Sunday, April 26, 2009

हादसे और रहबर-तीन व्यंग्य कवितायें


सुनकर कहीं भी आग लगने की खबर
तैयार हो जाते हैं रहबर
साथ में ले जाते हैं
छपे बयानों का पुलिंदा
देखते हैं पहले कितने मरे कितने बचे जिंदा
फिर करते हैं अपनी बात
पानी की बोतल भी चलते हैं साथ लिए।
आग बुझाने के मतलब से नहीं
बल्कि गले की प्यास बुझाने के लिए।
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कहीं भी हो हादसा
वह पकडते हैं वही रास्ता
प्रचार में चमकने के अलावा
उनका कोई दूसरा नहीं होता वास्ता।
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यह इंसानी फितरत ही है कि
हादसों में भी जाति और धर्म ढूंढने लगे हैं।
रहबरों ने भी तय कर लिया है
वह इधर जायेंगे, उधर नहीं
जहां आसार हो दौलत और शौहरत मिलने
वहीं बांटते और बेचते हैं हमदर्दी
कौन कहता है कि रहबर जगे हैं।

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Thursday, April 23, 2009

हवा की पहचान-हिंदी शायरी

रेत से भरा हो या पानी से

सागर में लहरें उठाये बगैर

हवा कहर नहीं बरपा सकती.

न जलते होते जिंदगी के चिराग

तो उनको बुझाकर

बिखेरते हुए अँधेरा

अपनी ताकत कैसे दिखाती

नहीं तपता सूरज तो

पानी आकाश से कैसे बरसाती

जिंदगी की सांसों को बहाती हैं इसलिए हवा

कि पत्थरों के आसरे वह

अपनी पहचान बना नहीं सकती..

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Wednesday, April 15, 2009

नकल युग में भी ईमानदारी-हास्य व्यंग्य क्षणिकायें

हम खड़े हैं जहां
छू रहा है चारों तरफ से
डीजल और पेट्रोल का धुआं।
कोई बात नहीं
सब चलता है
यह भी चलेगा
गर्व करो इस पर
आखिर है यह विकास का कुआं।
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उसने नकली घी दिया
इसने नकली नोट दिया।
इस तरह नकल के युग में भी
ईमानदारी को जिंदा किया।
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अपनी बूढ़ी मां को
गंभीर हालत में चिकित्सक के पास
ले जाते हुए उन्होंने अपने बेटे से कहा
‘बेटा! अब तो तुम्हारी दादी का
समय आ गया लगता है।
अपनी मां और बहिन के साथ
तुम भी घर का ध्यान रखना
किस्मत ही जिद्द पर अड़ी हो तो
अलग बात है
वरना तो डाक्टर के नर्सिंग होम में
दाखिले का पर्चा ही
श्मशान में दाखिले के टिकट की तरह लगता है।’

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Friday, April 10, 2009

हरी दूब पर जो पांव चलते, रेत पर बुरी तरह जलते-हिन्दी शायरी

हरियाली के कायदे कभी
रेगिस्तान में नहीं चलते।
हरी दूब में चलते हों जो पांव
रेत की धरती पर बुरी तरह जलते।

जमीन के अपने है कायदे
पर इंसान ने अपने उसूल नये बना लिये
आसमान में देखता है फरिश्ते
अपनी अक्ल के चिराग बुझा दिये
हरियाली में मिलते हैं हाथी
कहां मिलेंगे वह रेत के समंदर में
जहां रेगिस्तान के जहाज ऊंट पलते।

इठलाते हैं वह पहाड़
जिनको साथ हिमालय का मिला है
वह हरियाली और जल के स्त्रोतों में नहाते
बसंत और वर्षा में खुशी के गीत गाते
सूखी धरती पर रेत के ढेरों को
नहीं नसीब पानी की बूंद
फिर भी उनको न शिकवा न गिला है
अपने हालातों में सभी यूं ही ढलते।

पर इंसानों को चैन नहीं
रेतीली जमीन पर हरियाली
और पेड़ पौद्यों से सजी धरती पर
रेगिस्तान के कायदे चलाने के लिये
करता है लड़ाई
ताकि हो उसकी बड़ाई
अपनी ताकत दिखाने के लिये उनके दिल मचलते।

