Monday, March 30, 2009

भीड़ में अपना मुकाम तभी बनाओगे-हिंदी शायरी

कहीं समर्थन की माला चढ़ाओ
या फिर विरोधी चिंगारी जलाओ
नहीं तो बाजार से बाहर हो जाओगे।
भीड़ में जाकर छोर मचाओ
या जंगल में कहीं चले जाओ
खड़े देखते रहे खाली
तो कमअक्ल कहलाओगे।
बिक गयी है यहां सोच सभी की
किसी के गुलाम होकर पीछे चलो
या आजादी से अपने गीत गाओ
खामोश रहे तो गूंगे कहलाओगे।
दूसरे के दर्द पर हंसना नहीं
अपने गमों के जहर से किसी को डसना नहीं
किसी गरीब पर अपनी जुबां से
कभी फब्तियां कसना नहीं
अपने यकीन की राह से भटकना नहीं
जिंदगी के अपने उसूलों पर ही
खड़े करना अपनी कामयाबी की इमारत
तभी इस भीड़ में अपना मुकाम बनाओगे।
........................................
खुश होने के लिये बहानों को
क्या ढूंढना
एक नहीं हजार मिलते हैं
खोल रखे हैं जिन्होंने अपने दिल के दरवाजे
वह खुशी के आने के इंतजार में
आखों की खिड़कियों पर लगाने के लिये
महंगे परदे नहीं सिलते हैं।

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Tuesday, March 24, 2009

नये लेखक लिखने में संकोच का त्याग करें-आलेख

नये लेखक लेखिकाओं को लिखते हुए इस बात की झिझक हो सकती है कि उनके लिखे पर कोई हंसे नहीं। वह समाचार पत्र पत्रिकाओं में तमाम प्रसिद्ध लेखकों की रचनायें पढ़कर यह सोचते होंगे कि वह उन जैसा नहीं लिख सकते। कई युवक युवतियां तो ऐसे हैं जो अपनी रचनायें लिखकर अपने पास ही रख लेते हैं कि कहीं कोई उस पर पढ़कर हंसे नहीं। संभव है ऐसे ही कुछ नये लेखकों के पास इंटरनेट की सुविधा के साथ ब्लाग लिखने की तकनीकी जानकारी भी हो पर वह इसलिये नहंी लिखते हों कि ‘कहीं कोई पढ़कर मजाक न उड़ाये।’

ऐसे नये लेखक अपने आप को भाग्यशाली समझें कि उनके पास अंतर्जाल पर ब्लाग लिखने के अवसर मौजूद हैं जो पुराने लेखकों के पास नहीं थे। हां, उन्हें लिखने को लेकर अपने अं्रदर कोई संकोच नहीं करना चाहिये। वह जिन पत्र पत्रिकाओं के प्रसिद्ध लेखकों की रचनाओं को लेकर अपने अंदर कुंठा पाल लेते हैं उनके बारे में अधिक भ्रम उन्हें नहीं रखना चाहिये। वैसे तो हर आदमी जन्मजात लेखक होता है पर अभ्यास के बाद वह समाज में लेखक का दर्जा प्राप्त करता है। अगर आप लिखना प्रारंभ करें तो धीरे धीरे आपको लगने लगेगा कि जिन बड़े लेखकों को पढ़कर आप कुंठा पाल रहे थे उनसे सार्थक तो आप लिख रहे है। सच बात तो यह है कि स्वतंत्रता के बाद देश में हर क्षेत्र में ठेकेदारी का प्रथा का प्रचलन शुरु हो गया जिसमें बाप जो काम करता है बेटा उसके लिये उतराधिकारी माना जाता है। यही हाल हिंदी लेखन का भी रहा है।

अनेक लोग ऐसे भी हैं जो हिंदी में बेहतर नाटक,कहानी या उपन्यास न लिखने की शिकायत करते हैं। दरअसल यह वही लोग हैं जो ठेकेदारी के चलते प्रसिद्धि प्राप्त कर गये हैं पर उनको हिंदी के सामान्य लेखक के मनोभाव का ज्ञान नहीं रहा। हिंदी में बहुत अच्छा लिखने वालों की कमी नहीं है पर उनको अवसर देने वाले तमाम तरह के बंधन लगा कर उन्हें अपनी मौलिकता छोड़ने को बाध्य करे देते हैं। यही कारण है कि पिछले पचास वर्षों से जातिवाद, क्षेत्रवाद,और भाषावाद के कारण हिंदी में बहुत कम साहित्य लिखा गया है। जिन लोगों ने इन वादों और नारों की पूंछ पकड़कर प्रसिद्धि की वैतरणी पार की है उनका सच आप तभी समझ पायेंगे जब अंतर्जाल पर स्वतंत्र लेखन करेंगे। अधिकतर लेखक या तो प्रतिबद्ध रहे या बंधूआ। दोनों ही परिस्थितियों में मौलिक भाव का दायरा संकुचित हो जाता है।

अगर आप कविता लिखना चाहते हैं तो लिखिये। अब वह कविता इस तरह भी हो तो चलेगी।
होटल में जाने को मचलने लगा हमारा दिल
खाया पीया जमकर, बैठ गया वह जब आया बिल
या
फिल्मी गाने सुनते ऐसे हुए, चेहरे परं चांद जैसा लगता तिल
जब भी आता है कोई ऐसा चेहरा, गाने लगता अपना दिल

आप यह मत सोचिये कि कोई हंसेगा। हो सकता है कुछ लोग हंसें पर यह सबसे आसान काम है। कोई भी किसी पर हंस सकता है। आप तो यह मानकर चलिये कि आपने अपने मन की बात लिख ली यही बहुत है।
अगर आपको गद्य लिखने का विचार आया तो यह भी लिख सकते हैं।
आज मैं सुबह नहाया, फिर नाश्ता किया और उसके बाद बाहर फिल्म लिखने गया और रात को घर आया और खाना खाया और सो गया। अब कल सोचूंगा कि क्या करना है?

