Thursday, February 26, 2009

अपनी मुट्ठी में पानी भरते बारंबार-हिंदी शायरी

एक से सौ
सौ से हजार
हजार से लाख
करोंड़ों की दौलत का इंसान ने लगा लिया अंबार
नहीं है उसे सुख की अनुभूति, बैचेनी है अपार।
जिन शयों को पुराना होना है
अपने सामने
उनके पीछे दौड़ रहे हैं लोग
लोगों के पीछे दौड़ रहे रोग
अंधे कुऐं में इधर उधर टकराकर
लोग ढूंढ रहे खुशियां
फिसल जायेगा थोड़ी देर में हाथ से
फिर भी इंसान
अपनी मुट्ठी में पानी भरते बारंबार

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Sunday, February 22, 2009

तय कर लिया है अक्ल के गुलामों ने-हिन्दी शायरी

उन्हें इन्तजार है
विदेश में कहीं अपने देश की कहानी पर
बनी फ़िल्म को पुरस्कार मिलने का ।
अक्ल के अंधों ने नहीं देखा अपना घर
ढूंढ रहे हैं सम्मान के लिए पराया दर
यह देश है गुलामों का
आदमी सोचते आदमी की तरह
चाहे सब मिलकर देश बन जाएँ
तब भी मोह नहीं छोड़ पाते पराये सम्मानों का
चाहे भले ही टाट में पैबंद की तरह लग जाएँ
पर गोरे के तन से लगने के लिए
भरते हैं आहें
देह की आज़ादी का भ्रम अभी टूटा नहीं
गुलामी से मन कभी छूटा नहीं
तय कर लिया है अक्ल के गुलामों ने
जब तक मालिक इशारा न करे
तब तक अपनी जगह से नहीं हिलने का ।

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Friday, February 20, 2009

उम्मीद-कगार और आशा-आशंकाःआलेख

‘एक समय भारत और पाकिस्तान कश्मीर समस्या हल करने के कगार पर पहुंंच गये- यह वाक्य जब अपने ईमेल पर तरकश की तरह लगे समाचारों में पढ़ें तो यह अपने आपको यह समझाना कठिन हो जाता है कि ब्लाग पढ़ रहे हैं या टीवी देख रहे हैं।

अक्सर टीवी पर सुनते हैं कि भारी तूफान में फंसी नौका के डूबने की उम्मीद है या इस मंदी में औद्योगिक वस्तुओं में मूल्य के साथ ही किस्म में भी गिरावट की उम्मीद है। सच बात तो यह है कि टीवी वाले आशंका और भय शब्द का उपयोग वहां नहीं करते जहां जरूरी है। संभव है उनके लिये भय और आशंका वाले विषय चूंकि सनसनी फैलाने वाले होते हैं और उससे ही उनको प्रतिष्ठा
मिलने की संभावना बलवती होती है इसलिये ही उनको उम्मीद शब्द के उपयोग करने की सूझती है। जब वह आशंका और भय की जगह उम्मीद शब्द का उपयोग करते हैं तो हमारा दिल बैठ जाता है पर इसकी परवाह किसे है।

अगर कोई तूफान में डूबेगी तो ही खबर बनेगी और तभी तो उसका बताने का कोई मतलब होगा।
यही हाल कगार का भी है। कई बार द्वार की जगह वह कगार शब्द का उपयोग करते हैं। हां दरवाजा या द्वार चूंकि हल्के भाव वाले इसलिये शायद वह कगार -जो कि डराने वाले होता है-उसका उपयोग करते हैं। कगार शब्द का उपयोग ऐसे होना चाहिये जहां विषय या वाक्य का आशय पतनोन्मुख होता है। जैसै मुंबई धमाकों के बाद भारत और पाकिस्तान युद्ध के कगार पर पहुंच गये थे। जहां समझौते वाली बात हो वहां ‘निकट’, दरवाजे या द्वारा शब्द ही लगता है। अगर भारत और पाकिस्तान कभी कश्मीर पर समझौते के द्वार-वैसे यह खबर पुरानी है पर अब ईमेल दी गयी है-तक पहुंंचे तो इसमें आश्चर्य नहीं हैं। दोनों कई बार आपसी समझौतों के निकट पहुंचते हैं पर युद्ध के कगार पर लौट आते हैं।

