भी नहीं सकते क्योंकि बड़े साहित्यकारों के लिये सभी जगह सुरक्षित है। आजकल अंतर्जाल पर भी ऐसी ही प्रतिक्रियायें पढ़ने को मिल रही हैं।

हिंदी में कुछ ऐसे लेखक हैं जो मशहूर नहीं है पर साहित्य में रुचि होने के कारण लिखते भी हैं और अवसर मिल जाये तो ऐसे सम्मेलनों मे जाते हें जहां साहित्य या उससे जुड़ी किसी विद्या पर चर्चा होती है । कहा जाये तो ऐसे सम्मेलनों में अंशकालिक लेखक आम श्रोता और वक्ता के रूप में जाते हैं। वहां कुछ कथित बड़े साहित्यकार आते हैं जो प्रसिद्धि के शिखर पर होने के कारण वहां वह भाषण वगैरह करते हैं। हिंदी साहित्य में दो तरह के लेखक हैं एक तो वह जो केवल पूर्णकालिक लेखक हैं उन्हें बड़ा साहित्यकार इसलिये माना जाता है कि वह केवल लिखते हैं और उनके संबंध इस तरह बन जाते हैं कि उनको पुरस्कार भी मिलते हें। अंशकालिक लेखक वह हैं जो अपनी रोजी रोटी अन्य काम कर चलाते हैं और लिखना उनके के लिये एक स्वांत सुखाय विधा है। तय बात है साहित्येत्तर सक्रियता न होने के कारण उनको इनाम या सम्मान नहीं मिलता इसलिये वह छोटे साहित्यकार कहलाते हैं। इन अंशकालिक लेखकों की बड़े साहित्यकारों की नजर में कोई अहमियत नहीं होती।

बहरहाल अंशकालिक साहित्यकार होने के बावजूद इस लेखक ने देखा है कि अनेक कथित बड़े साहित्यकार अपनी रचनाओं की वजह से कम वक्तव्यों की वजह से अधिक जाने जाते हैं। दरअसल ऐसे बड़े साहित्यकारों को यह अहंकार है कि वह समाज का मार्गदर्शन कर रहे हैं पर अगर समाज की वर्र्तमान हालत देखें तो यह आसानी से समझा जा सकता है कि इन साहित्यकारों ने अपनी सारहीन और काल्पनिक रचनाओं के अलावा कुछ नहीं दिया। ऐसे अनेक कथित बड़े साहित्यकार हैं जिनका नाम आम आदमी नहीं जानता। उनके चेले चपाटे गाहे बगाहे उनकी प्रशंसा में गुणगान अवश्य करते हैं पर हिंदी भाषा का पाठक वर्ग उनको नहीं जानता। आम पाठक की बात ही क्या अनेक लेखक तक उनको नहीं पढ़ पाये। आखिर ऐसा क्यों हैं कि हिंदी में मूर्धन्य साहित्यकार हैं पर हिंदी भाषी लोगों की जुबान पर नहीं चढ़ा।

थोड़ा विचार करें तों स्वतंत्रता के बाद इस देश में अव्यवस्थित विकास के साथ हिंदी का प्रचार बढ़ा। एक प्रगतिशील विचाराधारा के लोगों ने सभी जगह अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया। उसके लेखक पश्चिमी विचाराधाराओं से प्रभावित हो। यहां हम अगर देखें तो राष्ट्रवादी और प्रगतिशील विचाराधारा दोनों ही पश्चिम से आयातित है। भारत में व्यक्ति,परिवार, समाज और राष्ट्र के ं क्रम चलता है जबकि पश्चिम में इसके विपरीत है। प्रगतिशील तो इससे भी आगे हैं वह सभी को टुकड़ों में बांटकर चलते हैं। भारतीय विचार कहता है कि किसी एक व्यक्ति का कल्याण करो तो वह उसका लाभ अपने परिवार को भी देता है। इस तरह परिवार, परिवार से समाज और समाज राष्ट्र का कल्याण होता है। पश्चिमी विचार धारा कहती है कि राष्ट्र का कल्याण करो तो व्यक्ति का कल्याण होगा। प्रगतिशील विचार धारा हर जगह व्यक्ति,परिवार,समाज, और राष्ट्र में भेद करती हुई चलती है। इसी प्रगतिशील विचारधारा ने एकछत्र राज्य किया। दरअसल इसके लेखक पश्चिम के लेखकों और दार्शनिकों के विचारों को यहां प्रस्तुत करते और उसे आधुनिक कहकर बताते और अपनी रचनाये करते गये। उनकी रचनाओं में पात्र या क्षेत्र भारत के हैं पर उस पर उनकी लेखकीय दृष्टि पश्चिमी ढंग की है। बांटकर खाओ का नारा लगता है तो पहले व्यक्ति ओर शय दोनों को ही अलग कर देखना पड़ता है। बांटने के लिये काटना पड़ता है और इस तरह शुरु हो जाता है नकारात्मक विचाराधारा।