ऐसे ही आप लिखना प्रारंभ कर दीजिये। अभ्यास के साथ आप के अंदर का लेखक परिपक्व होता चला जायेगा। वैसे इसके साथ ही दूसरों का लिखा पढ़ें जरूर! दूसरे का पढ़ने से न केवल विषय के चयन का तरीका मिलता है बल्कि उससे अपनी एक शैली स्वतः निर्मित होती जाती है। हम जैसे पढ़ते हैं वैसे ही लिखने का मन करता है और फिर अपनी एक नयी शैली अपने आप हमारी साथी बन जाती है।
आप लोग पत्र पत्रिकाओं में बड़ी कहानियां,व्यंग्य और निबंध पढ़ते हैं और वैसा ही लिखना चाहते हैं तो इस पर अधिक विचार मत करिये। अंतर्जाल पर संक्षिप्तता का बहुत महत्व है। सबसे बड़ी बात यह है कि यहां मौलिकता और स्वतंत्रता के साथ लिखने की जो सुविधा है उसका उपयोग करना जरूरी है। इस लेखक से अनेक लोग अपनी टिप्पणियों में सवाल करते हैं कि आप अपनी रचनायें पत्र पत्रिकाओं में क्यों नहीं भेजते?
इसका सीधा जवाब तो यही है कि भई, हम तो पांच रुपये की डाक टिकट लगाकर लिफाफे भेजते हुए थक गये। अपनी रचना अपने हिसाब से की पर वह उन पत्र पत्रिकाओं के अनुकूल नहीं होती । वैसे अधिकतर समाचार पत्र पत्रिकाओं के वैचारिक, साहित्यक और व्यवसायिक प्रारूप हैं जिनके ढांचे में हमारी रचनायें फिट नहीं बैठती। हां, यह सच है कि आप जो लिखते हैं उसका उस पत्र या पत्रिका के निर्धारित प्रारूप में फिट होना आवश्यक है। जो लेखक इन प्रारूपों की सीमा में लिखते हैं वही प्रसिद्ध हो पाते हैं-यह सफलता भी उन्हीं लेखकों को नसीब में आती है जिनके संबंध होते हैं। अधिकतर पत्र पत्रिकाओं के मुख्यालय बड़े शहरों में होते हैं और छोटे शहरों के लेखक वहां तक नहीं पहुंच पाते। वैसे वह उनके तय प्रारूप के अनुसार लिखें तो तो भी इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि उनकी रचना छप ही जाये।
बहरहाल जिन नये लेखकों के अवसर मिल रहा है उनके लिये तो अच्छा ही है पर जिनको नहीं मिल रहा है वह यहां लिखें। उन्हें पत्र पत्रिकाओं वाले प्रारूपों का ध्यान नहीं करना चाहिये क्योंकि यहां संक्षिप्पता, मौलिकता और निष्पक्षता के साथ चला जा सकता है जबकि वहां कुछ न कुछ बंधन होता ही है। आपके ब्लाग एक जीवंत किताब की तरह हैं जो कहीं अलमारी में बंद नहीं होंगे और उन्हें पढ़ा ही जाता रहेगा। आप इस पर विचार मत करिये कि आज कितने लोगों ने इसे पढ़ा आप यह सोचिये कि आगे इसे बहुत लोग पढ़ने वाले हैं। मेरे ऐसे कई पाठ हैं जो प्रकाशित होने वाले दिन दस पाठक भी नहीं जुटा सके पर वह एक वर्ष कें अंदर पांच हजार की संख्या के निकट पहुंचने वाले हैं।
हिंदी लेखन में स्थिति यह हो गयी है कि लेखक की पारिवारिक, व्यवसायिक और सामाजिक परिस्थिति कें अनुसार उसकी रचना को देखा जाता है। यही कारण है कि पत्र पत्रिकाओं में लेखन से इतर कारणों से प्रसिद्धि हस्ती के लेखक प्रकाशित होते हैं या फिर उन अंग्रेजी लेखकों के लेख प्रकाशित होते हैं जो अंग्रेजी में आम पाठक की उपेक्षा से तंग आकर हिंदी की तरफ आकर्षित हुए-इस बारे में संदेह है कि वह स्वयं उनको लिखते होंगे क्योंकि उन्होंने ताउम्र अंग्रेजी में लिखा। संभवतः अपने लेखों को अंग्रेजी में लिखकर उसका हिंदी में अनुवाद कराते होंगे या बोलकर लिखवाते होंगे।

अगर कोई फिल्मी हीरो अपना ब्लाग बना ले तो उसे एक ही दिन में हजारों पाठक मिल जायेंगे पर आप अगर एक आप लेखक हैं तो फिर आपको अपने लिखे के सहारे ही धीरे धीरे आगे बढ़ना होगा। ऐसे में यही बेहतर है कि आप संकोच छोड़कर लिखे जायें। इस विषय में हमारे एक गुरुजी का कहना है कि तुम तो मन में आयी रचना लिख लिया करो। हो सकता है उस समय उसे कोई न पूछे पर जब तुम्हारा नाम हो जाये तो लोग उसी की प्रशंसा करें।

इसलिये जिन लोगों के पास ब्लाग लिखने की सुविधा है उन्हें अपना लेखक कार्य शुरु करने में संकोच नहीं करना चाहिये। हिंदी में गंभीर लेखन को कालांतर में बहुत महत्व मिलेगा। आपका लिखा हिंदी मेें पढ़ा जाये यह जरूरी नहीं है। अनुवाद टूलों ने भाषा और लिपि की दीवार ढहाने का काम शुरु कर दिया है यानि यहां लिखना शुरु करने का अर्थ है कि आप अंतर्राष्ट्रीय स्तर के लेखक बनने जा रहे हैं जो कि पूर्व के अनेक हिंदी लेखकों का एक सपना रहा है। हां इतना जरूरी है कि अपने लिखे पर आत्ममुग्ध न हों क्योंकि इससे रचनाकर्म प्रभावित होता है।
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Sunday, March 22, 2009