इस आलेख का उद्देश्य किसी की मजाक उड़ाना नहींं है क्योंकि यह लेखक हिंदी का सिद्ध होने का दावा नहीं करता। एक पाठक के में सहजता से पढ़ने में अड़चन आती है तो पूछना और बताना तो पड़ता ही है। हिंदी ब्लाग जगत में अनेक उत्साही लोग हैं और उनकी हिंदी पर संदेह करना स्वयं को धोखा देना होगा पर यह भी सच है कि इस टीवी ने हमारी भाषा को भ्रमित कर दिया है। अगर बचपन से हिंदी न पढ़ी होती तो शायद इसे पचा जाते। अब सोचा कि लोगों का ध्यान इस तरफ आकर्षित करें। अंतर्जाल पर लिखने वाले हिंदी लेखकों का लिखा बहुत लंबे समय तक पढ़ा जाने वाला है। अंतर्जाल पर सक्रिय लोगों को देखें तो बहुत कम ऐसे हैं मिलते हैं जो हमारी तरह सरकारी स्कूलों में पढ़े हैं और शायद अति उत्साह में उनको इस बात का ध्यान नहीं रहता कि कगार और निकट में अंतर होता है। फिर टीवी पर अक्सर कगार उम्मीद, आशा और आशंका का उपयोग करते हुए उसके भाव का ध्यान नहीं रख पाते। कगार या आशंका हमेशा निराशा का द्योतक होते हैं और उससे हिंदी का श्रोता उसी रूप में लेता है। यह अलग बात है कि पाठकों और श्रोताओं में भी कुछ लोग शायद इस बात को नहीं समझते होंगे। हां, जो हिंदी में बचपन से रचे बसे हैं वह यह देखकर असहज होते हैं और बहुत देर बात उनको समझ में आता है कि लिखने या बोलने वाले का आशय पतनोन्मुख नहीं बल्कि उत्थानोन्मुक था।

हिंदी ब्लाग जगत में कुछ लोग उसके उत्थान के लिये बहुत अच्छे प्रयास कर रहे हैं उनकी प्रशंसा करना चाहिये और हमारी उनको शुभकामनायें है कि वह मातृभाषा को शिखर पर ले जायें पर उसके लिये उनको आशा आशंका और उम्मीद और कगार के भाव को हृदंयगम करना होगा। हालांकि अनेक लोग मात्रा और वाक्यों के निर्माण में भारी त्रुटियां करते हैं पर इस आलेख का आशय उन पर टिप्पणियां करना नहीं है बल्कि शब्दों के भावों के अनुसार उनका उपयोग हो यही संदेश देना है। हालांकि हम इस गलती पर वहां टिप्पणी कर ध्यान दिला सकते थे पर ब्लाग जगत में कोई सिखाने वाली बात कहते हुए यह पता नहीं लगता कि ब्लाग लेखक किस प्रवृति का है दूसरा यह कि ब्लाग पर इस तरह की गलती पहले भी एक दो जगह देखने को मिली है। इसलिये सोचा कि चलो अपने पाठको और मित्रों को सचेत कर दें।
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Friday, February 13, 2009