इस धरती पर बदलाव की
धारा लाकर अपने इंसान होने का
सबूत देने के लिये
अपने दिमाग घमंड से सिल दिये
इंसान को मिली है अक्ल
दिखाये उसकी ताकत उसे चैन नहीं आता
मिसाल जमती हो या नहीं
हर कोई एक दूसरे पर थोप कर इतराता
रेगिस्तान में पीपल का पेड़ नहीं बो सकता
इसलिये हरियाली में खुजूर का पेड़ लगाता
तेल से कर रहा है अपनी दुनियां रौशन
जानता है कि पानी के बिना जिंदगी नहीं हेाती
फिर भी उसकी परवाह नहीं
जमीन के हर हिस्से के
अपने होते अलग कायदे
जिन पर चलकर ही होते हैं फायदे
पर उधार की अक्ल पर चलने वाले
इंसानों में अकड़ बहुत है
ला नहीं सकते जो अपने घर में अमन
सह नहीं पाते खामोश चमन
इसलिये उसे उजाड़ने के लिये
बना लेते हैं अपने कायदे
लड़ते हैं उनका नाम लेकर जंग
जिसमें शहर और घर जलते हैं।

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Monday, April 06, 2009

भीड़ जो टुकड़ा टुकड़ा हो गयी है-हिंदी शायरी

खो गया था अनमना होकर
वह कहीं भीड़ में
अब होश आया तो
अपनी असलियत ढूंढ रहा है
जो टुकड़ा टुकड़ा हो गयी है।
चारों तरफ नरमुंडों के
झुंड के बीच वह खड़ा
फिर भी अकेलेपन का अहसास उसे सताता है
इस भीड़ का घर छोड़ा
दूसरी भीड़ के दरवाजे से नाता जोड़ा
फिर भी नहीं ढूंढ पाया अपना अक्स
वह शख्स!
लोगों के झुंड का बाहर से एकजुट होने भ्रम था
वह भीड़ अंदर टुकड़ा टुकड़ा हो गयी है।

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Saturday, April 04, 2009

काल्पनिक विषयों पर तो खुली बहस हो सकती है-आलेख

बहस होना जरूरी है क्योंकि किसी भी सामाजिक,आर्थिक और धार्मिक विषय पर प्रस्तुत निष्कर्ष अंतिम नहीं होता। दूसरे निष्कर्ष की संभावना तभी बनती है जब उस पर कोई बहस हो। बस इसमें एक पैंच फंसता है कि आखिर यह बहस किन लोगों के बीच होना चाहिये और किनके साथ करना चाहिये। सच बात तो यह है कि बहस से बचना संकीर्ण मानसिकता का प्रमाण है। साामजिक, अर्थिक और धार्मिक समूहों के ठेकेदार बहसों से इसलिये बचना चाहते हैं क्योंकि इससे उनके वैचारिक ढांचे की पोल खुलने और उससे उनके अनुयायियों के छिटकने का भय व्याप्त हो जाता है तो अनुयायी इसलिये बिदकते हैं क्योंकि उनको अपने ठेकेदारों के बहस में परास्त होने से कमजोर पड़ने पर जो उनसे सुरक्षा मिलने का जो भाव बना हुआ है वह समाप्त होने की आशंका हो जाती है-जिसे ‘सामाजिक सुरक्षा’ भी कहा जा सकता है जिसके होने का भ्रम हर व्यक्ति में यह ठेकेदार बनाये रखते हैं।

इंटरनेट पर भटकते हुए ही कुछ ब्लाग के पाठों पर दृष्टि गयी। एक पर फिल्म को लेकर बहस थी तो दूसरे पर किसी धर्म विशेष पर चर्चा करते हुए टिप्पणियां भी बहुत लिखी हुई थी। फिल्म वाले विषय वाला ब्लाग हिंदी में था और धर्म वाला अंग्रेजी में। जिस तरह की बहस धर्म वाले विषय पर थी वैसी हिंदी में संभव नहीं है और जिस तरह की हिंदी वाले ब्लाग पर थी वैसी सतही बहस अंग्रेजी वाले नहीं करते। दरअसल भारतीय समाज में असहिष्णुता का जो भाव है उसे देखते हुए धार्मिक विषय पर बहस करना खतरनाक भी है और इसलिये लोग फिल्मों के काल्पनिक विषयों पर ही बहस करते हैं-अब वह स्लमडाग हो या गुलाल या कोई अन्य।