कार्टून अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है-आलेख

अगर विषय और प्रस्तुति दमदार हो तो कार्टूनों को रंग लगाने की आवश्यकता भी नहीं होती। एक बड़ी दुनियां को थोड़े से में समेट लेना ही होता है किसी कार्टूनिस्ट का कमाल। ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जिसे कार्टून आकर्षित न करता हो। पढ़ा लिखा हो या नहीं व्यक्ति को कागज पर बने रेखाचित्र अपनी तरफ बरबस खींच ही लेते है। यही कारण है कि बालकों की पत्र पत्रिकाओं में अधिकतर रेखाचित्रों से बनी सामग्री को अधिक स्थान दिया जाता है।

पहले मोटू पतलू और शेख चिल्ली की रेखाचित्रों से सजी हास्य व्यंग्य सामग्री खूब लुभाती थी। कहने को वह पत्रिकायें बच्चों की थी पर उसे पढ़ते बड़े और छोटे सभी थे। यही कारण है कि देश के अधिकतर अखबार अपने प्रथम पृष्ठ पर ही कार्टून छापते हैं भले ही उसके लिये उनके पास विज्ञापन के कारण जगह कम पड़ती हो। वैसे कार्टूनों की बात की जाये तो कुछ वर्ष पहले जनसत्ता में एक कार्टूनिस्ट काफी लोकप्रिय रहे। उनका नाम शायद काक है । उनके कार्टून लोगों को बहुत अच्छे लगते थे। एक आम आदमी के रूप मेेंं वहां जो पात्र गढ़ा गया था वह भारत के आम आदमी के बीच का लगता था।
उनका एक कार्टून बहुत अच्छा लगा था। उन दिनों पानी की तंगी सभी जगह थी। एक औरत ने नल के नीचे बाल्टी रखी थी जिसमें बूंद बूंद कर पानी आ रहा था। वह आम आदमी उसे घूर कर देख रहा था और वह औरत उससे गुस्से मेंे कहती है कि ‘अब नजर न लगा। बूंद बूंद ही सही पानी आ तो रहा है।’

ऐसे बहुत से कार्टून काक साहब ने बनाये। अब तो जनसत्ता देखने का अवसर ही नहीं मिल पाता इसलिये कहना कठिन है कि अब उसमें कार्टून आते हैं कि नहीं बहरहाल हमें काक साहब के कार्टून बहुत अच्छे लगते थे और सच बात तो यह है कि वैसे कार्टून फिर कहीं देखने को नहीं मिले।
कहने को कई कार्टूनिस्ट भारत में हैं पर वह रानजीतिक विषयों पर सीधे सीधे कार्टून बनाने के कारण आम लोगों को वह बहुत कम पसंद आते हैं। कार्टूनों में आम आदमी की समस्याओं और प्रतिक्रियाओं की व्यंजनात्मक अभिव्यक्ति हो तो उसका अलग ही मजा आता है। वैसे यही हाल देश के व्यंग्यकारों का है। वह सीधे राजनीतिक विषयों पर लिखते हैं। देखा जाये तो वह अपने निबंध को व्यंग्य कहते हैं। व्यंग्य का अर्थ ही यह है कि वह व्यंजना विद्या में हो। जिस पर आप व्यंग्य लिख रहे हैं और उसका सीधा नाम ही लिख दिया तो फिर काहे का व्यंग्य? यही स्थिति कार्टूनिस्टों की है। अगर देखा जाये तो किसी भी विषय पर हास्यात्मक या व्यंग्यात्मक अभिव्यक्ति की विद्या ही कार्टून को कार्टून बनाती है। कार्टून को प्रभावी तभी माना जाता है जब उसे देखते ही आदमी के अधरों पर हंसी आ जाये। फिर उसमें जो शब्द हों वह जोर से हंसने को बाध्य कर दें।

जनसत्ता जब अपने चरम पर था तब उसमें काक साहब के कार्टूनों की लोकप्रियता का भी योगदान था। हालांकि उस समय देश के एक अंग्रेजी दैनिक के कार्टूनिस्ट को ही सबसे अधिक प्रसिद्ध माना जाता था पर सच बात तो यह है कि उनके जो कार्टून हिंदी में देखे वह कभी इतने प्रभावशाली नहीं लगे। तब से यह बात लगने लगी है कि भारत में हिंदी को लेकर हिंदी के प्रचार माध्यमों मेंे ही पूर्वाग्रह है। काक साहब के कार्टून उस समय बहुत प्रभावशाली थे पर हिंदी के अखबार गाते अंग्रेजी के कार्टूनिस्ट के थे। हालांकि अब भी अनेक कार्टूनिस्ट हैं पर उनका प्रभाव वैसा नहीं है। इसका कारण यह है कि वह एक तो राजनीतिक विषयों पर ही अधिक कार्टून बनाते हैं और वह भी सीधे ही अपनी बात कहते हैं। दूसरे आम आदमी और समाज के विषयों पर बहुत कार्टूनिस्ट अपनी रचना कम ही करते हैं। इसके बावजूद लोग उनको पढ़ते हैं क्योंकि हर आदमी की यह चाहत होती है कि कहीं हंसाने के लिये कुछ मिले। हम तो कार्टून को देखते ही लपककर देखने लगते हैं और यह एक सच्चाई है कि बहुत कम कार्टूनिस्ट प्रभावी रचनायें कर रहे हैं। हमें कार्टून बनाना नहीं आता वरना क्यों व्यंग्य कवितायें लिखते। कार्टून के माध्यम से जो बात कही जा सकती है उसका कोई मुकाबला नहीं है। जिस तरह व्यंग्यकार व्यंग्य लिख सकते हैं पर कार्टून नहीं बना सकते वैसे ही सभी कार्टूनिस्ट रेखाचित्र तो बना सकते हैं पर उसमें व्यंग्य पैदा नहीं कर सकते। संभवतः अखबारों में काम करने वाले कार्टूनिस्ट इसलिये अधिक लोकप्रिय होते हैं क्योंकि वह अपने साथ कम करने वाले विद्वानों से विभिन्न विषयों पर निरंतर चर्चा करते हैं रहते हैं जिसके कारण उनके लिखने में भी धार आती है। बहरहाल इसमें कोई संदेह नहीं है कि कार्टून अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम हैं।
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Wednesday, March 18, 2009

