Friday, January 30, 2009

आस्था जो शराब की बोतल की तरह टूट जाती है-व्यंग्य कविता

शराब की बूंदों में जो संस्कृति ढह जाती है
ढह जाने दो, वह भला किसके काम जाती हैे
ऐसी आस्था
जो शराब की बोतल की तरह टूट जाती है
उसके क्या सहानुभूति जतायें
लोहे की बजाय कांच से रूप पाती है
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नशा कोई और करे
झगड़ा कोई और
क्यों कर रहा है पूरा जमाना उस पर गौर
संस्कृति के झंडे तले शराब का विज्ञापन
अधिकारों के नाम पर
नशे के लिये सौंप रहे ज्ञापन
जिंदा रहे पब और मधुशाला
इस मंदी के संक्रमण काल में
मुफ्त के विज्ञापन का चल रहा है
शायद यह एक दौर

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Sunday, January 25, 2009

क्या ‘भ्रष्टाचार’ पर कोई कहानी नहीं बनती-आलेख

स्वतंत्रता के बाद देश का बौद्धिक वर्ग दो भागों में बंट गया हैं। एक तो वह जो प्रगतिशील है दूसरा वह जो नहीं प्रगतिशील नहीं है। कुछ लोग सांस्कृतिक और धर्मवादियों को भी गैर प्रगतिशील कहते हैं। दोनों प्रकार के लेखक और बुद्धिजीवी आपस में अनेक विषयों पर वाद विवाद करते हैं और देश की हर समस्या पर उनका नजरिया अपनी विचारधारा के अनुसार तय होता है। देश में बेरोजगारी,भुखमरी तथा अन्य संकटों पर पर ढेर सारी कहानियां लिखी जाती हैं पर उनके पैदा करने वाले कारणों पर कोई नहीं लिखता। अर्थशास्त्र के अंतर्गत भारत की मुख्य समस्याओं में ‘धन का असमान वितरण’ और कुप्रबंध भी पढ़ाया जाता है। बेरोजगारी,भुखमरी तथा अन्य संकट कोई समस्या नहीं बल्कि इन दोनों समस्याओं से उपजी बिमारियां हैं। जिसे हम भ्रष्टाचार कहते हैं वह कुप्रबंध का ही पर्यायवाची शब्द है। मगर भ्रष्टाचार पर समाचार होते हैं उन पर कोई कहानी लिखी नहीं जाती। भ्रष्टाचारी को नाटकों और पर्दे पर दिखाया जाता है पर सतही तौर पर।

अनेक बार व्यक्तियों के आचरण और कृतित्व पर दोनों प्रकार के बुद्धिजीवी आपस में बहस करते है। अपनी विचारधाराओं के अनुसार वह समय समय गरीबों और निराश्रितों के मसीहाओं को निर्माण करते हैं। एक मसीहा का निर्माण करता है दूसरा उसके दोष गिनाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि सतही बहसें होती हैं पर देश की समस्याओं के मूल में कोई झांककर नहीं देखता। फिल्म,पत्रकारिता,नाटक और समाजसेवा में सक्र्रिय बुद्धिजीवियों तंग दायरों में लिखने और बोलने के आदी हो चुके हैं। लार्ड मैकाले ने ऐसी शिक्षा पद्धति का निर्माण किया जिसमें स्वयं की चिंतन क्षमता तो किसी मेें विकसित हो ही नहीं सकती और उसमें शिक्षित बुद्धिजीवी अपने कल्पित मसीहाओं की राह पर चलते हुए नारे लगाते और ‘वाद’गढ़ते जाते हैं।