शिक्षा,कला,फिल्म,पत्रकारिता तथा साहित्य में इस विचाराधारा के लोगों का वर्चस्व रहा। रचनाऐं खूब हुईं पर भारतीय पुट नदारद रहा। लेखक प्रसिद्ध होकर इनाम और सम्मान प्राप्त करते गये पर पाठक का प्रेम उनको कभी नहंीं मिला। इनका शिक्षा जगत पर प्रभाव इतना रहा कि राष्ट्रवादी विचारा धारा के लेखक भी उसमें बहते गये। अब राष्ट्रवादी लेखक भी प्रगतिशीलों से अलग होने का दावा करते हैं पर कार्यशैली के बारे में वह कोई उनसे अलग नहीं है। दोनों की नारों और वाद की लय में चलते हैं पर समाज की वास्तविकताओं को दोनों ने नजरअंदाज किया।

जब कुछ अंशकालिक लेखक इन बड़ लेखकों की बात सुनकर दुःखी होते हैं तो उनके पास कोई चारा नहीं होता कि तत्काल इसका प्रतिवाद करें। वह अखबारों में पाठकों के पत्र पर अपना विरोध करते हैं। आजकल अंंतर्जाल पर ब्लाग लिखने वाले भी अपना दुःख व्यक्त करने लगे हैं। दरअसल उन्हें यह भ्रम हो जाता है कि इतने बड़े साहित्यकार कैसी बेतुकी बातें कर रहे हैं पर बड़े यानि क्या? सबसे ज्यादा छपते हैं तो यहां अगर संबंध हों तो कोई भी छप सकता है। वैसे भी आजकल साहित्यक पत्र पत्रिकाओंं में जो लोग छप रहे हैं वह प्रसिद्ध लोग हैं। आम आदमी के लिये तो लेखन एक विलासिता बन गयी है और यह सब इ्रन्हीं प्रगतिशील लोगों द्वारा बनायी गयी वैचारिक व्यवस्था का परिणाम है।

यह लेखक इतने बड़े हैं और क्रांति करने वाली रचनायें करते हैं तो समाज इतना कायर कैसे हो गया? जवाब है कि फिल्मों ने कायर बनाया। एक हीरो सारे खलनायकों का नाश करता है उसे कहीं आम आदमी की भीड़ लगाते हुए देखा नहीं जाता। जनता की एकता का सपना देखने वाले किसी प्रगतिशील ने इसका कभी विरोधी नहीं किया जबकि वह जानते थे कि समाज कायरता की तरफ जा रहा हैं। ऐसे कई दृश्य फिल्मों में दिखाये गये जिसमे ईमानदारी पुलिस कर्मी के परिवार का खलनायक ने बर्बाद किया। इन फिल्मों से पहले कभी ऐसा नहीं हुआ पर आदमी डरता चला गया। कई फिल्मों में गवाह को डराते हुए दिखाया गया। ऐसे अनेक दृश्य हैं जिन्हें देखते हुए अन्याय के खिलाफ लड़ने पर उसका दुष्परिणाम देखकर किसी के अंदर साहस नहीं हो सकता। ऐसे में इन बड़े लेखकों ने आंखें मूंद रखीं। एक और दिलचस्प बात यह है कि विदेश से पुरस्कार प्राप्त लोगों को सिर पर उठाया गया। इसके बारे में विख्यात साहित्यकार नरेंद्र कोहली जी का कहना कि वह एक साजिश के तरह भारत विरोधियों को दिये जाते हैं। हां, इस देश में कायरता के बीज बोने वालों को ही प्रोत्साहित किया गया ताकि उनके झंडे तले ही भीड़ आये कहीं स्वतंत्र रूप से कार्यवाही न करे।