नयी परिभाषाएं-व्यंग्य क्षणिकाएं

पीता जाए चुपचाप दर्द.
घर की नारी करें हैरान
ससुराल वाले धमकाकर करें परेशान
पर खामोश रहे वही है असली मर्द.

पसीना बहाकर कितना भी थक जाता हो
फिर भी नींद पर उसका हक़ नहीं हैं
अगर नारी का हक़ भूल जाता हो
घर में भीगी बिल्ली की तरह रहे
भले ही बाहर शेर नज़र आता हो
मुश्किलों में पानी पानी हो जाए
भले ही हवाएं चल रही हों सर्द.
तभी कहलाएगा मर्द.
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मर्द को हैरान करे
पल पल परेशान करे
ऐसी हो युक्ति.
उसी से होती है नारी मुक्ति.
डंडे के सहारे ही चलेगा समाज
प्यार से घर चलते हैं
पड़ गयी हैं यह पुरानी उक्ति.

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Wednesday, March 11, 2009

अपना कदम पीछे हटाया-व्यंग्य कविता

नकली चेहरा लोग लगा लेते हैं।
पर रंग भी असली कहां आते
इसलिये ही नकली रंग से होली मना लेते हैं।

होली पर ही नहीं होते चेहरे रंगीन
यहां तो हर रोज लोग
खुद ही रंग लगा लेते हैं
आदमी की पहचान चेहरे से नहीं
दिल की नीयत से होती है
कोई झांक कर न देखे अंदर
इसलिये लोग रोज
देखने वालों को रंग से बरगला देते हैं।
.......................
उनके चेहरे पर वैसे ही रंग
बहुत लगे थे
इसलिये अपना रंग जाया न करने का
ख्याल हमारे दिल में आया।

उनके पास भी बहुत रंग थे
हमारे साफ चेहरे पर लगाकर
तरस न खायें
अपनी उदारता का अहंकार न जताये
उनसे पहले किसी ने हमसे होली खेली नहीं
इसकी अनुभूति न करायें
इसलिये हमने उनके दरवाजे से ही
अपना कदम पीछे हटाया।

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Monday, March 09, 2009

पाकिस्तान में अमेरिका की नयी रणनीति-आलेख

आखिर अमेरिका ने तालिबान से बातचीत करने का फैसला कर लिया है। नये राष्ट्रपति के आते ही इस बात की संभावना बन रही थी। कहने को तो यह कहा गया है कि उदारवादी तालिबानों के बातचीत की जायेगी पर इसका कोई अर्थ नहीं है क्योंकि तालिबान में इस तरह का भेद करना कठिन है। वैसे तालिबान का जो चरित्र अभी तक रहा है उससे तो लगता है कि पैसा लेकर वह अपनी वफादारी अमेरिका से भी निभा सकता है। दरअसल अमेरिका का लक्ष्य अलकायदा को समाप्त करना है और वह ऐसी अपेक्षा कर रहा है कि इसमें तालिबान उसकी सहायता कर सकता है।

स्वात घाटी में कथित उदारवादी तालिबानों को मनमानी करने की छूट पाकिस्तान सरकार ने दी थी तब उसका विरोध अमेरिका ने दिखाने के लिये जरूर किया था पर सभी जानते थे कि अमेरिका के प्यादे राष्ट्रपति जरदारी के लिये यह संभव नहीं है कि वह उनके इशारे के बिना कोई इतना बड़ा निर्णय करे। अमेरिका ने पहले यही यह संकेत दिया था कि तालिबान उसका दुश्मन नहीं है इसलिये अलकायदा से उसे अलग करने का प्रयास करेगा।
पाकिस्तान में तालिबान के बढ़ते वर्चस्व से भारत को परेशानी होगी पर पाकिस्तान का सभ्रांत तबका और अमेरिकी रणनीतिकार उससे बेफिक्र नजर आ रहे हैं। उनको लगता है कि वह तो हर तरह से सुरक्षित रहेंगे।
अमेरिका जहां अफगानिस्तान और इराक से हटने की तैयारी करता दिख रहा है वहीं अफगानिस्तान में अपनी सेना भी बढ़ा रहा है। इराक की तेल और अफगानिस्तान की प्राकृतिक संपदा को वह इतनी आसानी से अमेरिका छोड़ देगा यह लगता नहीं है। हां, वह कूटनीतिक ढंग से दोनों जगह स्थानीय गुटों को अपने सहयोग के लिये तैयार कर रहा है-इसका सीधा आशय यह है कि वह धन देकर उनको खरीदेगा।