श्लीलता और अश्लीलता: चर्चा के लिए एक स्थाई विषय-व्यंग्य

यह श्लील और अश्लील क्या होता है? ऐसे सवाल जब देश के विद्वान लोग उठाते हैं तब आश्चर्य होता है। सच बात तो यह है कि श्लीलता और अश्लीलता हमारे नजरिये में हैं अन्यत्र तो उसका कोई अस्तित्व नजर नहीं आता। बंदर हमारे जैसा प्राणी हैं। उसके समस्त अंग मनुष्य की तरह होते हैं पर जब नर या मादा को देखकर हमारे अंदर कोई अच्छी या बुरी प्रतिक्रिया नहीं होती। मगर किसी इंसान को देखकर हम शर्मिंदा होंगे या घबड़ा जायेंगे। कहते हैं न कि नंगे से ऊपर वाला भी डरता है।
उसी तरह हमारे देश में अनेक संप्रदाय हैं जिनके गुरु सासंरिक वस्त्र नहीं पहनते अपर भक्तगण उनके आगे शीश नवाते हुए कभी संकोच नहीं करते क्योंकि उनमें उनको भक्ति और ज्ञान के ऐसे स्वरूप के दर्शन होते हैं जहां अश्लीलता और श्लीलता का बोध नहीं रह जाता। कुछ क्षेत्र ऐसे भी हैं जहां विवाह के समय पुरुष लोग बारात में जाते हैं तो महिलायें एक दूसरे से अश्लील और अभद्र शब्द बोलकर मनोरंजन की परंपरा का निर्वाह करती हैं।

सीधा आशय यह है कि अगर हमारी इंद्रियों में शालीनता है तो फिर बाहर कहीं कुछ अश्लील नजर नहीं आयेगा। कोई लड़की कम कपड़े पहनकर निकले तो उसकी जांघों पर निगाह जाती है पर अगर वह अगर वह सलवार कुर्ता या साड़ी पहने हुए हो तो तब भी क्या उनको कोई नहीं देखता? फिर क्या अगर कोई आकर्षक पुरुष जाता है तो क्या उस पर भी नजर नहीं जाती?
लड़कियां कम कपड़े पहनकर घर से निकलती हैं तो लड़के उत्तेजित होकर छेड़ेंगे ही-यह तर्क देने वाले गलती पर हैं क्योंकि जो ढंग से कपड़े पहनकर निकलती हैं तो उनको भी लड़के छेड़ते हैं। यह छेड़ने की परंपरा तो कई सदियों से चल रही हैं। छेड़ने वाले तो घूंघट करने वाली लड़कियों को छेड़ते हैं। कुछ लोगों की आदत होती है और कुछ इतने खुद्दार होते हैं कि वह छेड़ने की बात सोचना भी घटिया समझते हैं।

आशय यह है कि देखने के नजरिये से श्लीलता और अश्लीलता तय होती है। इस मामले में एक दिलचस्प वाक्या हमें याद आता है। अपने वर्डप्रेस के ब्लागों@पत्रिकाओं पर एक फोटो वाली वेबसाइट वाली का लिंक लगाया था। उसके बाद अचानक ही पाठकों की संख्या बढ़ गयी थी। कई दिन हो गये पर स्वयं कभी फोटो देखने का प्रयास भी नहीं किया। एक दिन हमने ब्लाग स्पाट के ब्लाग पर एक चित्र अपने कंप्यूटर से लोड किया। अपने श्रीमुख का फोटो हमें पसंद नहीं आ रहा था सो एक फूलों वाला फोटो लोड किया। अगले दिन हमारे एक ब्लाग लेखक मित्र ने ईमेल किया और हमसे कहा-‘वाह! आपने क्या गजब का फोटो लगाया है।’