इन कथित बड़े लेखकों ने रहीम और कबीर का मजाक उड़ाया। जानते हैं क्यों? उन जैसा कोई सच लिख नहीं सकता। इन्होंने पूज्यनीय धार्मिक पात्रों को मिथक बताकर प्रचार किया। जानते हैं क्यों? ताकि लोग उनको भूल जायें और उनके द्वारा सुझाये गये नये भगवानों को पूजें। उनके अधिकतर पात्र विदेशों में राज्य कर रहे नेता ही रहे हैं? उनका बयान इस तरह करते हैं जैसे कि उनमें कोई दोष नहीं था। उनकी जनता उनसे बहुत खुश रही थी। भारत में पूज्यनीय धार्मिक पात्रों के दोष गिनाते हैं पर उनके विदेशी पात्रों के दोष कौन देखने बाहर जाये?

पहली बात तो यह है कि अंशकालिक लेखकों को यह भ्रम नहीं पालना चाहिये कि वह किसी बड़े लेखक को सुनने जा रहे हैं। ऐसे सम्मेलनों में जाना चाहिये क्योंकि व्यंग्य लिखने के लिये वहां अच्छी सामग्री मिल जाती है। लेखक कोई बड़ा या छोटा नहीं होता। उसकी रचना कितनी प्रभावी है यह महत्वपूर्ण है और यकीनन इस समय देश में उंगलियों पर गिनने लायक ही ऐसे कुछ लेखक हैं जिनका वाकई हिंदी के आम पाठक पर प्रभाव है पर उनको कोई बड़े इनाम नहीं मिले। इसलिए ऐसे सम्मेलनों में बड़े आराम से जायें पर अपना लेखक घर पर ही टांग जायें तो कोई अफसोस नहीं होगा।
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Friday, December 26, 2008

दुःख की अनुभूति-हिंदी शायरी

ऊंचा मकान है
जिसके चारों और फैली हरियाली
अंदर कमरें में महंगे सोफे पर वह शख्स
सामने टीवी पर चलते दृश्य
हाथों में रिमोट से
बदलता है वह परिदृश्य
दिमाग में छाये तनाव के बादल
भौतिकता के शिखर पर बैठकर
बेचैनी उसका पीछा नहीं छोड़ती

आखिर दौलत,शौहरत और बड़ा ओहदा
सुख का प्रतीक माने जाते
पर फिर भी दुःख की अनुभूति
यह सब कुछ मिल जाने पर
आदमी का पीछा क्यों नहीं छोड़ती

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Tuesday, December 23, 2008

दिखावे के रिश्ते में वफ़ा का रस-हिन्दी शायरी

ऊंचे सिंहासन पर
बैठे इतना न इतराओ
अपने पास लगी भीड़ को
अपना भक्त न बताओ
जब गिरोगे वहाँ से
सब पास खड़े लोग, दूर हो जायेंगे
यह पूज रहे हैं उस सिंहासन को
जिस पर तुम बैठे हो
दिखा रहे हैं जैसे तुम ही भगवान् हो
पर तुम्हारे बाद भी दूसरे लोग
इस आसन पर बैठने आयेंगे
यही भक्त
तुम्हारा नाम भूलकर
उनको पूजने लग जायेंगे
लोग खेलते हैं अपनी भावनाओं से
तुम मत बहलना
खेलती हैं माया
लोग ख़ुद खेलने का वहम पाल लेते हैं
दिखावे के रिश्ते में वफ़ा का रस भर देते हैं
जुबान पर कुछ और है और दिल में कुछ और
इस जहाँ में झूठ ही बनता है सिरमौर
जिन्दगी का सत्य समझ जाओ
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अपनी जेब में पैसा हो तो
अनजान भी जोड़ने लग जाते हैं रिश्ते
अगर नहीं हो अपने पास कौडी
तो करीब के भी लोग भूल जाते हैं
वफ़ा बिकती है बाज़ार में
सस्ती या महंगी हो
उसके रस और रंग भी अलग अलग दिखते