ओबामा के निर्णयों को लेकर भारत आश्वस्त नहीं रह सकता। हालांकि अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव के दौरान भारत के प्रचार माध्यमों ने उनको हीरो बनाकर यह प्रचारित किया पर अब उनकी राह यह संदेह पैदा करती है कि बहुत लंबे समय तक उनकी यह छबि यहां रह पायेगी। अपनी तरक्की,संस्कृति,विज्ञान और ज्ञान को कमतर मानने वालों की इस देश में कमी नहीं है और उनके लिये अमेरिका एक स्वर्ग की तरह है। शायद बहुत कम लोगों ने इस बात पर ध्यान दिया था कि भारत के चंद्रयान -1 के प्रक्षेपण पर ओबामा ने बहुत चिंता जताई थी। विश्व के हालत बदल रहे हैं और इससे अनेक देशों की रणनीति में भी बदलाव आयेंगे। सबसे बड़ी है आर्थिक मंदी का प्रकोप। शुद्ध रूप से औद्योगिक अर्थव्यवस्था पर आधारित देशों के लिये यह संकट का समय है-अनेक आतंकवादी संगठन भी इसका शिकार होंगे क्योंकि भले ही वह धर्म,जाति,भाषा और क्षेत्र का नाम लेकर संघर्ष करते दिखते हैं पर उनका लक्ष्य अपनी शक्ति से केवल धनार्जन करना ही होता है। प्रचार माध्यमों के समाचारों को देखें तो आतंकवादी संगठनों ने औद्योगिक संस्थानों में भी विनिवेश किया था और मंदी के प्रकोप ने जरूर कहीं न कहीं आर्थिक रूप से उनको कमजोर किया होगा। ऐसे में उनके आक्रमण कम होते जायें तो कोई आश्चर्य की बात नहीं।

अलकायदा के साथ तालिबान इसलिये बना रहा है क्योंकि धन और तकनीकी के मामले में उसको उससे बहुत आश्रय मिला। अफगानिस्तान और पाकिस्तान में अलकायदा के अपने लोग संख्या की दृष्टि से अधिक नहीं है पर धन और तकनीकी की वजह से वह नेतृत्व करते हैं। अलकायदा के लोग मध्य एशिया से आये हैं और भाषा तथा संस्कृति की दृष्टि से उनकी वहां के लोगों से एक दूरी हमेशा रही होगी। ऐसे में धन की कमी से उनकी पकड़ कमजोर होना स्वाभाविक है और अमेरिका को इसका लाभ मिल सकता है। मुख्य बात यह है कि अमेरिका अपनी रणनीति बदल सकता है पर लक्ष्य नहीं। कुछ लोगों का कहना है कि अफगानिस्तान में बहुत अधिक प्राकृतिक संपदा तो है साथ ही तेल और प्राकृतिक गैस भंडारों के प्रचुर मात्रा मेें होने की संभावना है और यकीनन अभी भी अमेरिका उस पर नियंत्रण रखना चाहेगा। वहां उसकी तैयारी लंबे समय तक टिकने की है और हो सकता है कि वह पाकिस्तान में तालिबानों के वर्चस्व को स्वीकार कर ले। तालिबान उसके पुराने मित्र हैं और अमेरिका से उनका बैर अलकायदा की वजह से है।

ऐसे में भारत का चिंतित होना स्वाभाविक है। वैसे सामरिक दृष्टि से भारत कोई इराक या अफगानिस्तान नहीं है कि अमेरिका भारत पर सीधे हमला कर सके या कश्मीर हाल से निकाल सके। हां, वह पहले की तरह ही पाकिस्तान को सहायता देकर भारत में आतंकवादी घटनाओं के लिये प्रोत्साहित कर सकता है। यह भी तय है कि अगर तालिबान की भूमिका अगर पाकिस्तान में बनती है तो वह केवल भारत विरोध पर ही चलेगा। हालंाकि यह संभावनायें ही हैं। अलकायदा एक विश्वव्यापी संगठन है और फिलहाल उसकी सक्रियता अधिक नहीं दिखाई देती क्योंकि वह अमेरिका और उसके सहयोगियों पर कोई बड़ा हमला बहुत दिनों से नहीं कर सका है। ऐसे में तालिबानों का जिस तरह पाकिस्तान में वर्चस्व बढ़ रहा है उससे भारत के पास आगे एक ही उपाय बचेगा वह यह कि पाकिस्तान से हर तरह का नाता तोड़ ले। यही एक उपाय है जिससे भारत पाकिस्तान को विचलित कर सकता है। समस्या यहीं से शुरु होगी क्योंकि पाकिस्तान के फिल्मी अभिनेताओं,हास्य कलाकारों,गायकों,संगीतकारों क्रिकेट खिलाडि़यों,पुराने सैन्य अधिकारियों और नेताओं के प्रति जो यहां के एक खास वर्ग का रुझान है वह ऐसा नहीं करने देगा। यह खास वर्ग आतंकवाद की बड़ी घटना होने पर पाकिस्तान को कोसता जरूर है पर तब भी वह अपने पाकिस्तानी मोह को तिलांजलि नहीं देता और वहां के माडलों का भारतीय बाजार प्रचार माध्यमों में उपयोग करता है। वैसे पाकिस्तान के हालत बता रहे हैं कि वहां लोकतंत्र अब अधिक दिन का मेहमान नहीं हैं। पहले तो तालिबानों को बढ़ाया जायेगा फिर उनको रोकने के नाम पर सैन्य शासन आयेगा। अमेरिका थोड़ा बहुत विरोध कर चुप बैठ जायेगा क्योंकि चाहे कोई भी सेनाध्यक्ष हो वह अमेरिका का ही चेला होगा। वैसे अधिकतर विशेषज्ञ अमेरिका की नयी रणनीति का विश्लेषण कर रहे हैं और हो सकता है कि यह दांव कहीं उसको उल्टा न पड़ जाये क्योंकि इराक और अफगानिस्तान में अमेरिका की जो किरकिरी हुई उससे उसका संभलना आसान नहीं है। अभी अमेरिका का बहुचर्चित विमान इन्हीं तालिबानों ने मार गिराया जो कि इस बात का प्रमाण है कि उनके पास आधुनिक हथियार भी हैं।
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Wednesday, March 04, 2009