हमारे समझ में कुछ नहीं आया हमने भी लिख दिया कि ‘ऐसे ही लोड कर लिया। सोचा इससे ब्लाग में आकर्षण आयेगा।’
उनसे वार्तालाप समाप्त हुआ तो फोटो वाली बात हमारे दिमाग में आयी। हमने सोचा उस फोटो में ऐसा क्या है जो वह ब्लाग मित्र को अधिक पसंद आया? ऐसा सोचते हुए हम अपने वर्डप्रेस के एक ब्लाग के डैशबोर्ड पर गये तो देखा उस फोटो वाली वेबसाइट को भी अनेक लोगों ने देखा था। उस पर ध्यान नहीं जाता अगर फोटो वाली बात हमारे दिमाग में नहीं बनी होती। तब हमारा माथा ठनका। हमने जाकर वह फोटो देखा। बाप रे! बस उसी समय हमने अपनी वर्डप्रेस की वेबसाईटों से वह फोटो वाली वेबसाईट हटा ली। उसके बाद हमारी पाठक संख्या गिर गयी पर उसकी परवाह हमें नहीं की।
हमने भी तय कर रखा है कि फोटो दिखाने वाले बहुत हैं पर हमें तो अपने शब्दों की शक्ति पर निर्भर रहना है। अगर फोटो से हमारे पाठक बढ़ते हैं तो उससे न तो हमें कोई अर्थिक फायदा है और न ही सम्मान या प्रतिष्ठा मिलने की संभावना है। हमने फोटो इसलिये नहीं हटाया कि हमें फोटो अश्लील लगा बल्कि उससे लेकर लोग चार बातें करेंगे इसी कारण उसे हटा लिया। बेकार में अश्लीलता का आरोप क्यों लें? अगर कोई लाभ हो तो यह भी लोगों को समझायें कि फोटो कभी अश्लील या श्लील नहीं होता बल्कि नजरिये में होता हैं। जब कोई फायदा न हो तो फिर केवल उसी मुद्दे पर करेंगे जिससे अपना मन प्रसन्न होता है। बिना लाभ के दूसरे के तय मुद्दों पर चलना एक तरह से बेगार है। आशय साफ है कि जिनको फायदा है वह अश्लीलता भी प्रस्तुत करेंगे पर हमारा नजरिया क्या है, यह अधिक महत्वपूर्ण है। बाकी तो बहस के लिये अनेक गैर वाजिब मुद्दे हैं मगर यह तो सदाबहार मुद्दा है। चाहे जब श्लीलता और अश्लीलता पर बहस छेड़ दो। जिन लोगों का टाईम बहस में अच्छा पास होता है उनके लिये यह एक स्थाई मुद्दा है।
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Sunday, February 08, 2009

मंदी का असर प्यार पर भी पड़ेगा-व्यंग्य आलेख

क्वीसलैंड यूनिवर्सटी आफ टैक्लनालाजी के प्रोफेसर कि अनुसार इस मंदी के दौर में लोगों के दाम्पत्य जीवन पर कुप्रभाव पड़ रहा है। उनके अनुसार पैसा प्यार को मजबूत रखता है और उसकी कमी तनाव को जन्म देती है।
यह एक सच्चाई है। फिल्मों,साहित्यक कहानियों और हिंदी उर्दू शायरियों में जिस इश्क, प्यार या मोहब्बत का गुणगान किया जाता है वह केवल भौतिक साधनों के सहारे ही परवान चढ़ता है। फिल्मों की काल्पनिक कथायें देखते हुए हमारे देश के युवक युवतियां क्षणिक प्यार में जाने क्या क्या करने को तैयार हो जाते हैं और फिर न केवल अपने लिये संकट बुलाते हैं बल्कि परिवार को भी उसमें फंसाते हैं।

हमारा अध्यात्मिक ज्ञान तो यही कहता है कि प्रेम केवल सर्वशक्तिमान से हो सकता है पर अपने देश में एसी भी विचारधारायें भी प्रचलन में हैं जिनके अनुसार प्रियतम अपनी प्रेयसी को तो कहीं प्रेयसी को उसकी जगह बिठाकर आदमी को प्यार और मोहब्बत के लिये प्रेरित करती हैं। आपने फिल्मों में ऐसे गीत देखे होंगे जिसमें काल्पनिक प्रियतम की याद प्रेयसी और उसकी याद में प्रियतम ऐसे गीत गा रहा होता है जैसे कि भजन गा रहा हो। हम न तो ऐसे प्रेम का विरोध कर रहे हैं न उसका गुणगान कर रहे हैं बल्कि यह बता रहे हैं कि प्रेमी जब गृहस्थ के रूप में बदल जाते हैं तक अपनी दैहिक आवश्यकताओं के लिये धन की जरूरत होती है और तभी तय होता है कि वह कथित प्रेम किस राह चलेगा।