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Saturday, December 20, 2008

बदलाव लाने वाला यह कौन आया-हास्य कविता

एक शिक्षक ने बच्चों को पढाते हुए
नैतिक आचरण की शिक्षा दी और बताया
"अपने काम के लिए वेतन के अलावा
किसी से पैसे लेना ही भ्रष्टाचार है
चोरी से बड़ा अपराध है
जो करे देश का गद्दार है
इसलिए हमेशा ईमानदारी से काम करना
खतरे की तलवार हमेशा देश पर टंगी रहेगी वरना
ऐसा ही विद्वानों ने भी बताया''

दूसरे दिन ही अनेक छात्रों के अभिभावक स्कूल
में पहुंचकर प्राचार्य से लड़ने लगे और बोले
''यह कैसा शिक्षक रखा है
जो दे रहा है ऐसी गंदी शिक्षा
क्या हमारे बच्चों से मंगवायेगा भिक्षा
उपरी कमाई को कहता है भ्रष्टाचार
जिन्दगी की असलियत का नहीं करता विचार
वेतन से भला कभी घर चलते हैं
यह बच्चे क्या ऐसे पलते हैं
चोरी ही सबसे बड़ा अपराध है
बरसों से किताबे में यही पढाया
उसमें बदलाव लाने वाला यह कौन आया
हमने कितने संजोये हैं
बच्चों के भविष्य को लेकर सपने
यह उनको बिखेर देगा
क्या हमने इसलिए अपने बच्चों को
स्कूल में भिजवाया"

प्राचार्य ने उनसे माफी मांगी और
उस शिक्षक को अपने स्कूल से हटाया

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Thursday, December 18, 2008

इस तरह अपमान करना कोई कठिन काम नहीं था-आलेख

अमेरिका के राष्ट्रपति पर इराक के एक पत्रकार द्वारा जूता फैंके जाने की घटना को लेकर कुछ लोग जिस तरह उसकी प्रशंसा कर रहे हैं वह हास्यास्पद है। सबसे अजीब बात यह है कि अनेक देशों के पत्रकार उसका समर्थन कर रहे हैं। वह यह भूल रहे हैं कि उसने अपने ही देश के लोगो को धोखा दिया है। वह एक पत्रकार के रूप में उस जगह पर गया था किसी आंदोलनकारी के रूप में नहीं। इतना ही नहीं वहां इराक के प्रधानमंत्री भी उपस्थित थे और वह पत्रकार किसी स्वतंत्रता आंदोलन का प्रवर्तक नहीं था। अगर वह पत्रकार नहीं होता तो शायद इराक के सुरक्षाकर्मी ही उसे अंदर नहीं जाने देते जो कि उसके देश के ही थे।
आज के सभ्य युग में प्रचार माध्यमों में अपना नाम पाने के लिये उससे जुड़+े लोगों को सभी जगह महत्व दिया जाता है और इस पर कोई विवाद नहीं है। टीवी चैनलों के पत्रकार हों या अखबारों के उन जगहों पर सम्मान से बुलाये जाते हैं जहां कहीं विशिष्ट अतिथि इस उद्देश्य से एकत्रित होते हैं कि उनका संदेश आम आदमी तक पहुंचे। कहीं कोई विशेष घटना होती है तो वहां पत्रकार सूचना मिलने पर स्वयं ही पहुंचते हैं। कहीं आपात स्थिति होती है तो उनको रोकने का प्रयास होता है पर वैसा नहीं जैसे कि आदमी के साथ होता है। पत्रकार लोग भी अपने दायित्व का पालन करते हैं और विशिष्ट और आम लोगों के बीच एक सेतु की तरह खड़ होते हैंं। ऐसे में पत्रकारों का दायित्व बृहद है पर अधिकार सीमित होते हैं। सबसे बडी बात यह है कि उनको अपने व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों से परे होना होता है। अगर वह ऐसा नहीं कर पाते तो भी वह दिखावा तो कर ही सकते है। अमेरिका के राष्ट्रपति का विरोध करने के उस पत्रकार के पास अनेक साधन थे। उसका खुद का टीवी चैनल जिससे वह स्वयं जुड़ा है और अनेक अखबार भी इसके लिये मौजूद हैं।