साहित्य,नाटक और फिल्मों की पटकथाओं में भुखमरी और बेरोजगारी का चित्रण कर अनेक लोग सम्मानित हो चुके हैं। विदेशों में भी कई लोग पुरस्कार और सम्मान पाया है। भुखमरी, बेरोजगारी,और गरीबी के विरुद्ध एक अघोषित आंदोलन प्रचार माध्यमों में चलता तो दिखता है पर देश के भ्रष्टाचार पर कहीं कोई सामूहिक प्रहार होता हो यह नजर नहंी आता। आखिर इसका कारण क्या है? किसी कहानी का मुख्य पात्र भ्रष्टाचारी क्यों नहीं हेाता? क्या इसलिये कि लोगों की उससे सहानुभूति नहीं मिलती? भूखे,गरीब और बेरोजगार से नायक बन जाने की कथा लोगों को बहुत अच्छी लगती है मगर सब कुछ होते हुए भी लालच लोभ के कारण अतिरिक्त आय की चाहत में आदमी किस तरह भ्रष्ट हो जाता है इस पर लिखी गयी कहानी या फिल्म से शायद ही कोई प्रभावित हो।
भ्रष्टाचार या कुप्रबंध इस देश को खोखला किये दे रहा है। इस बारे में ढेर सारे समाचार आते हैं पर कोई पात्र इस पर नहीं गढ़ा गया जो प्रसिद्ध हो सके। भ्रष्टाचार पर साहित्य,नाटक या फिल्म में कहानी लिखने का अर्थ है कि थोड़ा अधिक गंभीरता से सोचना और लोग इससे बचना चाहते हैं। सुखांत कहानियों के आदी हो चुके लेखक डरते हैं कोई ऐसी दुखांत कहानी लिखने से जिसमें कोई आदमी सच्चाई से भ्रष्टाचार की तरफ जाता है। फिर भ्रष्टाचार पर कहानियां लिखते हुए कुछ ऐसी सच्चाईयां भी लिखनी पड़ेंगी जिससे उनकी विचारधारा आहत होगी। अभी कुछ दिन पहले एक समाचार में मुंबई की एक ऐसी औरत का जिक्र आया था जो अपने पति को भ्रष्टाचार के लिये प्रेरित करती थी। जब भ्र्रष्टाचार पर लिखेंगे तो ऐसी कई कहानियां आयेंगी जिससे महिलाओं के खल पात्रों का सृजन भी करना पड़ेगा। दोनों विचारधाराओं के लेखक तो महिलाओं के कल्याण का नारा लगाते हैं फिर भला वह ऐसी किसी महिला पात्र पर कहानी कहां से लिखेंगे जो अपने पति को भ्रष्टाचार के लिये प्रेरित करती हो।
फिल्म बनाने वाले भी भला ऐसी कहानियां क्यों विदेश में दिखायेंगे जिसमें देश की बदनामी होती हो। सच है गरीब,भुखमरी और गरीबी दिखाकर तो कर्ज और सम्मान दोनों ही मिल जाते हैं और भ्रष्टाचार को केंदीय पात्र बनाया तो भला कौन सम्मान देगा।
देश में विचारधाराओं के प्रवर्तकों ने समाज को टुकड़ों में बांटकर देखने का जो क्रम चलाया है वह अभी भी जारी है। देश की अनेक व्यवस्थायें पश्चिम के विचारों पर आधारित हैं और अंग्रेज लेखक जार्ज बर्नाड शा ने कहा था कि ‘दो नंबर का काम किये बिना कोई अमीर नहीं बन सकता।’ ऐसे में अनेक लेखक एक नंबर से लोगों के अमीर होने की कहानियां बनाते हैं और वह सफल हो जाते हैं तब उनके साहित्य की सच्चाई पर प्रश्न तो उठते ही हैं और यह भी लगता है कि लोगा ख्वाबों में जी रहे। अपने आसपास के कटु सत्यों को वह उस समय भुला देते हैं जब वह कहानियां पढ़ते और फिल्म देखते हैं। भ्रष्टाचार कोई सरकारी नहीं बल्कि गैरसरकारी क्षेत्र में भी कम नहीं है-हाल ही में एक कंपनी द्वारा किये घोटाले से यह जाहिर भी हो गया है।

आखिर आदमी क्या स्वेच्छा से ही भ्रष्टाचार के लिये प्रेरित होता है? सब जानते हैं कि इसके लिये कई कारण हैं। घर में पैसा आ जाये तो कोई नहीं पूछता कि कहां से आया? घर के मुखिया पर हमेशा दबाव डाला जाता है कि वह कहीं से पैसा लाये? ऐसे में सरकारी हो या गैरसरकारी क्षेत्र लोगों के मन में हमेशा अपनी तय आय से अधिक पैसे का लोभ बना रहता है और जहां उसे अवसर मिला वह अपना हाथ बढ़ा देता है। अगर वह कोई चोरी किया गया धन भी घर लाये तो शायद ही कोई सदस्य उसे उसके लिये उलाहना दे। शादी विवाहों के अवसर पर अनेक लोग जिस तरह खर्चा करते हैं उसे देखा जाये तो पता लग जाता है कि किस तरह उनके पास अनाप शनाप पैसा है।
कहने का तात्पर्य है कि हर आदमी पर धनार्जन करने का दबाव है और वह उसे गलत मार्ग पर चलने को प्रेरित करता है। जैसे जैसे निजी क्षेत्र का विस्तार हो रहा है उसमें भी भ्रष्टाचार का बोलबाला है। नकली दूध और घी बनाना भला क्या भ्रष्टाचार नहीं है। अनेक प्रकार का मिलावटी और नकली सामान बाजार में बिकता है और वह भी सामाजिक भ्रष्टाचार का ही एक हिस्सा है। ऐसे में भ्रष्टाचार को लक्ष्य कर उस पर कितना लिखा जाता है यह भी देखने की बात है? यह देखकर निराशा होती है कि विचारधाराओं के प्रवर्तकों ने ऐसा कोई मत नहीं बनाया जिसमें भ्रष्टाचार को लक्ष्य कर लिखा जाये और यही कारण है कि समाज में उसके विरुद्ध कोई वातावरण नहीं बन पाया। इन विचाराधाराओं और समूहों से अलग होकर लिखने वालों का अस्तित्व कोई विस्तार रूप नहीं लेता इसलिये उनके लिखे का प्रभाव भी अधिक नहीं होता। यही कारण है कि भ्रष्टाचार अमरत्व प्राप्त करता दिख रहा है और उससे होने वाली बीमारियों गरीबी,बेरोजगारी और भुखमरी पर कहानियां भी लोकप्रिय हो रही हैं। शेष फिर कभी
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Thursday, January 22, 2009