भारतीय समाज की असहिष्णुता की रक्षा के लिये आस्था और विचारों की रक्षा के लिये अनेक तरह के नियम बनाये गये हैं। किसी धर्म, जाति,भाषा या क्षेत्र के नाम वैचारिक आपत्तियां उठाना एक तरह से प्रतिबंधित है। आप यहां झूठी प्रशंसा करते जाईये तो समदर्शी भाव के लिये आपको भी प्रशंसा मिलती रहेगी। बहरहाल अंग्रेजी ब्लाग का विषय था कि ‘यूरोप को किस तरह किसी धर्म ने बचाया’। इस अंग्रेजी ब्लाग को एक हिंदी ब्लाग लेखक ने अपने पाठ में प्रस्तुत करते हुए यह मत व्यक्त किया कि किस तरह अंग्रेजी में जोरदार बहस होती है। उन्होंने इस तरह की बहस हिंदी ब्लाग जगत में न होने पर निराशा भी जताई। उनको टिप्पणीकारों ने भी जवाब दिया कि किस तरह हिंदी में पाठक और लेखक कम हैं और यह भी कि हिंदी के ब्लाग लेखक भी कम प्रतिभाशाली नहीं है आदि। मुद्दा हिंदी और अंग्रेजी ब्लाग की पाठक और लेखकों की संख्या नहीं है बल्कि एक इस आधुनिक समय में भी बहस से बचने की समाज प्रवृत्ति है जिस पर विचार किया जाना चाहिये। इसके चलते हमारे समाज के सहिष्णु होने का दावा खोखला लगता है।

एक तरफ हम कहते है कि हमारा समाज सहिष्णु हैं और वह बाहर से आये विचारों, परंपराओं और शिक्षा को अपने यहां समाहित कर लेता है। एक तरह से वह स्वतः प्रगतिशील है और उसे किसी प्रकार के सहारे की आवश्यकता नहीं है दूसरी ओर हम लोगों की आस्था और विश्वास पर बहस इसलिये नहीं होने देते कि इससे उनको मानने वालों की भावनायें आहत होंगी। अब सवाल यह है कि धर्म,जाति,भाषा और व्यक्तियों के नाम पर जो विचारधारायें हैं वह स्वतः ही भ्रामक अवधाराणाओं पर आधारित हों तो उस टीक टिप्पणी करें कौन? जो उनको मानने वाले समूह हैं उसके सदस्य तो कूंऐं की मैंढक की तरह उन्हीं विचारों के इर्द गिर्द घूमना चाहते हैं-यह उनकी खुशी कहें या समाज में बने रहने की मजबूरी यह अलग से चर्चा का विषय है। दूसरा कोई टिप्पणी करे तो उसके विरुद्ध समूहों के ठेकेदार आस्था और विश्वास को चोट पहुंचाने का आरोप लगाकर उसके पीछे पड़ जाते हैं। इसका आशय यह है कि उन समूहों में बदलाव लाना प्रतिबंधित है। इसलिये बहस नहीं हो पाती। उसे रोका जाता है। इसके बावजूद भारतीय विचारधारायें बहुत उदार रही हैं। उन पर बहस होती है पर उसमें भी बहुत भ्रम है। धर्म और अध्यात्म ज्ञान को मिलाने की वजह से यह कहना कठिन हो जाता है कि हम अपनी बात किसके समर्थन में रखें। देखा जाये तो इस विश्व में जितनी भी धार्मिक विचारधारायें उनमें चमत्कारेां की प्रधानता है और इसलिये लोग यकीन करते हैं। इन यकीन करने वालों में दो तरह के होते हैं। एक तो वह लोग होते हैं जिनकी सोच यह होती है कि ‘ऐसा हो सकता है कि वह चमत्कार हुआ हो‘। दूसरों की सोच यह होती है कि ‘अगर कहीं उन चमत्कारों पर कहीं शक जताया या प्रश्न उठाया तो हो सकता है कि समाज उनको नास्तिक समझ कर उसके प्रति आक्रामक रुख न अपना ले इसलिये हां जी हा ंजी कहना इसी गांव में रहना की नीति पर चलते रहो। यानि भय ही चमत्कारों से बनी इन धार्मिक विचाराधाराओं का संवाहक है और उनको मानने वाले अनुयायी भी उसी भय के सहारे उनको प्रवाहमान बनाये रखना चाहते हैं।