ऐसा लगता है कि अभी विश्व के अनेक देशों के लोगों को सभ्यता का बोध नहीं है भले ही अर्थ के प्रचुर मात्रा में होने के कारण उनको आधुनिक साधन उपलब्ध हो गये हों। जब इराक मेंे तानाशाही थी तब क्या वह पत्रकार ऐसा कर सकता था और करने पर क्या जिंदा रह सकता था? कतई नहीं! इसी इराक में तानाशाही के पतन पर जश्न मनाये गये और तानाशाह के पुतलों पर जूते मारे गयेै। यह जार्ज बुश ही थे जिन्होंने यह कारनामा किया। जहां तक वहां पर अमेरिका परस्त सरकार होने का सवाल है तो अनेक रक्षा विद्वान मानते हैं कि अभी भी वहां अमेरिकी हस्तक्षेप की जरूरत है। अगर अमेरिका वहां से हट जाये तो वहां सभी गुट आपस मेंे लड़ने लगेंगे और शायद इराक के टुकड़े टुकड़े हो जाये। अगर उनके पास तेल संपदा न होती तो शायद अमेरिका वहां से कभी का हट जाता और इराक में आये दिन जंग के समाचार आते।
अमेरिका के राष्ट्रपति जार्जबुश कुछ दिन बाद अपने पद से हटने वाले हैं और इस घटना का तात्कालिक प्रचार की दृष्टि से एतिहासिक महत्व अवश्य दिखाई देता है पर भविष्य में लोग इसे भुला देंगे। इतिहास में जाने कितनी घटनायें हैं जो अब याद नहीं की जाती। वह एक ऐसा कूड़ेदान है जिसमें से खुशबू तो कभी आती ही नहीं इसलिये लोग उसमें कम ही दिलचस्पी लेते हैं और जो पढ़ते है उनके पास बहुत कुछ होता है उसके लिये। घटना वही एतिहासिक होती है जो किसी राष्ट्र, समाज, व्यक्ति या साहित्य में परिवर्तन लाती है। इस घटना से कोई परिवर्तन आयेगा यह सोचना ही मूर्खता है। कम से कम उन बुद्धिजीवियों को यह बात तो समझ ही लेना चाहिये जो इस पर ऐसे उछल रहे हें जैसे कि यहां से इस विश्व की कोई नयी शुरुआत होने वाली है।

चाहे कोई भी लाख कहे एक पत्रकार का इस तरह जूता फैंकना उचित नहींं कहा जा सकता जब वह वाकई पत्रकार हो। अगर कोई आंदोलनकारी या असंतुष्ट व्यक्ति पत्रकार के रूप में घूसकर ऐसा करता तो उसकी भी निंदा होती पर ऐसे में कुछ लोग उनकी प्रशंसा करते तो थोड़ा समझा जा सकता था।

पत्रकार के परिवार सीना तानकर अपने बेटे के बारे में जिस तरह बता रहे थे उससे लगता है कि उनको समाज ने भी समर्थन दिया है और यह इस बात का प्रमाण है कि वहां के समाज में अभी सभ्य और आधुनिक विचारों का प्रवेश होना शेष है। समाचारों के अनुसार मध्य ऐशिया के एक धनी ने उस जूते की जोडी की कीमत पचास करोड लगायी है पर उसका नाम नहीं बताया गया। शायद उस धनी को यह बात नहीं मालुम कि पत्रकार ने अपने ही लोगों के साथ धोखा किया है। वैसे भी कोई धनी अमेरिका प्रकोप को झेल सकता है यह फिलहाल संभव नहीं लगता। अमेरिका इन घटनाओं पर आगे चलकर क्या प्रतिक्रिया व्यक्त करता है यह अलग बात है पर कुछ दिनों में उसी पत्रकार को अपने देश में ही इस विषय पर समर्थन मिलना कम हो जायेगा। अभी तो अनेक लोग इस पर खुश हो रहे हैं देर से ही सही उनके समझ में आयेगी कि इस तरह जूता फैंकना कोई बहादुरी नहीं है। किसी भी व्यक्ति के लिये प्रचार माध्यम से जुड़कर काम के द्वारा प्रसिद्धि प्राप्त करने कोई कठिन काम नहीं है इसलिये उसे धोखा देकर ऐसा हल्का काम करने की आवश्यकता नहीं है। कुछ समय बाद क्या स्थिति बनती है यह तो पत्रकार और उसके समर्थकों को बाद में ही पता चलेगा। मेहमान पर इस तरह आक्रमण करना तो सभी समाजों में वर्जित है और समय के साथ ही लोग इसका अनुभव भी करेंगे।
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Friday, December 12, 2008