चेहरा और आवाज-हिंदी शायरी


हमें आवाज देकर उन्होंने
अपना चेहरा दीवार के पीछे छिपा लिया
हमने भी कोशिश नहीं की
पीछे जाकर देखने की
उनकी आवाज को ही
उनकी पहचान बना लिया
जिंदगी के इस सफर में
कई चेहरे हैं जो देखकर भी
दिल में खुशी की लहर नहीं दौड़ी
पर जहां एक शब्द से भरी आवाज ने भी
कई बार माहौल सुहाना बना दिया

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Monday, January 19, 2009

इंटरनेट पर अच्छा लिखवाने के लिये आम पाठक को टिप्पणियां लिखनी होंगी-आलेख

इंटरनेट पर ब्लाग पर रुचिकर विषयों पर न लिखने की शिकायत करने वाले पाठक बहुत बड़ी संख्या मेें मिलने लगे है। यह शिकायतें इंटरनेट से बाहर जब सुनने को मिलती हैं तो इसके प्रत्युत्तर में जब प्रश्न उठाये जाता है तो पाठक स्वयं भी बगलें झांकने लगते हैं।
इंटरनेट के बाहर पाठकों ने कहा
1.हिंदी ब्लाग पर कोई अच्छी रचनायें पढ़ने को नहीं मिलतीं।
2.ब्लाग लेखक टाईम पास करते हैं या अपनी भड़ास निकालते हैे।
3.ब्लाग लेखक लिखने से अधिक अपने आपको प्रदर्शित करना चाहते हैं।
4.वह फालतू कवितायें लिखते हैं जिनको पढ़ने में मजा नहीं आता।

आम पाठक से सवाल किया जाता है
1.क्या तुमने कभी किसी लेखक से टिप्पणी लिखकर यह बात कही है कि कुछ बेहतर लिखे।
2.क्या अच्छा लिखने पर उसकी प्रशंसा में टिप्पणी की है।

जवाब नहीं मिलता या मिलता तो यह है कि ‘ब्लाग पर हम तो टिप्पणी नहीं लिख सकते। कौन चक्कर में पड़े?’

आम पाठको को यह बात शायद मालुम नहीं है कि हिंदी में जो ब्लाग लेखक हैं उनमें से अधिकांशतः अव्यवसायिक हैं। इनमें से कोई भी ऐसा नहीं है जो अपने पूरे परिवार का क्या अपनी जेब का खर्चा तक नहीं निकाल पाते। अधिकतर लोग अपनी जेब से पैसा खर्च कर लिखने का शौक पूरा कर रहे हैं। जिन ब्लाग लेखकों से वह साहित्य जैसा लिखने की अपेक्षा कर रहे हैं वह कोई अभिनेता,प्रसिद्ध पत्रकार और पूंजीपति नहीं हैं जो पैसे और प्रसिद्ध के दम पर पाठक जुटा लें। सच तो यह है कि अनेक लेखक बहुत अच्छा लिख सकते हैं पर प्रोत्साहन के अभाव में वह ऐसा नहीं कर पाते। सच बात तो यह है कि ब्लाग लेखक अभी तक आपस में ही एक दूसरे को प्रोत्साहित कर रहे हैं क्योंकि उनको पता है कि आम पाठक अभी उनसे नहीं जुड़ा है। हर व्यक्ति चाहता है कि उसका लिखा कोई पढ़े और लेखक चाहता है कि अधिक से अधिक पाठक उससे जुड़ेंे। आम पाठक की आमद वैसे ही कम है और ऐसे में उसकी उपेक्षा हिंदी ब्लाग लेखकों को निराश कर देती है। हो सकता है कि पाठकों ने कुछ विज्ञापन वाले ब्लाग देखें हों और यह भ्रम पाल लिया हो कि वह भी अखबार वालों की तरह कमा रहे हैं। दरअसल ब्लाग पर लगे विज्ञापन पर क्लिक करने पर ही ब्लाग लेखक को पैसा मिलता है और उसके लिये कम से कम दस हजार पाठक ईमानदारी से चाहिये जो उसे क्लिक करें। अगर कुछ पाठकों ने एक उद्देश्य के तहत किसी ब्लागर को पैसा दिलाने के लिये अनावश्यक रूप से विज्ञापनों पर क्लिक किया तो वह भी पकड़ में आ जायेगा और वह उसे नहीं मिलेगा। यानि कुछ पाठक मिलकर चाहें तो भी किसी ब्लागर को पैसा नहीं दिलवा सकते।