श्रीलंका क्रिकेट टीम की सुरक्षा कहां थी-आलेख

मुंबई में जब आतंकियों ने हमला किया तब भारत की सुरक्षा चूक कहकर पाकिस्तान ने बचने की नाकाम प्रयास किया था पर अब लाहौर हमले में वह स्वयं ही सुरक्षा चूक की आरोप में फंस रहा है। देखा जाये तो सुरक्षा ऐजंसियां मुंबई पर हमले को लेकर चैकस थी पर उनका सुरक्षा लक्ष्य किसी एक स्थान, इमारत या व्यक्ति पर केंद्रित नहीं था। इतनी बड़ी विशाल मुंबई मेंं यह संभव भी नहीं है। ऐसे में पाकिस्तान से आये आतंकवादी हजार रास्तों से एक मार्ग चुनकर आये और अपने दृष्टिकोण से लक्ष्य तय किये तो सुरक्षा की चूक जैसी कोई गंभीर बात नहीं मानी जा सकती । लाहौर में सुरक्षा एजेंसियों का लक्ष्य एक ही था कि किसी तरह श्रीलंका की क्रिकेट टीम की रक्षा करना। वह एक ही मार्ग से जाने वाली थी। उसके वाहन नियत थे। आशय यही था कि उसकी रक्षा के लिये कोई बड़ा दायरा नहीं था और उसके लिये बकायदा सुरक्षा कर्मी थे। ऐसे में पूरी दुनियां ही यह पूछेगी कि आखिर वह सुरक्षा व्यवस्था कहां थी। मुंबई के संबंध में कोई देश भारत से यह सवाल नहीं कर सकता क्योंकि सभी जानते हैं कि एक बृहद शहर की और एक क्रिकेट टीम की रक्षा में अंतर होता है।

पाकिस्तान अपनी बचकाना बातों से दुनियां को अब बरगला नहीं सकता। 12 लोग 15 मिनट तक बिना किसी प्रतिरोध के उस स्थान पर गोलीबारी करते हैं जिसकी सुरक्षा के लिये घोषित प्रयास किये गये हैं। पाकिस्तान ने अपने मित्र श्रीलंका को इस बात के लिये आश्वस्त किया होगा कि वह उसके खिलाडि़यों का बाल बांका भी नहीं होने देगा। जहां तक क्रिकेट टीमों की सुरक्षा की बात है तो वह एशियाई देशों में इस कदर की जाती है कि बंदूक लेकर तो दूर उसके खिलाडि़यों तक आटोग्राफ लेने वाले प्रशंसक भी नहीं पहुंच पाते। श्रीलंका की सरकार इस समय जरूर अपने आपको शर्मनाक स्थिति में अनुभव कर रही होगी क्योंकि भारत का दौरा टलने से पाकिस्तान के कंगाल हो रहे क्रिकेट बोर्ड को बचाने के लिये उसने कथित मैत्री निभाने के लिये वहां का दौरा करने का निश्चय किया। श्रीलंका के लोग जरूर वहां की सरकार से पाकिस्तान पर भरोसा करने की वजह पूछना चाहेंगे?

पाकिस्तान एक अव्यवस्थित देश हो चुका है। उसके पांच पुलिस कर्मियों की लाशें सड़कों पर बिछाकर जिस तरह 12 आंतकी उस बस पर 12 मिनट तक गोलीबार करते रहे जिसमें श्रीलंका क्रिकेट टीम के सदस्य सवार थे। ऐसा लग रहा था कि जैसे किसी फिल्म की शुटिंग चल रही है। एक भी अपराधी न तो मारा गया न ही पकड़ा गया। वहां मुठभेड़ नहीं हुई बस हमला होता रहा। पाकिस्तान का सभ्रांत समाज भी अपना विवेक खोता जा रहा है क्योंकि जिस तरह बिना किसी प्रमाण के भारत पर वहां की सरकार आरोप लगा रही है उस पर उसका यकीन करना यही दर्शाता है। एक बात याद रखने की है कि भारत ने पूरी तरह से मुंबई हमले के प्रमाण जुटाये और फिर पाकिस्तान को कटघरे में खड़ा किया। दूनियां ने एसे ही यकीन नहीं किया। अमेरिका की एफ.बी.आई. ने कसाब के अलावा उस महिला से भी पूछताछ की जिसने आतंकियों को नाव से उतरते हुए देखा था। भारत की नीयत साफ थी इसलिये से नहीं रोका। एफ.बी.आई. लाहौर हमले की जांच में हाथ शायद ही डाले क्योंकि एक तो वहां कोई अमेरिकी नहीं मरा दूसरा जांच करने पर जब उसके सामने असफल पाकिस्तान का जो चित्र सामने आयेगा उसे वह दुनियां को नहीं बताना चाहेगी। अगर कोई पाकिस्तान में जाकर जांच करेगा तो उसका सबसे पहला सवाल तो यह होगा कि ‘आखिर वह सुरक्षा व्यवस्था कहां थी जो श्रीलंका की क्रिकेट टीम के लिये खासतौर से की गयी थी।’ हो सकता है कि इस जांच में सुरक्षा में लगे लोगों की शामिल होने की तस्वीर सामने आये। वैसे इस हमले के पीछे एक उद्देश्य तो मुंबई हमले की तस्वीर धुंधली करने का प्रयास ही लगता है। पाकिस्तान इस हमले को दिखाकर अपने आपको आतंक पीडि़त साबित करने का प्रयास जिस तरह कर रहा है उससे तो लगता है कि वहां की सेना ने यह अवसर अपने कुठपुतली सरकार को उपलब्ध कराया है। इसमें भी वह सफल नहीं होंगे क्योंकि मुंबई हमले का मामला इससे परिदृश्य में नहीं जा सकता क्योंकि उसमें 183 बेकसूर जानें गयीं थीं। लाहौर हमले में पाकिस्तान के पांच सुरक्षाकर्मी शहीद हुए पर उन पर शायद ही दुनियां इतना गौर करें। उल्टे लोग पूछेंगे कि बाकी लोग कहां थे? यकीनन पाकिस्तान के रणनीतिकारों के पास इसका कोई जवाब नहीं होगा। एक-दो दिन में इस घटना की चर्चा थम जायेगी और फिर पाकिस्तान को मुंबई हमले के मामले का सामना करना ही होगा।
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Tuesday, March 03, 2009

