Sunday, June 28, 2009

व्यवसायिक संवेदनायें-हिंदी आलेख

पश्चिम जगत में उसे एक पॉप गायक कलाकार के रूप में प्रसिद्ध हासिल थी। उसकी धुन और नृत्य पर लोग नाचते थे। उसके चाहने वाले भारत में भी थे पर इतने नहीं जितना कि प्रचार किया जाता रहा है। वह अंग्रेजी में गाता था जो कि यहां केवल दो प्रतिशत लोग जानते हैं-इसमें भी कितने लोग समझते हैं यह अलग बात है।
उसकी मौत पर भारतीय प्रचार माध्यम शोकाकुल हैं। हैरानी होती है यह देखकर कि मौत पर संवेदनायें प्रकट करना भी अब व्यवसाय हो गया है-पहले तो दिखावा भर था। जीवन का अंतिम सत्य मृत्यु है। हमारा अध्यात्मिक दर्शन कहता है कि देह का विनाश होता है पर आत्मा अमर है-यही आत्मा हम हैं। अतः जन्म पर प्रसन्नता और मरण पर शोक अज्ञानता का परिचायक है।
वह एक गायक कलाकार था और पश्चिम में उसने मनोरंजन के अलावा कोई अन्य कार्य नहीं किया। उसने पैसे कमाये और जीवन को भरपूर ढंग से जिया। भौतिक जीवन की जो सर्वोच्च सीमा होती है उसे उसने छू लिया। एक आम काले परिवार मे जन्मे उस कलाकार ने दौलत और शौहरत के उस शिखर पर जाकर झंडा फहराया जिसकी कल्पना कर लाखों युवक अपना जीवन बरबाद कर देते हैं। पश्चिम के व्यवसायिक प्रचार माध्यमों द्वारा व्यवसायिक संवेदनायें देना कोई बड़ी बात नहीं है पर भारत में एक तरह से पाठकों और दर्शकों के साथ जोर जबरदस्ती लगती है।
आज एक वाचनलय में अखबार पढ़ते हुए एक आदमी ने अखबार दिखाते हुए पूछा-‘यह कौन था।’
हमने कहा-‘गायक कलाकार था।’
उसने पूछा-‘भारत का था।’
हमने कहा-‘नहीं।’
उसने कहा-‘फिर यहां पर इतनी तवज्जो क्यों दे रहे हैं? क्या कोई दूसरी खबर नहीं है।’
हमने कहा-पता नहीं।
उसने कहा-‘टीवी पर भी यही आ रहा था। वह तो अंग्रेजी में गाता था। कितनों को समझ में आती है?’
उसके वार्तालाप से दूसरे लोग हमारी तरफ देखने लगे। हमने जगह बदल दी।
दरअसल अंग्रेजी आपके समझ में नहीं आये तो भी स्वीकार करने में कठिनाई होती है। हम तो शान से कहते हैं कि अंग्रेजी हमें नहीं आती इसलिये ही हिंदी ने हमारी खोपड़ी में पूरी जगह घेर ली है। कहना चाहिये कि अंग्रेजी को जगह बनाने का अवसर नहीं मिला इसलिये ही हिंदी ने यह सुअवसर प्राप्त किया। एक बार हमने प्रयास किया था कि अंग्रेजी का ज्ञान प्राप्त करें-इसके लिये एक शिक्षक के यहां केवल अंग्रेजी पढ़ने भी जाते थे-पर हिंदी ने जगह देने से इंकार कर दिया।
एक बार वह गायक कलाकर भारत भी आया था। स्टेडियम पर भारी भीड़ थी। लोग उसे सुनने आये थे या देखने कहा नहीं जा सकता-संभव है वह एक दूसरे को दिखाने आये हों कि उनको अंग्रेजी के गानों से कितना रस मिलता है। अंग्र्रेज चले गये पर अंग्रेजी अब भी गुलामी करा रही है। हालत यह है कि हिंदी प्रचार माध्यमों, फिल्मों और अन्य स्त्रोंतो से धन कमाने वाले अपने को अंग्रेजी का ज्ञानी साबित करते हैं। कई तो ऐसे हैं जिन्हें हिंदी ही नहीं आती बल्कि चेहरा उनका और सुर किसी अन्य का होता है।