ऐसे में आम पाठक अगर ब्लाग लेखकों से बेहतर लिखने की अपेक्षा कर रहा है तो उसे ब्लाग लेखकों के पाठों पर टिप्पणी रखकर उसे प्रोत्साहित करना चाहिये। हिंदी के ब्लाग लेखक अपनी तरफ से भरसक प्रयास कर रहे हैं कि वह बेहतर लिखें पर आम पाठकों को भी इसमें सक्रिय योगदान देना होगा। अभी तक जो ब्लाग पर टिप्पणियां आती हैं वह ब्लाग लेखकों की होती हैं जो आपस में एक दूसरे को प्रोत्साहित करते हैं। पिछले दो बरसों से हम देख रहे हैं कि ब्लाग लेखकों ने ही अभी तक इंटरनेट पर हिंदी को स्थापित करने का बीड़ा उठाये रखा है पर आम पाठक यहां की रचनाओं को ऐसे ही पढ़कर भूल जाता है जैसे कि वह अखबार या पत्रिका पढ़ रहा हो। याद रखिये अखबार या पत्रिका के लिये एक राशि देनी पड़ती है तब भला यहां टिप्पणी रखकर वह कीमत क्यों नहीं चुकाना चाहते? शायद कुछ आम पाठक यह सोचें कि वह भी तो इंटरनेट का पैसा व्यय कर रहे हैं तो फिर इसका जवाब यह है कि ब्लाग लेखक भी तो आखिर जेब से खर्च कर लिख रहे हैं। ऐसे में आम पाठक का क्या यह दायित्व नहीं बना कि वह अपनी टिप्पणी लिखकर उसकी ब्लाग लेखक की कीमत अदा करे।

इस देश में अधिकतर पाठक तो ऐसे भी हैं जिनको सर्च के दौरान हिंदी के ब्लाग उनके सामने आ जाते हैं जबकि वह अंग्रेजी में कुछ ढूंढ रहे होते हैं। तब उनके सामने पड़े ब्लाग का पाठ शायद उनको समझ में नहीं आता हो तब उन्हें यह भी नहीं सोचना चाहिये कि सभी ब्लाग लेखक ऐसे ही लिखते हैं। हालांकि न समझ आने का कारण यही होता है कि आप उस विषय में या तो रुचि कम रखते हैं या उसकी जानकारी नहीं है। अगर आप अंतर्जाल पर सैक्सी कहानियां पढ़ने का विचार करते हों तो यकीनन हास्य कविता या व्यंग्य आपकी समझ में फालतू का विषय है। स्थिति इसके विपरीत भी हो सकती है। इसके बावजूद यह सच है कि हिंदी ब्लाग जगत पर कई ऐसे कटु और मनोरंजक सत्य देखने और पढ़ने को मिलते हैं जो समाचार पत्र पत्रिकाओं में नहीं मिलते। अगर आम पाठक यह चाहते हैं कि हिंदी के ब्लाग लेखक और बेहतर,रुचिकर तथा मनोरंजक लिखें तो उनको अपने ऊपर यह जिम्मेदारी उठानी होगी कि वह ब्लोग पर टिप्पणियां लिखें चाहे भले ही रोमन लिपि में हों-ऐसे में हिंदी के ब्लाग लेखक से हिंदी टूल भी मांगें जो निश्चित रूप से आपको वह उपलब्ध करा देगा। हिंदी के ब्लाग लेखकों में अपने पाठकों के लिये जो दरियादिली है उसे कोई ब्लाग लेखक ही जान पाता है पर अब आम पाठकों को भी उनको आजमाना होगा।

जहां तक कविताओं का सवाल है तो यह बात स्पष्ट रूप से समझ लें कि वह इन ब्लाग को अखबार या पत्रिका न समझें। यहां लिखना और उसे प्रकाशित करने में ब्लाग लेखकों को जो समय लगता है उसका उसे कोई पारिश्रमिक नहीं मिलता। फिर यहां कविता को भी आप गद्य समझ कर पढ़ें। अगर बड़े लेख और कहानियां यहां वैसे ही लिखी जायेंगी तो आपको भी परेशानी आयेगी। अंतर्जाल पर गागर में सागर भरने को प्रयास ब्लाग लेखक कर रहे हैं और ऐसे में आप एक चम्मच भर पानी के रूप में टिप्पणी ही रख दें तो बेहतर होगा। ब्लाग लेखक अभी तक मोर्चा संभाले हुए हैं अब आम हिंदी पाठक को भी सक्रिय होना होगा तभी शायद वह बेहतर रचनायें पढ़ पायेंगे।
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Wednesday, January 14, 2009