लाहौर में श्रीलंका की क्रिकेट टीम पर हमला चिंताजनक-आलेख

पाकिस्तान के लाहौर में श्री लंका क्रिकेट टीम पर हुए हमले को एक सामान्य घटना मानना ठीक नहीं है। इतिहास में बहुत सारी घटनायें दर्ज होती हैं पर अपनी विशिष्टता के कारण कुछ को अधिक सुना जाता है। किसी देश की राष्ट्रीय खेल टीम पर किया गया यह दूसरा हमला है। शायद बहुत कम लोगोें को याद होगा कि म्यूनिख ओलंपिक में इजरायल फुटबाल टीम में सात सदस्यों की हत्या पहले हो चुकी है। वह भी एक आतंकवादी हमला था और उस समय लोगों ने इस बात की कल्पना तक नहीं की थी कि आगे चलकर यही आतंकवाद विश्व में इतना भयावह रूप में सामने आयेगा।

वैसे तो पाकिस्तान पर अक्सर आतंकवादी घटना होती हैं पर इस घटना को उनके क्रम में मानना आतंकवादियों द्वारा दिये गये भविष्य के संकेत को अनदेखा करना होगा। आस्ट्रेलिया ने तो पहले ही पाकिस्तान जाने से इंकार कर दिया था। पाकिस्तान में आतंकवाद होने के बावजूद भारतीय टीम वहां जा चुकी है और उसका दौरा शांति से संपन्न हो गया। उसके बाद फिर कुछ टीमें वहां खेलने गयी जिनमें इंग्लैंड भी शामिल था। कुल मिलाकर अभी तक क्रिकेट खेल अभी तक आतंकवादी हमलों से बचा हुआ था।
अखबारों में अक्सर इसको लेकर अनेक प्रकार के तर्क दिये जाते रहे हैं। पहला तो यह है कि पाकिस्तान की सरकारी संस्थाओं द्वारा ही आतंकवादियों को प्रशिक्षण दिया जाता है और इसलिये वह क्रिकेट की सुरक्षा पर सरकार की गंभीरता के कारण उस पर हमला नहीं करते। दूसरे कुछ तर्क देने वाले तो यह भी तर्क देते हैं कि क्रिकेट से जुड़े कुछ पाकिस्तानी तत्व आतंकियों के आर्थिक संरक्षक भी हैं इसलिये वह ‘जिस थाली में खाते हैं उसमें छेद नहीं करने‘ की नीति के तहत क्रिकेट मैचों पर हमला नहीं करते।

लाहौर में श्रीलंका क्रिकेट टीम पर हुए हमले से दो ही निष्कर्ष निकलते हैं कि एक तो यह कि आंतकवादियों को प्रशिक्षित किसी ने भी किया हो पर वह उनके नियंत्रण से बाहर हो रहे हैं। दूसरा यह कि कुछ नये आतंकी गुट अपना वर्चस्व स्थापित कर अपने लिये धन संग्रह के लिये ऐसी घटनायें कर अपना धंधा जमाना चाहते हैं। इन सबसे अलग एक निष्कर्ष यह भी है कि पाकिस्तान की सेना ही इन आतंकवादियों की माई बाप है और अब देश में लोकतंत्र स्थापित होना उसे रास नहीं आ रहा इसलिये वह पाकिस्तान के आका मुल्कों को यह संदेश भेज रही है कि उसके बिना पाकिस्तान बच नहीं सकता। भारत के कुछ लोगों का यह मानना ठीक है कि यह आतंकवाद पाकिस्तान की ही उपज है। इस तर्क में सच्चाई का एक कारण यह भी है कि जब पाकिस्तान में मुशर्रफ का शासन था तब लाहौर मेंं तनाव होने के बावजूद भारत ने वह एकदिवसीय मैच खेला और वह शांति से संपन्न हो गया। मतलब सेना अगर गंभीर हो तो वहां इस तरह के हमले नहीं होते। सेना का शासन जब तक था तब तालिबान ने कहीं सिर नहीं उठाया फिर अचानक ऐसा क्या हो गया कि स्वात घाटी के बाद अब उनके कराची पर संभावित कब्जे की बात हो रही है। स्पष्टतः सेना उतावली में है वह नहीं चाहती कि पाकिस्तान में लोकतंत्र फलेफूले। अनेक तरह के दावों के बावजूद यह सच्चाई है कि पाकिस्तान की सेना आज भी आतंकवादियों को प्रशिक्षण दे रही है। अनेक देश यह जानते हुए भी पाकिस्तान को आर्थिक मदद दे रहे हैं कि उस पैसे से आतंकवाद को ही सहारा मिल रहा है। इस समय पाकिस्तान के कुछ मित्र देश वहां के नकली लोकतंत्र पर प्रसन्न हैं यह जानते हुए भी वहां की सरकार सेना की बंधक हैं।