हिंदी और अंग्रेजी का समान ज्ञान रखने वाले एक मित्र से हमने पूछा था कि-‘तुम अंग्रेजी में पढ़ते के साथ ही कार्यक्रम भी देखते हो। क्या बता सकते हो कि अंग्रेजी वापरने वाले कितने लोग उसका सही उपयोग करते हैं।’
उसने कहा कि चूंकि भाव समझ में आता है इसलिये हम ध्यान नहीं देते पर अंग्रेजी के हिसाब से गलतियां ढूंढने बैठोगे तो अधिकतर लोग गलतियां करते हैं।
शायद भारतीय प्रचार माध्यम नहीं चाहते कि वह विश्व की मुख्य धारा से कट जायें इसलिये ही वह विदेशी सरोकारों की खबरें जबरन प्रस्तुत करते हैं जिनके प्रति उनके 98 प्रतिशत उपभोक्ता उदासीनता का भाव अपनाये रहते हैं।
हमें उस गायक कलाकर के गायन, सुर और संगीत की समझ में नहीं थी। हमारी क्या इस देश के वह लोग ही नहीं जानते जो उसके प्रशंसक होने का दावा करत हैं कि उसने गाया क्या था? बस वह गाता और यहां लोग लहराते। 110 करोड़ के इसे देश में ऐसे बहुत कम लोग होंगे जो उसके दो चार गीत याद रखते होंगे। हमारे देश के गायक कलाकारों-किशाोर कुमार, महेंद्र कपूर, मुकेश, मोहम्मद रफी और मन्ना डे- ने अपने सुर से अमरत्व प्राप्त कर लिया। उन्होंने देह त्यागी पर वह आज भी लोगों के हृदय में कानों के माध्यम से जिंदा हैं। उनके गाये अनेक गााने बरबस ही मूंह में आते हैं।
उस पश्चिमी गायक कलाकार का जीवन वृतांत हमें बहुत भाता है और सच बात तो यह है कि वह अपने आप में एक जीवंत फिल्म था। उसकी मृत्यु पर हमें भी अफसोस है पर उसे व्यक्त करते हुए ऐसा लगता है जैसे कि ‘बेगानी मौत पर अब्दुल्ला गमगीन’। यह वाक्य हम वाचनालय में उस चर्चा करने के बाद उस आदमी से दूर जाते समय कहना चाहते थे पर वहां लोगों की नाराजगी देखकर खामोश रहे। किसी के साथ या हादसे होेने पर अफसोस होता है। ऐसे अवसर पर मृतक या पीड़ित के प्रतिकूल बात कहना हमारी संस्कृति के विरुद्ध है पर उनके और परिवार के साथ सहानुभूति या संवेदना जताने वालों की भाव भंगिमा और इरादे तो चर्चा का विषय बनते ही हैं। यही कारण है कि उस गायक कलाकार की मृत्यु से हमारे मन में कुछ देर अफसोस हुआ पर बाद में जिस तरह देश में उसकी प्रतिक्रिया इस तरह व्यक्त की गयी जैसे कि उसके साथ वाकई उनकी हमदर्दी है-इस दिखावे पर वाचनालय में उस आदमी से हुई बातचीत ने हमें अपने हिसाब से इसपर सोचने को मजबूर कर दिया।
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Wednesday, June 24, 2009