वैसे हमने अपने जीवन में देखा है कि जब को लड़का किसी लडकी की तरफ आकर्षित होता है तो उसे प्रेम पत्र लिखकर या वाणी से बोलकर किसी ऐसी जगह ही आमंत्रित करता है जहां खाने पीने के लिये एकांत वाली जगह हो। वहां डोसा,सांभर बड़ा या समौसे कचैड़ी खाते हुए प्रेम परवान चढ़ता है। वैसे आजकल पब सिस्टम भी शुरु हो गया है। यह बात पहले पता नहीं थी पर आजकल कुछ घटनायें ऐसी हो गयी हैं उससे यह जानकारी मिली है।

यह स्त्री पुरुष का दैहिक प्रेम पश्चिमी विचारधारा पर आयातित है तो तय है कि उसके लिये मार्ग भी वैसे ही बनेंगे जैसे वहां बने हैं। वैसे इस दैहिक प्रेम का विरोध तो सदियों से हर जगह होता आया है पुराने समय में इक्का दुक्का घटनायें होती थीं और प्यार के विरोध में केवल परिवार और रिश्तेदार ही खलनायक की भूमिका अदा करते थे। अब तो सब लोग खुलेआम प्रेम करने लगे हैं और हालत यह है कि परिवार के लोग विरोध करें या नहीं पर बाहर के लोग सामूहिक रूप से इसका प्रतिकार कर उसे प्रचार देते हैं। यह भी होना ही था पहले प्यार एकांत में होता था अब भीड़ में होने लगा है तो फिर विरोध भी वैसा होता है। इस दैहिक प्यार की महिमा जितनी बखान की जाती है उतनी है नहीं पर जब कोई खास दिन होता है तो उसकी चर्चा सारे दिन सुनने को मिलती है।

वैसे तो देखा जाये कोई किससे प्यार करने या न करे उसका संबंध बाहर के लोगों से कतई नहीं है। पर रखने वाले रखते हैं और कहते हैं कि यह संस्कृति के खिलाफ है? आज तक हम उस संस्कृति का नाम नहीं जान पाये जो इसके खिलाफ है। हमारे अनेक सांस्कृतिक प्रतीक पुरुषों ने प्यार किया और अपनी प्रेयसियों से विवाह रचाया। अब यह जरूरी नहीं है कि उनकी विवाह पूर्व की प्रेमलीला कोई लंबी खिंचती या वह गाने गाते हुए इधर उधर फिरते। चूंकि यह व्यंग्य है इसलिये हम उनके नाम नहीं लिखेंगे पर जानते सभी हैं। सच बात तो यह है कि दैहिक प्रेम में आत्मिक भाव तभी ढूंढा जाता है दोनों प्रेमियो का मिलन सामाजिक नियमों के अनुसार हो जाता है। मगर आजकल हालत अजीब है कि कहीं विवाह पूर्व प्रेम ढूंढा जा रहा है तो कही विवाह के पश्चात् सनसनी के कारण से प्रेम पर चर्चा होती है।