ऐसे में जो लोग धार्मिक विषयों पर बहस चाहते हैं उनको इस देश में ऐसी किसी बहस की आशा नहीं करना चाहिये-खासतौर पर तब जब बाजार के लिये वह लाभ देने का काम करती हैं। ऐसे में कुछ लेखक हैं जो व्यंजना विधा में लिखते हों या फिर बिना किसी जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्र का नाम लिये अपने विचार रखते हैं। हालांकि ऐसे में बहस किसी दिशा में जाती नहीं लगती पर विचारों की गति बनाये रखने के लिये ऐसा करना आवश्यक भी लगता है।

ऐसे में बहस करने वाले विशारद भी क्या करें? वह फिल्मों के विषयों पर ही बहस करने लगते हैं। भारत इतना बड़ा देश है पर उसमें किसी क्षेत्र विशेष पर बनी फिल्म को पूरे देश की कहानी मान लिया जाता है। इस देश में इतनी विविधता है कि हर पांच कोस पर भाषा बदलती है तो हर एक कोस पर पानी का स्वाद बदल जाता है इसलिये कोई जगह की कहानी दूसरी जगह का प्रतीक नहीं मानी जा सकी। मगर फिर भी लोग है कि बहस करते हैं। इसमें कोई दोष नहीं है क्योंकि बहस ही लोगों की जींवत और सहिष्णुता की भावना का प्रतीक होती है। अभी स्लम डाग पर एकदम निरर्थक बहस देखी गयी। एक बड़े शहर की किसी झुग्गी की काल्पनिक कहानी-जिसमें काल्पनिक करोड़पति दिखाया गया है-देश के किसी अन्य भाग का प्रतीक नहीं हो सकती। मगर इस पर बहस हुई। बाजार ने इसे खूब भुनाया। प्रचार माध्यमों ने अधिकतर समय और हिस्सा इस पर खर्च कर अपनी निरंतरता बनाये रखी। अब कोई गुलाल नाम की फिल्म है। कुछ लोग उस पर आपत्तियां जता रहे हें तो कुछ लोग उसकी प्रशंसा कर रहे हैं। इन पंक्तियों ने तो यह दोनों ही फिल्में नहीं देखी और न देखने का इरादा ही है क्योंकि उनमें क्या है यह इधर उधर पढ़कर जान लिया।

कहने का तात्पर्य यह है कि जिन वास्तविक विषयों पर बहस होना चाहिये उन पर आस्था और विश्वास के नाम पर ताला लगा दिया गया है। बुद्धिजीवियों को एक तरह चेतावनी दी जाती है कि वह किसी की भावनाओं से खिलवाड़ न करें। मध्यम श्रेणी के व्यवसायों में लगे बुद्धिजीवी जिनके पास न तो समाज को सुधारने की ताकत है और न ही वह उनके साथ है ऐसे में फिल्मों के विषयों पर ही बहस करते हैं। बुद्धिजीवियों को अपने मानसिक विलास के लिये कोई विषय तो चाहिये जिस पर चर्चा कर वह अपने ज्ञान का परीक्षण कर सकें। इसलिये वह ऐसे विवादास्पद विषयों पर लिखने और बोलने से बचते हैं जिससे उनको विरोध का सामना करना पड़े। जाति,धर्म,भाषा और क्षेत्रों के नाम पर बने समूहों की ताकत बहुत अधिक इसलिये है क्योंकि उनको धनपतियों का पूरा समर्थन प्राप्त है। यह केवल भारत मेें नहीं बल्कि पूरे विश्व में है। अंग्रेजों की फूट डालों और राज करो की नीति अब पूरे विश्व के ताकतवर लोगों की नीति बन गयी है। फिर भारत तो संवेदनशील देश है। ऐसे में यहां के बुद्धिजीवियों को फूंक फूंककर कदम रखने पड़ते हैं। ऐसे में काल्पनिक विषयों पर खुली बहस की जा सकती है और वास्तविक विषयों पर बिना नाम लिये ही अपनी बात कहना सुविधाजनक लगता है हालांकि विषय के निष्कर्ष किसी दिशा में नहीं जाते पर अपना मन तो हल्का हो ही जाता है।
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