चुभोने के लिये कांटे ढूंढ रहे हैं-व्यंग्य कविता

तुम लड़ना कभी बंद न करना
रुक जायेगी कलम हमारी वरना।
भाषा के तूणीर में तुम शब्द तीर भरकर
कागजी द्वंद्व करते हुए नायक बनना।
बाहर दर्शक बनकर देखेंगे तुम्हारा द्वंद्व
तुम्हारी अदाओं पर करेंगे कभी रचना।।
संकोच की कोई बात नहीं है लड़ने में
हर हालत में गुस्सा अपने अंदर भरना।
दुनियां के सारी सोच बनी है जंग पर
हम तो हैं दर्शक, तुम महायोद्धा बनना।
कुछ लोग रोऐंगे तुम्हारे हाल पर
कुछ हंसेंगे, तुम कभी परवाह न करना।
तलवार युग गया, तुम कलम वैसे चलाओ
लिखो लड़ने की तरह, हमें तो है पढ़ना।।
सच यह है तुमसे ही समझे अमन के फायदे
बीत जाती द्वंद्वों में अपनी जिंदगी भी वरना।
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कुछ नहीं देखा
कुछ नहीं सुना
कुछ नहीं बोला
देखो कितना अमन है।
फंसे हैं जो द्वंद्वों में,
फूलों को लेकर
किसी को तोहफे में देने की बजाय
चुभोने के लिये कांटे ढूंढ रहे है
उनके लिये अस्त्रागार
और हमारे लिये विश्रामगृह यह चमन है।

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Monday, June 22, 2009

अपना ही बिकना छिपाते-त्रिपदम (hindi tripadam)

हिंसा सजी है
उनके शब्दों में
क्रांति दिखाते।

‘पूंजी’ के प्रेमी
‘पूंजीवाद के बैरी
भ्रांति फैलाते।

कहीं की जंग
उसका इतिहास
यहाँ बिछाते।

विचार युद्ध
जो जीता नहीं गया
यहां भी लाते।

बिना पति के ‘पूंजी’
सजकर नाचेगी
कैसे दिखाते।

गरीब श्रम
कभी आजाद होगा
बस नारे लगाते।

सच से परे
उनकी दुनियां है
उसे छिपाते।

पसीना पति
उनके खाली नारे
न सुन पाते।

क्रांति काफिले
आकाश में चलते
नीचे न आते।

पेट की भूख
रोटी से ही बुझती
वादे सताते।

खुले बाजार
अपना ही बिकना
वह छिपाते।

वाद व नारे
संसार में बजते
काम न आते

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Friday, June 19, 2009

जमाना खो बैठा है सोच की धार-व्यंग्य शायरी

बाजार में जो बिकता
वही सच्चा है प्यार ।
तस्वीरों में हमदर्द दिखता
वही गरीबों का सच्चा है यार।
नकद नारायण
दिन रात चौगुना होता रहे
वह नंबर एक का है व्यापार ।
हकीकतों और उसूलों से
कितना भी दूर हो आदमी
कोई फर्क नहीं पड़ता
रौशनी की चकाचौंध में
आंखों से देखता हुआ
जमाना खो बैठा है सोच की धार।
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जेठ की धूप में
जलते हुए उनका इंतजार करते रहे
उनके न आने पर
जमाने भर के ताने सहे।

फिर भी उनके दीदार नहीं हुए
बरसात की पहली फुहार भी
जलती आग सी लगी
कभी ख्वाब तो कभी हकीकत
लगती हैं उनकी यादें
इंतजार इतना लंबा होगा
यह कभी सोचना न था
जज्बातों की धारा में बस बहते रहे।