बहरहाल हमारा मानना है कि चाहे जो भी हो जो लोग सावैजनिक जगहों पर प्रेम करने पर आमदा होते हैं उनकी तरफ अधिक ध्यान देना ही नहीं चाहिये। पिछले कुछ वर्षों से समाज में कामकाजी महिलाओंं की संख्या बढ़ती जा रही है-यह अलग बात है कि उसके बावजूद गृहस्थ महिलाओं की संख्या बहुत अधिक हैं। ऐसे में अगर वह अविवाहित हैं तो उनके संपर्क अपने कार्यस्थल पर काम कर रहे या कार्य के कारण पासं आने वाले युवकों से हो जाते हैं। लड़कियां क्योंकि कामाकाजी होती हैं इसलिये वह विवाह से पहले अपने मित्रों को पूरी तरह परखना चाहती हैं। ऐसे में कुंछ युवतियां अपने परिवार में संकोच के कारण नहीं बताती क्योंकि उनको लगता है कि इससे माता पिता और भाई नाराज हो जायेंगे। फिर क्या पता लड़का हमें ही न जमें। कुछ मामलों में तो देखा गया है कि कामकाजी लड़कियों के माता पिता पहले कहीं अपनी कामकाजी लड़की के रिश्ते की बात चलाते हैं फिर लड़की से कहा जाता है कि वह लड़का देख कर अपना विचार बताये-तय बात है कि यह मिलने लड़की और लड़के का अकेले ही होता है और उस समय कोई उनका परिचित देख ले तो यही कहेगा कि कोई चक्कर है।

बहरहाल संस्कृति और संस्कार के रक्षकों के सामने अपने विचारों का स्वरूप स्पष्ट नहीं होता बस नारे लगाते हुए चले जाते हैं। उनको लगता है कि सार्वजनिक जगहों पर अविवाहित युवक युवतियों का उठना बैठना संस्कृति को नष्ट कर देगा। यह हास्यास्पद है। हम बात कर रहे थे मंदी से प्रेम के बाजार में मंदी आने की। इस समय रोजगार के अवसरों में कमी हो रही है और ऐसे में इस समय जो कामकाजी जोड़े हैं वह प्यार कर कभी न कभी विवाह में बंधन में बंध जायेंगे। नये जोड़ों के सामने तो केवल नौकरी ढूंढने का ही संकट बना रहने वाला है। उनको अपना वक्त नौकरी ढूंढने में ही नष्ट करना होगा तो प्यार क्या खाक करेंगे? यह संकट निम्न मध्यम वर्ग के लोगों में ही अधिक है और इस वर्ग के सामने रोजगार के नये अवसरों का संकट आता दिख रहा है। कुछ अर्थशास्त्रियेां का मानना है कि अगले चार साल तक यह मंदी रहने वाली है और इसमें ऐसे अनेक व्यवसायिक स्थान संकट में फंस सकते हैं जो जोड़ों को मिलने मिलाने के सुगम और एकांत अवसर प्रदान करते हैंं। फिर रोजगार के संकट के साथ कम वेतन भी एक कारण हो सकता है जो प्रेम के अवसर कम ही प्रदान करे।

अपने देश में देशी विद्वानों की बात तो मानी नहीं जाती। इसलिये यह स्पष्ट करना जरूरी है कि यह कथन एक विदेशी विद्वान का ही है कि पैसे से ही प्यार मजबूत होता है और मंदी का यही हाल रहा तो प्यार का असर कम हो जो जायेगा। यह अलग बात है कि प्रचार बनाये रखने के लिये कुछ प्रेम कहानियंा फिक्स कर दिखायी जायें पर जब मंदी की मार प्रचार माध्यमों पर पड़ेगी तो वह कितनी ऐसी कहानियां बनवायेंगे? सो संस्कार और संस्कृति रक्षकों को चादर तानकर सो जाना चाहिये। आज नहीं तो कल दैहिक प्रेम-जो कि पैसे के कारण ही परवान चढ़ता है-अपना अस्तित्व खो बैठेगा। तब उनके विचारों के कल्पित समाज अपनी राह पर फिर संस्कारों और संस्कृति के सााि चलेगा।
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Tuesday, February 03, 2009