छाया के पीछे-हिंदी शायरी

हंसने की चाहत है जिसमें
उसे चुटकुले सुनने का इंतजार नहीं होता
अपनी करतूतों में ही छिपे होते है
हंसने के ढेर सारे बहाने
किसी के दर्द उठने का इंतजार जरूरी नहीं होता
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नींद भरी आंखों में
पर फिर भी आती नहीं
खुशियां बिखरी पड़ी हैं चारों ओर
पर अपने दिल के दरवाजे पार आती नहीं
खड़े होकर देख रहे हैं उन शयों को
जो बहुत अच्छी लगती है
पर वह हमारे पास आती नहीं
दिल और दिमाग के पर्दे बंद कर
जिंदगी बिताने के आदी हो चुके लोग
इंतजार करते हैं मजे लेने का
पर कैसे होते है जानते नहीं
दौड़ते जाते हैं छाया के पीछे
जो किसी की पकड़ में आती नहीं

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Saturday, January 10, 2009

जिंदगी के नियम-व्यंग्य कविता

जिंदगी में हर पल अपने

नियम से गुजर जाता है

बचपन गुजरता है खेलते हुए

जवानी गुजरती है सोते हुए

बुढ़ापा रोने में गुजर जाता है

ऐसे ही आदमी भी

पहले बनता है परिश्रमी

फिर समाज का बनता है आदर्श

जब आता है घौटाला सामने

तब वह खलनायक बन जाता है

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Tuesday, January 06, 2009

परियों का जमीन पर होता नहीं आना-हिंदी शायरी

तस्वीर को देखकर यूं
अपना दिल नहीं बहलाना
नमक की मरहम जैसे हैं चित्र
उनसे अपने दिल को नहीं सहलाना

रंगबिरंगी स्याहियों की कलम से बनी
या कैमरे से खींचा गया चित्र
वह तो है बस एक काल्पनिक मित्र
उनके चेहरों को चमकाया जाता है
फिर बाजार में उसे खरीददारों के लिये
अच्छी तरह सजाया जाता है
उनको ख्वाबों में बहक कर
रास्ते भटक जाओगे
याद रखना ऐसी परियां, जो दिखती हैं तस्वीरों में
जिनका अब जमीन पर नहीं होता आना

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Saturday, January 03, 2009

बाजार से धर्म बना या धर्म से बाजार-आलेख

धर्म यानि क्या? आप भारतीय पौराणिक ग्रंथों को अगर पढ़ते हैं तो उसका सीधा आशय आचरण से है पर उनमें किसी का नाम नहीं है। ‘हिंदू’ शब्द हमारे धर्म से जुड़ा है पर जिन पौराणिक ग्रंथों को हम अपना पूज्यनीय मानते हैें उनमें इसी शब्द की चर्चा कहीं नहीं हैं। भक्ति काल-जिसे हिंदी भाषा का स्वर्णकाल भी कहा जाता है-कहीं हिंदू शब्द का उपयोग हुआ हो कम से हम इस लेखक को तो पता नहीं। रहीम,कबीर,मीरा,सूर,और तुलसी ने हिंदू शब्द का उपयोग धर्म के रूप में किया हो यह जानकारी भी इस लेखक को नहीं है।

आजकल हिंदू धर्म को लेकर जब बहस होती है तो ऐसा लगता है कि जैसे वह बहस कहीं सतही विचारों पर केंद्रित है और उसमें गहन सोच नहीं है। बहरहाल जब सभी धर्मों को हम देखें तो ऐसा लगता है कि उनका अध्यात्म से कम बाजार से अधिक संबंध है। बाजार यानि उन लोगों का समूह जो व्यापार आदि कर अपना जीवन यापन करता है और जो इसके लिये भाषा,जाति,क्षेत्र और वर्ण के साथ ही सर्वशक्तिमान के स्वरूप का उसके मानने वाले समाजों और समूहों के हिसाब से ख्याल रखते हें। आखिर मूर्तियां,स्टीकर,छल्ले,कापियां, और पैन बेचने वाले व्यापारी होते हैं और उनकी दिलचस्पी इस बात में होती है कि उनके पास आने वाला ग्राहक किस बात से प्रभावित होगा।’