मुंबई हमले के बाद भारत ने पाकिस्तान का दौरा सुरक्षा कारणों से स्थगित कर दिया था। ऐसे में श्रीलंका ने उसके स्थान पर यह दौरा किया था। हालांकि खेलों में राजनीति नहीं होना चाहिये पर श्रीलंका का यह पाकिस्तान दौरा खेल के लिये कम राजनीति से अधिक प्रेरित था ताकि भारत को एक तरह से चिढ़ाया जा सके। इन मैचों के दौरान श्रीलंका के राजनीतिक नेताओं की उपस्थिति आखिर किस खेल प्रेम की प्रतीक है यह तो वही जाने पर यह तय है कि इसमें उनकी एक तरह से राजनीति थी। जैसा कि हम जानते हैं कि आतंकवाद को सभी राष्ट्र अपनी सुविधा के अनुसार भला और बुरा मानते हैं और इसी कारण वह खत्म होने की बजाय बढ़ रहा है। आतंकवाद की मार को भारत से भी पहले झेल रहा श्रीलंका मुंबई हमले के बाद भारतीय क्रिकेट टीम के न जाने के फैसले का मजाक उड़ाते हुए वहां अपनी टीम भेजने के लिये तैयार हो गया। मतलब यह कि लिट्टे आतंकवादी संगठन है पर पूरा का पूरा देश पाकिस्तान ही आतंकवादियों का गढ़ है उसे मुंबई हमले पर सजा देने की बजाय श्रीलंका अपनी क्रिकेट टीम भेजने के लिये इसलिये तैयार हो गया क्योंकि मुंबई पर हमला करने वाले आतंकवादी उसके शत्रु नहीं थे। इस तरह की नीति विश्व में आतंकवाद को प्रोत्साहित करती है इसे जिम्मेदार लोग नहीं समझते।

जिस तरह लाहौर हमले के फुटेज टीवी पर दिख रहे हैं उससे तो यही लगता है कि आतंकवादी बड़े आराम से हमले कर रहे थे। सभी सुरक्षित निकल गये और यह चीज संदेह पैदा करती है कि पाकिस्तान के सुरक्षाबलों के कौशल या नीयत में से किसी एक या दोनों की कमी है। टीवी पर यह भी बताया कि जिस चैक पर हमला हुआ वहां हमेशा सुरक्षाबल रहते थे पर हमले वाले दिन वह दिखाई नहीं दिये। अब आगे इस जांच में क्या आयेगा यह कहना कठिन है पर पाकिस्तान शक की सुई भारत की तरफ घुमाने का पूरा प्रयास करेगा। जिस तरह कसाब मामले में उसने बयान बार बार बदले उससे तो यही लगता है कि वहां के नेता चाहे जो भी कह सकते हैं भले ही उसका सिर पैर न हो।

बहरहाल पाकिस्तान का अस्तित्व लगभग खत्म ही हो गया है पर उसकी आधिकारिक पुष्टि अभी संभव नहीं है। इस तरह हिंसा का खेल वहां अब आसानी से थमेगा लगता नहीं है। वैसे कुछ लोगों मजाक में कहते हैं कि पाकिस्तानी सैनिकों और तालिबानों में कोई अधिक अंतर नहीं है क्योंकि दोनों का प्रशिक्षण स्थल तो एक ही होता है। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि पाकिस्तान में तो बस सैनिक अफसर है और बाकी उन्होंने अपने नीचे ऐसे लोगों को नियुक्त कर रखा है जिनको चाहे जब सैनिक के रूप में या आतंकवादी के रूप में उपयोग कर सकें। भारतीय टीवी चैनल द्वारा ही एक टीवी चैनल के उस प्रश्न की जानकारी दी गयी है जिसमें हमला किये गये चैक पर प्रतिदिन सुरक्षा बलों की गश्त हमले वाले दिन न रहने का जिक्र किया गया है। इसका तो एक ही जवाब दिया जा सकता है कि उस दिन शायद उन्होंने अपना कार्य और वर्दी बदली थी इसलिये शायद वह वैसे नहीं दिखे जैसे दिखना चाहिये पर तो वह वहीं मौजूद थे इसलिये लोग पहचान नहीं पाये। अपना काम खत्म कर फिर वह अपनी पुरानी जगह पर आ गये होंगे। जिस तरह हमला कर आतंकवादी फरार हो गये उससे पाकिस्तान की सरकार संस्थाओं पर ही शक की उंगली उठेगी इसमें संदेह नहीं है।

श्रीलंका क्रिकेट टीम के सभी खिलाड़ी सुरक्षित बच गये यह अच्छी बात है। वह शीघ्र स्वस्थ हों यह हमारी कामना है। खिलाडि़यों पर हमला करना निंदनीय घटना है पर आतंकवादियों को इससे क्या फर्क पड़ता है? सच बात तो यह है कि सभी देश आतंकवाद को एक स्वर में अपना दुश्मन नहीं मानेंगे तब तक वह अस्तित्व में रहेगा।
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Sunday, March 01, 2009

धर्मात्मा होने का प्रमाण पत्र-हास्य व्यंग्य कविताएँ

रोगियों के लिये निशुल्क चिकित्सा शिविर
बहुत प्रचार कर उन्होंने लगाया
पंजीयन के लिये बस
पचास रुपये का नियम बनाया
खूब आये मरीज
इलाज में बाजार से खरीदने के लिये
एक पर्चा सभी डाक्टर ने थमाया
इस तरह अपने लिये उन्होंने
अपने धर्मात्मा होने का प्रमाण पत्र जुटाया
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ऊपर कमाई करने वालों ने
अपने लेने और देने के दामों को बढ़ाया
इसलिये भ्रष्टाचार विरोधी
पखवाड़े में कोई मामला सामने नहंीं आया
धर्मात्मा हो गये हैं सभी जगह
लोगों ने अपने को समझाया

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