आंतक तुम्हारे दिल में घर नहीं बनायेगा-तीन क्षणिकायें

आतंक को पंख नहीं है
पर फिर भी हमेशा उड़ता नजर आता
इंसान के दिल में बैठा डर
उसे चुंबक की तरह खींच लाता है
शायद इसलिये इंसानों के
जज्बातों से खिलवाड़ कर
अपने धंधे चलाने वालों को
आतंक की हवा बाजार में बेचने के लिये
सड़क पर असली खून
बहाना जरूरी नजर आता है
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आने से पहले मौत इंसान को
जिंदगी में कितनी बार डराती है
अपना भूत हमेशा उसके पीछे दौड़ाती है
जेहन में जो आदमी के है
वही दहशत उसका सहारा बन जाती है
....................................................

तुम डरो नहीं तो
आतंक कहीं नजर नहीं आयेगा
समझ लो जब तक तय नहीं है
तो मौत का दिन नहीं आयेगा
फिर किसी का आतंक
तुम्हारे दिल में घर नहीं बनायेगा

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Tuesday, December 09, 2008

विश्वास करने के सजा धोखा कर दे जाते-हिन्दी शायरी

शादी में शराब पीकर
नृत्य करते हुए
ऊपर गालिया दागते हुए
लोग बन्दर जैसे नजर आते
और बन्दर कहो तो चिढ जाते
किससे कहें अपने मन की बात
इंसानों के भेष में में सांप-बिच्छू , भेडिये
और सियार हमारे सामने आते
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किताबों पढ़कर चंद शब्द लेकर
चल रहे हैं साथ लेकर उपाधियों के झुंड
दिखते हैं नरमुंड
बोलते हैं प्यार से जैसे अपने हों
दिखाते हैं ऐसे सच जो सिर्फ सपने हों
मौका पाते ही पीठ में चुरा घोंप जाते
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कितनी बार तो निकला होगा
लहू हमारी पीठ से
जब भी पाला पडा किसी ढीठ से
अब तो चेहरे पर नकाब लगाकर
वह कत्ल नहीं करते
मुट्ठी में सब बंद है सब फैसले उनके
बिना जिरह के ही फ़ैसले करते
विश्वास करने की सजा
धोखा कर दे जाते

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Saturday, December 06, 2008

जमाने को दिखाने के लिये जो रोते हैं-व्यंग्य कविता

वह उदास था
उसके चेहरे पर थी गम की लकीरें
पर उससे कहा गया कि
जब तक रोएगा नहीं तब
तक उसके दुःख को सच नहीं माना जायेगा
उसके दर्द को तभी माना जायेगा असली
जब वह अपने आंसू जमीन पर गिरायेगा

उसने कहा
‘दिखाने के लिये जो रोते हैं
उनके पास ही ऐसे हथकंडे होते हैं
दिल में हो या नहीं गम
पर दहाड़ कर रोते हैं
अगर कोई गम है दिल में
तो बहकर ऐसे नहीं बाहर आयेगा
कि इंसान उसे दिखायेगा
गम होना अलग चीज है
उस पर आंसू बहाना अलग
जिनके दिल में सच में दर्द है
वह दिखाता है चेहरा
पर जुबान पर क्भी नहीं आयेगा

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Thursday, December 04, 2008

कूटनीति के साथ के साथ सैन्य कार्रवाई भी संभव-आलेख

भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध की प्रत्यक्ष रूप से युद्ध की संभावना नहीं है पर इस बात से इंकार करना भी कठिन है कि कोई सैन्य कार्यवाही नहीं होगी। पाकिस्तान के राष्ट्रपति जरदारी ने स्पष्ट रूप से 20 आतंकवादी भारत को सौंपने से इंकार कर दिया पर उन्होंने यह नहीं कहा कि वह उनके यहां नहीं है। स्पष्टतः उन्होंने दोनों पक्षों के बीच अपने आप को बचा लिया या कहें कि एकदम बेईमानी वाली बात नहीं की। हालांकि इससे यह आशा करना बेकार है कि वह कोई भारत के साथ तत्काल अपना दोस्ताना निभाने वाले हैं जिसकी चर्चा वह हमेशा कर रहे हैंं।