वही दावपैंच आजमा कर अपनी वस्तूओं को बेचते हैं और गरीब उत्पादक को इस बात के लिये बाध्य या प्रेरित करते हैं कि अपने उत्पाद को बाजार में बेचने के लिये उन प्रतीकों का उपयोग करे जिससे ग्राहक उसकी वस्तु की तरफ आकर्षित करे। अगर हम थोड़ा विश्लेषण करें तो यह साफ हो जायेगा कि बाजार ने ही धर्म बनाये है और जिन महापुरुषों को इनका प्रतिपादक बताया जाता है उनका नाम केवल विज्ञापन के लिये उपयोग किया जाता है। सच तो यह है कि दुनियां के सभी धर्म बाजार के बनाये लगते हैं। याद रखने वाली बात यह है सौदागर और पूंजीपति हर युग में रहे और उनका प्रभाव राज्य पर भी पड़ता है-इस मामले में अपने पुराने धार्मिक ग्रंथ भी प्रमाण देते हैं जहां राजतिलक के अवसर पर राज्य के साहूकारों,जमीदारों और सामंतों द्वारा राजा को उपहार वगैरह देने की परंपराओं की चर्चा है। जब यह धनी लोग राजा को उपहार देते होंगे तो उसका लाभ न लेते हों यह संभव नहीं है।
एक मित्र ब्लाग लेखक ने लिखा था कि बाजार नववर्ष के अवसर एक दिन के लिये धर्मपरिवर्तन करा देता है। प्रसंगवश यह बात ‘हिदू धर्म’ के बारे में कही गयी थी। यह लिखा गया था कि किस तरह ईस्वी नववर्ष पर प्रसिद्ध मंदिरों में लोग विशेष पूजा के लिये जाते हैं। उन्होंने यह सवाल भी उठाया था कि ‘किसी हिंदू पर्व पर क्या किसी अन्य धर्म के स्थान में भी ऐसी पूजा होती है। फिर उन्होंने यह भी लिखा था कि ईसाई नवसंवत् के आगमन पर जिस तरह लोगों द्वारा व्यय किया जाता है उतना भारतीय संवत् पर नहीं किया जाता है।

हमेशा आक्रामक और विचारोत्तेजक लिखने वाले उस मित्र ब्लागर ने हमेशा सभी लोगों प्रभावित किया है और उनका लेख पढ़ते हुए अगर किसी पाठक या लेखक के मन में केाई विचार नहीं आये तो समझिये कि वह आलेख पढ़ नहीं रहा बल्कि देख रहा है। ऐसे ही कुछ विचार उठे और लगा कि हमारे दिमाग में पड़ी कुछ चीजें हैं जिनको बाहर आना चाहियै। जो बात कई बरसों से दिमाग में बात घूम रही थी कि आखिर कही बाजार ने ही तो धर्म नहीं बनाया। वह धर्म जो सार्वजनिक रूप से बिकता है। दरअसल धर्म का संबंध हमेशा अध्यात्म से बताया जाता है पर है नहीं । जिसे अध्यात्म ज्ञान प्राप्त हो जाये वह दिखावे से परे रहते हुए अच्छे आचरण की राह पर चलता है जो कि स्वाभाविक रूप से धर्म है। जो लोग बिना ज्ञान के धर्म की बात करता हैं उनको यह पता ही नहीं कि धर्म होता क्या है?

पांच तत्वों से बनी देह में हर जीव के उसके गुणों के अनुसार मन,बुद्धि और अहंकार अपनी सीमा के अनुसार रहता है। मनुष्य में कुछ अधिक ही सीमा होती है और चतुर व्यक्ति व्यापारी बनकर उसका दोहन अपने ग्राहक के रूप में करता है। वह सौदागर होता है और उनका समूह और स्थान बाजार कहलाता है। शादी हो या श्राद्ध उसके लिये सामान तो बाजार से ही आता है न! अपने बुजुर्गों की मौत पर अपने देश में अनेक लोग तेरहवीं धूमधाम से करते हैं और उसके लिये खर्च कर अपना सम्मान बचाते हैं। अगर आप भारत की कुरीतियों को देखें तो वह किसी अन्य देश या धर्म से अधिक खर्चीली हैं। तय बात है कि बाजार ने धर्म बनाया। जब बाजार ने धर्म बनाया है तो वह बिकेगा भी और बदलेगा भी। हमारे यहां धर्म का जो महत्व है वह अन्यत्र कहीं नहीं है। जिस तरह हम किसी लेखक या वैज्ञानिक को तब तक महत्व नहीं देते जब तक पश्चिम से मान्यता प्राप्त नहीं कर पाता वैसे ही पश्चिम में तब तक कोई धर्म श्रेष्ठ नहीं माना जा सकता जब तक उसके मानने ने वाले पूरी तरह उसे नहीं माने। कम से कम चार धर्म ऐसे हैं जिनका उद्भव स्थल भारत नहीं है। यहीं से होता हो संघर्ष का सिलसिला। विदेशी धर्मो के आचार्य यहां अपने लोगों की संख्या बढ़ाना चाहते हैं ताकि वह भी हिंदू धार्मिक संतों की तरह पुज सकें।