असली परीक्षा सर्च इंजिनों पर होनी है-आलेख

अगर मेरे ब्लाग केवल ब्लागस्पाट के ही होते तो शायद कम पाठक संख्या देखकर मैं भी बहुत दुखी होता पर वर्डप्रेस के ब्लाग मुझे हमेशा व्यस्त रखते हैं। एक तरह से देखा जाये तो ब्लाग स्पाट पर लिखे गये ब्लाग ऐसे ही हैं जैसे कि अपनी डायरी लिख रहे हों जिसे अपने ही मित्र पढ़ सकें और सर्च इंजिनों पर अगर पकड़ा जाये तो अन्य पाठक भी पढ़ सकें। इसके विपरीत वर्डप्रेस के ब्लाग ऐसे लगते हैं जैसे कि स्वयं की पत्रिका हो जहां पाठक निरंतर आते हैं। यही कारण है कि अधिकतर निराशा वाली बातें केवल ब्लागस्पाट पर लिखने वाले ही ब्लाग लेखक और लेखिकायें करते हैं जबकि वर्डप्रेस वाले अपने ब्लाग के उतार चढ़ाव देखकर उसका सुख अनुभव करते हैं।

अंतर्जाल पर बहुत सारी वेबसाईटें और फोरम हैं जो हमारे ब्लाग के लिंक लगाते हैं। वहां से भी बहुत सारे पाठक आते हैं। आश्चर्य की बात यह है कि वहां से आये अधिकतर पाठक वर्डप्रेस के ब्लाग पर ही आते हैं। कुछ अंतर्जाल लेखकों को बहुत दुख होता है जिनको विभिन्न फोरमों पर अन्य के मुकाबले अपने ब्लाग के पाठ पर व्यूज कम लगते हैं। मुझे चारों फोरमों पर-नारद ब्लागवाणी,चिट्ठाजगत और हिंदी ब्लाग-व्यूज और कमेंट कम ही मिलते हैं पर मित्रों के ब्लाग पढ़ने और उनके सामने अपनी रचनायें प्रस्तुत करने का मोह इससे कम नहीं होता। मेरा मुख्य लक्ष्य है अंतर्जाल पर सच इंजिनों पर अपनी रचनायें पहुंचाना। इसके लिये मुझे वर्डप्रेस के ब्लाग बहुत सारी सुविधायें मिलती हैं। सबसे अधिक यह कि वहां अधिक टैग लगाने की सुविधा। वैसे शायद यह सुविधा ब्लागस्पाट पर भी है क्योंकि अनेक लोग 200 वर्णों से अधिक के टैग लगाते हैं पर पता नहीं वह बताते क्यों नहीं?
विभिन्न फोरमों पर अपने ब्लाग पर लिखी गयी पोस्ट त्वरित रूप से दिखाई देती है और जब तक वह ऊपर है उसको पढ़ा जा सकता है तब तक पाठक आते हैं मगर बाद में वह कम हो जाते है। फोरमों पर कम व्यूज देखा जाये तो मुझे स्वयं को फ्लाप ब्लाग लेखक मानने में संकोच नहीं होता। वैसे वहां के व्यूज देखकर किसी भी ब्लाग लेखक को निराश नहीं होना चाहिये। उनको मुख्य रूप से यह देखना चाहिये कि सर्च इंजिनों से कितने व्यूज आ रहे हैं।
सर्च इंजिनों से लोग अपनी रुचि के अनुसार हिंदी व अंग्रेजी में शब्द लिखकर विषय सामग्री ढूंढते हैं और अगर हमारा ब्लाग में वह सामग्री है तो वह उसके सामने आती है। मेरे ब्लाग स्पाट के ब्लाग तो ब्लागवाणी पर दिखते हैं पर वर्डप्रेस के ब्लाग वहां से मैने हटवा लिये क्योंकि मैं उन पर अब ब्लाग स्पाट पर लिखी गये चुनींदा पाठ ही वहां प्रकाशित करता हूं और चूंकि अधिकतर ब्लाग लेखक वहां रहते हैं इसलिये उनको मेरे ब्लाग के पाठों का दोहराव न दिखे। फिर भी एक बार मैंने चर्चित विषय पर एक नवीन पाठ वर्डप्रेस के ब्लाग पर लिखा तो उस पर दो दिन में सौ पाठक आये। कई बार तो ऐसा भी हुआ है कि ब्लाग स्पाट पर लिखे गये पाठ को अधिक पाठक नहीं मिले पर वही पाठ वर्डप्रेस पर प्रकाशित किया तो वहां पंद्रह दिन में तीन सौ पाठक पढ़ने के लिये आये।