जरदारी आतंकवादियों का वह दंश झेल चुके हैं जिसका दर्द वही जानते हैं। अगर वह सोचते हैं कि आतंकवादियों का कोई क्षेत्र या धर्म होता है तो गलती पर हैंं। भारत के आतंकवादी उनके मित्र हैं तो उन्हें यह भ्रम भी नहीं पालना चाहिये क्योंकि यही आतंकवादी उनके भी मित्र हैं जो पाकिस्तान के लिये आतंकवादी है। आशय यह है कि आतंकवादी उसी तरह की राजनीति भी कर रहे हैं जैसे कि सामान्य राजनीति करने वाले करते हैं। राजनीति करने वाले लोग समाज को धर्म, जाति,भाषा, और क्षेत्र के नाम बांटते हैं और यही काम आतंकी अपराध करने वाले समूह सरकारो में बैठे लोगों के साथ कर रहे हैं। वह उनको बांटकर यह भ्रम पैदा करते हैं कि वह तो सभी के मित्र हैं। अगर आम आदमी की तरह शीर्षस्थ वर्ग के लोग भी अगर इसी तरह आतंकी अपराध करने वाले समूहों की चाल में आ जायेंगे तो फिर फर्क ही क्या रह जायेगा? आसिफ जरदारी किस तरह के नेता हैं पता नहीं? वह परिवक्व हैं या अपरिपक्व इस बात के प्रमाण अब मिल जायेंगे। एक बात तय रही कि जब तक भारत का आतंकवाद समाप्त नहीं होगा तब तक पाकिस्तान में अमन चैन नहीं होगा यह बात जरदारी को समझ लेना चाहिये।

कहने वाले तो यह भी कहते हैं कि बेनजीर के शासनकाल में ही भारत के विरुद्ध आतंकवाद की शुरुआत हुई थी। अगर जरदारी अपनी स्वर्गीय पत्नी को सच में श्रद्धांजलि देना चाहते हैं तो वह चुपचाप इन आतंकवादियों को भारत को सौंप दें पर अगर वह अभी ऐसा करने में असमर्थ अनुभव करते हैं तो फिर उन्हें राजनीतिक चालें चलनी पड़ेंगी। इसमें उनको अमेरिका और भारत से बौद्धिक सहायता की आवश्यकता है पर सवाल यह है कि क्या अमेरिका अभी भी ढुलमुल नीति अपनाएगा। हालांकि उसके लिये अब ऐसा करना कठिन होगा क्योंकि रक्षा विशेषज्ञ उसे हमेशा चेताते हैं कि आतंकवादी भारत में अभ्यास कर फिर उसे अमेरिका में अजमाते हैं। अमेरिका की खुफिया एजेंसी एफ.बी.आई. ने ऐसे ही नहीं भारत में अपना पड़ाव डाला है। भारत की खुफिया ऐजेंसियेां के उनके संपर्क पुराने हैं और जिसके तहत एक दूसरे को सूचनाओं का आदान प्रदान होता है-यह बात अनेक बार प्रचार माध्यमों में आ चुकी है।

संयुक्त राष्ट्र के महासचिव वान कहते हैं कि यह अकेले भारत पर नहीं बल्कि पूरे विश्व पर हमला है। इजरायल भी स्वयं अपने पर यह हमला बताता है। पाकिस्तान इस समय दुनियां में अकेला पड़ चुका है। ऐसे में अगर वहां लोकतांत्रिक सरकार नहीं होती तो शायद उसे और मुश्किल होती पर इस पर भी विशेषज्ञ एक अन्य राय रखते हैं वह यह कि जब वहां लोकतांत्रिक सरकार होती है तब वहां की सेना दूसरे देशों में आतंकवाद फैलाने के लिये बड़ी वारदात करती है पर जब वहां सैन्य शासन होता है तब वह कम स्तर पर यह प्रयास करती है। वह किसी तरह अपने लेाकतांत्रिक शासन का नकारा साबित कर अपना शासन स्थापित करना चाहती है।