भारत के लोग धार्मिक अधिक हैं व्यवसायिक कम ओर पश्चिम में व्यवसायिक अधिक हैं और धार्मिक कम हैं। भारत में धर्म के आधार पर तमाम तरह का व्यापार तो बहुत पहले ही चल रहा था क्योंकि सकाम भक्ति उत्तरोतर बढ़ती गयी है। अगर आप पुराना इतिहास उठाकर कर देखें तो गुरुकुलों की चर्चा तो होती है पर मंदिरों में देवताओं के दिनवार मानकर उनकी पूजा होने की चर्चा नहीं है। हमारा दर्शन हमेशा निष्काम भक्ति और निष्प्रयोजन दया पर आधारित है जबकि समाज चल रहा है सकाम भक्ति और प्रयोजन सहित कार्य की राह पर। कहीं आपने सुना है कि प्राचीन समय में कार,फ्रिज,कार,टीवी और कंप्यूटर वगैरह लडकी को दहेज में दिया जाता था पर आजकल सभी चल रहा हैं। यह भारतीय बाजार ने ही बोया है जो इस तरह समाज को अपने नियंत्रण में रखता है। इसी का परिणाम है कि अनेक लोग तो केवल इसलिये कोई नया सामान नहीं खरीदते कि लड़के के दहेज में मिलेगा। गरीब से गरीब आदमी कुछ न कुछ लडकी को देता है वरना समाज क्या कहेगा?

बहरहाल बाजार अपने पुराने स्वरूप में रहा हो या आधुनिक दोनों में ही वह केवल क्रय विक्रय तक अपना काम सीमित नहीं रखता बल्कि सौदागरों की इच्छा उस पर नियंत्रण करने की भी रहती है और इसके लिये धर्म उनका सहारा बनता है। हमारा दर्शन द्रव्य यज्ञ की बजाय ज्ञान यज्ञ को श्रेष्ठ मानता हैं पर लोग बिना पैसे खर्च किये कोई यज्ञ होता है यह बात जानते तक नहीं है। कहीं कोई धार्मिक यज्ञ हो तो बस शुरु हो जाता है चंदे का दौर। ंचंदा लेने वाले कितना सामान बाजार से लाये और कितना जेब में रख लिया कभी कौन देखता है? मजे की बात यह है कि धनाढ्य सेठ ही तमाम तरह के धार्मिक कार्यक्रम कराते हैं जो कि सकाम भक्ति का प्रमाण है और इस तरह वह धर्म का प्रचार करते हैंं

हिंदू धर्म को आखिर एक झंडे तले कैसे लाया गया यह तो पता नहीं पर ऐसा लगता है कि आजादी से पूर्व जो नये पूंजीपति थे वह अपने लिये एक ऐसा समाज चाहते रहे होंगे जिसका दोहन किया जा सके। उच्च और मध्यम वर्ग के लिये धर्म तो दिखावे की चीज है पर गरीब तबका उसका हृदय से सम्मान करता है। इस देश में गरीब अधिक हैं और उनकी कमाई भी भले ही व्यक्ति के हिसाब से कम हो पर कुल में वह कम नहीं होते-आंकड़े क्या कहते हैं यह अलग बात है-और उससे पैसा धर्म के आधार पर ही खींचा जा सकता है। यहां कई बार ऐसे समाचार आते हैं कि अमुक कारण से समूह विशेष ने धर्म परिवर्तन कर लिया। भारत में यह अधिक इसलिये है क्योंकि बाजार कहीं न कहीं इस खेल में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शामिल होता है-कम से कम प्रचार के रूप में तो होता ही है। वजह यह है कि चाहे आदमी कोई भी धर्म अपनाये उसके कर्मकांडों के निर्वहन के लिये तो बाजार ही जायेगा।