मुझे हैरानी इस बात की है कि फोरमों पर एक दूसरे के हिट देखकर परेशान होने या आरोप प्रत्यारोप लगाने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। ऐसा लगता है कि इन फोरमों पर को ही सब कुछ मानकर वहां हिट पाने के लिये लोग ललायित हैं और इसी प्रयास में उनकी रचनाओं की धार कुंठित हो जाती हैं। एक बात याद रखने वाली है कि मेरा अनुभव तो यही कहता है कि जब तक आम पाठकों की रुचि के विषयों पर नहीं लिखेंगे तब तक स्थाई रूप से सफलता नहीं मिल सकती। मेरे कुछ निजी मित्र जब अखबारों में ब्लाग लेखकों में मेरा नाम न देखकर आश्चर्य से पूछते हैं कि ‘क्या अंतर्जाल पर तुम्हारा कोई मित्र नहीं है जो अखबारों में तुम्हारा नाम छाप सके।’
कुछ मित्र मेरे ब्लाग के ही माध्यम से विभिनन फोरमों पर गये तो उन्होंने टिप्पणी की कि ‘वहां भी वैसा ही सब कुछ चल रहा है जैसे कि हिंदी के साहित्य के प्रकाशन में चलता है। वहां तुम्हें वैसे ही कोई महत्व नहीं देगा जैसे कि बाहर नहीं दिया।’

अवसर मिलते ही मैं लिखता हूं और पूरे मजे लेता हूं और वह इतने होते हैं कि किसी पाठ का हिट होना मुझे प्रसन्न नहीं करता और फ्लाप हो जाना चिंता में नहीं डालता।
ब्लागिंग का मजा तभी है जब अपना पाठ लिखो और उसकी शक्ल तक किसी फोरम पर मत देखों बल्कि वहां एक पाठक की तरह दूसरों के पाठ पढ़ो। उनको पढ़कर उन पर अपनी राय कायम करो। टिप्पणियों की चिंता तो यहां करना भी नहीं। अगर आप बढ़े लेखक बन गये तो आम पाठक अपने आप ही टिप्पणियां करेंगे और नहीं तो आपके मित्र ब्लाग लेखक ही करेंगे और वह भी जितनी उनकी क्षमता होगी। तय बात है कि यह क्षमता भी उतनी ही होगी जितनी आप टिप्पणियां करेंगे।

वैसे ब्लाग का एक उद्देश्य यह है कि आप वहां संदेश रखें और दूसरा उसे पढ़कर रखे पर अपने यहां इसका उपयोग चूंकि एक पत्रिका की तरह भी हो रहा है तो फिर यह जरूरी नहीं है कि सभी आपके पाठों पर टिप्पणी करें। एक बात है कि जब आप अपने लिखे पर वाह वाही सुनना चाहते हैं तो इसका आशय यह कि आपने लिखने का मजा ही नहीं लिया और अगर आपको आपने लिखने के बाद वाह वाही की चिंता नहीं है तो समझ लीजिये कि आपने पूरा मजा लिया। हां, अंतर्जाल पर लिखते हुए त्वरित पाठक या टिप्पणियों से सफलता का आधार नहीं है बल्कि हिंदी का बृहद स्वरूप सर्च इंजिनों से आये पाठक ही निर्धारित करेंगे। इसलिये सर्च इंजिनों तक पहुंचने का लक्ष्य तय करना चाहिये क्योंकि असली परीक्षा वहीं होनी है।
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