अनेक विदेश और र+क्षा मामलों में विशेषज्ञ वहां किसी तरह सीधे आक्रमण करने के प+क्ष में हैंं। यह कूटनीति के अलावा सैन्य कार्यवाही के भी पक्षधर हैं। एक बात जो महत्वपूर्ण है। वह यह कि पाकिस्तान की सीमा अफगानिस्तान से लगी अपनी सीमा पर उन तालिबानों ने को तबाह करने में वहां की सेना अक्षम साबित हुई है और इसलिये वहां से भागना चाहती है और अब भारत के तनाव के चलते ही वह भारतीय सीमा पर भागती आ रही है। हो सकता है कि यह उसकी चाल हो। मुंबई में पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आई.एस.आई. और सेना के हाथ होने के प्रमाण को विशेषज्ञ इसी बात का द्योतक मानते हैंं।

इस समय पाकिस्तान पूरे विश्व की नजरों में है और भारत जो भी कार्यवाही करेगा उसके लिये वह अन्य देशों को पहले विश्वास में लेगा तभी सफलता मिल पायेगी। भारत अकेला युद्ध करेगा पर उसके लिये उसे विश्व का समर्थन चाहिये। लोग सीधे कह रहे हैं कि अकेले ही तैश में आकर युद्ध करना ठीक नहीं होगा। पाकिस्तान की सेना का वहां अभी पूरी तरह नियंत्रण है और फिलहाल वहां के लोकतांत्रिक नेताओं का उनकी पकड़ से बाहर तत्काल निकलना संभव नहीं है। ऐसे में कुटनीतिक चालों के बाद ही कोई कार्यवाही होगी तब ही कोई परिणाम निकल पायेगा। अगर भारत ने कहीं विश्व की अनदेखी की तो उसके लिये भविष्य में परेशानी हो सकती है। जिन्होंने 1971 का युद्ध देखा है वह यह बता सकते हैं कि युद्ध कितनी बड़ी परेशानी का कारण बनता है। यही कारण है कि प्रबुद्ध वर्ग वैसी आक्रामक प्रतिक्रिया नहीं दे रहा जैसी कि प्रचार माध्यम चाहते हैं। यह प्रचार माध्यम अपनी व्यवसायिक प्रतिबद्धताओं के चलते देश भक्ति के जो नारे लगा रहे हैं वह इस बात का जवाब नहीं दे सकता कि क्या उसे इससे कोई आय नहीं हो रही है। एस.एम..एस. करने पर जनता का खर्च तो आता ही है।

पाकिस्तान के प्रचार माध्यम भी भारत के प्रचार माध्यमों की राह पर चलते हुए अपने देश में कथित रूप से भारत के बारे में दुष्प्रचार कर रहे हैं पर वह उस तरह का सच अपने लोगों का नहीं बता रहे जैसा कि भारतीय प्रचार माध्यम करते हैं। भले ही भारतीय प्रचार माध्यम अपने लिये ही कार्यक्रम बनाते हैं पर कभी कभार सच तो बता देते हैं पर पाकिस्तान के प्रचार माध्यम उससे अभी दूर हैंं। उन्हें यह समझ लेना चाहिये कि यह आंतकी अपराधी उनके देश के ही दुश्मन हैं। पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ जरदारी और प्रधानमंत्री गिलानी मोहरे हैं पर उन पर यह जिम्मेदारी आन पड़ी है जिस पर पाकिस्ताने के भविष्य का इतिहास निर्भर है। भारत के दुष्प्रचार में लगे पाक मीडिया को ऐसा करने की बजाय ऐसी सामग्री का प्रकाशन करना चाहिये जिससे कि वहां की जनता के मन में भारत के प्रति वैमनस्य न पैदा हो।
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Monday, December 01, 2008

दुनियां के दृश्य और नजर-हिंदी शायरी

किसी इमारत में लगी आग

कहीं रास्ते में बिखरा खून

किर्सी जगह हथियारों की आवाज से गूंजता आकाश

दिल और दिमाग को डरा देता है

पर कहीं अमन है

खिलता है फूलों से ऐसे भी चमन हैं

गीत और संगीत का मधुर स्वर

कानों के रास्ते अंदर जाकर

दिल को बाग बाग कर देता है

दुनियां में दृश्य तो आते जातें

देखने वाले पर निर्भर है

वह अपनी आंखों की नजरें

कहां टिका देता है

कहां से फेर लेता है

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