हमारे एक लेखक मित्र से एक जागरूक आदमी ने बहुत पहले कहा था कि ‘तुम स्वदेशी आंदोलन के बारे में लिखो।’
उसने लेखक मित्र को एक पर्चा दिया जिसमें विदेशी कंपनियों और देशी कंपनियों के नाम थे। हमारे लेंखक मित्र ने उसे देखा और उससे कहा-‘मैं नहीं लिख सकता। कारण मेरा पैसा तो जेब से जाना है अब वह देशी उद्योगपति के जेब में जाये या विदेशी के पास। मुझे क्या फर्क पड़ता है? हां, अगर इन देशी कंपनियों से कुछ दिलवाओं तो लिखता हूं।’
उसका जागरुक मित्र नाराज हो गया। लेखक की बात बहुत जोरदार थी और आज के संदर्भ में देखें तो अनेक लोग बात से सहमत हो सकते हैंं। विदशों से जो हमलावर भारत में आये उन्होंने यहां की इस कमजोरी को देखा और वह अपने संत अपने धर्मों के कुछ कथित आचार्य भी लाये। उन आचार्यों ने भारतीय अध्यात्म से ही सकाम भक्ति के शब्द लेकर उन पर चिपका दिये और आज उनमें से कई बरसो बाद भी पुज रहे हैं। प्रेतों की पूजा केा हमारा दर्शन विरोध करता है जिसका सीधा आशय समाधियों से हैं। आप देखिये तो अपने यहां अनेक संतों और साधुओं की समाधियां बन गयी हैं जहां उनके भक्त जाते हैं। हमारे दर्शन में जन्म तिथि और पुण्य तिथियां मनाने का कोई जिक्र नहीं आता क्योंकि आत्मा को अजन्मा और अविनाशी माना गया है। यह बाजार का खेल है। देश में स्वतंत्रता से पहले और बाद में सक्रिय आर्थिक शक्तियों का अवलोकन किया जाये तो पता लगेगा कि वह अंग्रेजों के बाद समाज पर अपना नियंत्रण स्थापित करना चाहती थीं।
इस बाजार का खेल अभी बहुत कम हो रहा है। वजह भारत से बाहर बने धर्मों की संख्या चार या पांच से अधिक नहीं है। अगर पच्चीस होते तो वह उनका प्रचार भी यहां लाता। अगर बिक सकते तो वह वर्ष में पंद्रह नर्ववर्ष बेचता। याद रहे कि नववर्ष की परंपरा का जिक्र भी कहीं हमारे प्राचीन ग्रंथों में नहीं आता। फिर भारतीय नववर्ष के अवसर पर कम खर्च की बात है तो वह भी थोड़ा विवाद का विषय है। ईसवी संवत् पर सारा शोराशराब अविवाहित युवक युवतियां होटलों में अपना कार्यक्रम करते हैं और उनकी संख्या कम होती हैं। सभी टीवी चैनलों और अखबारों को देखकर ऐसा लगता है कि बहुत खर्च हो रहा है या बहुत लोग है पर ऐसा है नहीं। भारतीय नव संवत् आम आदमी मनाता है। यह बात अलग बात है कि गुड़ी पड़वा, तो कही वैशाखी या चेटीचंड में रूप में सामूहिक रूप से मनता है। कई जगह बहुत बड़े मेंले लगते हैं। रहा धर्म परिवर्तन का सवाल है तो भारत में बाजार ने इसे एक शय बनाया है जिसका अध्यात्म से दूर दूर तक कोई लेना देना नहीं है। जहां तक बाजार का सवाल है तो अपने देश के सौदागर कुछ धन की खातिर तो कुछ डंडे के डर से कहीं न कहीं सभी धर्मों के प्रति अपना झुकाव दिखाते हैं क्योंकि जब तक वह जीवित हैं वह समाज का दोहन करेंगे ओर बाद में उनकी पीढि़या। उनका तो एक ही नियम है जिस धर्म से पैसा कमा सकते हैं या जिससे सुरक्षा मिलती है उसी का ही प्रचार करो। इस लेख में लिखे गये विचार कोई अंतिम नहीं है क्योकि भारत में बाजार धर्म बनाता है या धर्म बाजार को यह बात चर्चा का विषय है।
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Friday, January 02, 2009

कुछ पल की खुशियों की खातिर-हिंदी शायरी

बिकता है जो सौदा बाजार में
उसे वह बनाता भी है
अपनी दुकान में सौदागर सजाता भी है
अगर ऐसा नहीं होता तो
बरसों तक नहीं चलते
वह नाम जिनमें इंसानों के गुट बने हैं
कितनों के हाथ खून से सने हैं
लड़ झगड़ कर इंसान कंगाल होता
पर बाजार तो अमीर फिर भी हो जाता है

बहुत नाम होता है ईमानों का
वह भी शय बनी है सदियों से
किस इंसान का कौनसा है धर्म
बता देता है उसका कर्म
पोशाकों टोपियों के रंग से होता है जाहिर
कभी चेहरे पर ही लिखा मिल जाता है
कहीं तलवार तो कहीं तीर है पहचान
नाम है सर्वशक्तिमान का
पर दुनियां में बनी चीजों से
बढ़ती है उसके बंदों की शान
बनाये हैं जिन्होंने ईमान
उनके निभाने की कोइ शर्त नहीं रखी
कभी उसके नाम पर मिठाई नहीं नहीं चखी
पर त्यौंहारों पर त्यौहार बनाता गया बाजार
आम इंसान तो रहा है वहमों का शिकार
कुछ पल की खुशियों की खातिर
बनकर जाता है खरीददार
सौदागरों के लिये फायदे की शय बन जाता है

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