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Tuesday, June 16, 2009

हिंदी में लिखना उतना बुरा नहीं-संपादकीय

पाठ पठन/पाठक संख्या पचास हजार पार करने वाला ईपत्रिका इस लेखक का तीसरा ब्लाग/पत्रिका है। इसने हाल ही मैं गूगल के पैज रैंक में च ौथा स्थान प्राप्त किया-जो कि इसकी बहुत बड़ी उपलब्धि है। इसे लेखक के पचास हजार की पाठ पठन/पाठक संख्या पार करने वाले अब तीन ब्लाग हैं-
1. हिंदी पत्रिका
2.शब्द पत्रिका
3.ईपत्रिका
गूगल के पैज रैंक में चार अंक प्राप्त करने वाले अब चार ब्लाग/पत्रिका इस प्रकार हैं-
1. शब्दलेख सारथी
2. हिंदी पत्रिका
3. शब्दलेख पत्रिका
4. ईपत्रिका
आंकड़ों का खेल हमेशा ही दिलचस्प होता है। शब्द पत्रिका ने भी पचास हजार पाठ पठन/पाठक संख्या पार की है पर उसे गूगल की पैज रैंक में तीन अंक प्राप्त हैं जबकि शब्दलेख पत्रिका ने गूगल पैज रैंक में दस में से चार अंक प्राप्त किये हैं पर उसकी संख्या अभी पचास हजार से दूर है। गूगल का पैज रैंक किसी भी ब्लाग की लोकप्रियता को प्रमाणित करने वाला अकेला प्रमाणिक टूल है। हालांकि अन्य कुछ वेबसाईट भी ब्लाग की लोकप्रियता का आंकलन करती हैं पर अनेक ब्लाग लेखक मानते हैं कि उनके साफ्टवेयर अधिक प्रमाणिक नहीं है।
जब ब्लाग लेखन की यात्रा प्रारंभ की थी तब यह लेखक अकेला था पर अंतर्जाल पर बहुत सारे मित्र मिले और जो पहले ही मित्र थे वह अब पाठक भी हो गये हैं। वर्डप्रेस की पाठक संख्या पर वह हमेशा नजर लगाये रहते हैं और यह बताते हैं कि तुम्हारा वह ब्लाग आज पचास हजार पार सकता है। आज तो अच्छा संपादकीय लिखना। मना करने पर कहते हैं कि-नहीं, आजकल वह समय नहीं है कि चुपचाप बैठकर लिखते जाओ। लोगों को यह बताना जरूरी है कि हम भी है नंबर वन की दौड़ में।’
तब बरबस हंसी आती है। सच तो हम जानते हैं कि हिंदी में लेखन कभी आसान नहीं रहा। अपने काम की व्यसततओं से समय निकालकर लिखने में मजा आता है पर समस्या उसके प्रकाशन की आती है।
प्रसंगवश आज एक लेख पर नजर पड़ गयी। उस लेख में बताया गया कि अनेक लेखकों द्वारा अपना पैसा लगाकर पुस्तकें प्रकाशित कराने की प्रवृत्ति से अनेक प्रकाशक जमकर पैसा कमा रहे है।
उस लेख में कहा गया कि आज हिंदी के लेखक की वह छबि नहीं है कि वह रद्दी दिखता हो या गरीब हो। उस पाठ में लिखा गया था कि अनेक अप्रवासी भारतीय भारत आते हैं और अपने पैसे से किताब छपवाकर आकर्षक कार्यक्रम में उसका विमोचन करते हुए चले जाते हैं। उस पाठ के लेखक का मानना था कि ऐसी किताबों की विषय सामग्री कूड़ा हो यह जरूरी नहीं है। आखिर धनी मानी लोगों को भी लिखने का अधिकार है। उसने कुछ पुराने लेखकों के नाम भी गिनाये जो अमीर परिवारों से आये। इसलिये यह जरूरी नहीं कि हिंदी लेखक गरीब हो या जो गरीब है वही अच्छा लिख सकता है।
उस लेखक की बात ठीक थी पर कुछ सवाल हमारे सामने थे। जिन धनी मानी परिवारों में पैदा पुराने हिंदी लेखकों की उसने बात की उन्होंने अपने पैसे से किताब छपवाकर विमोचन नहीं किया। दूसरा यह है कि जो धनीमानी लोग किताबें छपवाते हैं उनमें होता क्या है? उनके जीवन के अनुभव जिनमें झूठ के अलावा कुछ भी नहीं होता। उनमें वह यह साबित करने का प्रयास किया जाता है वह वह धनी, उच्च पदस्थ और प्रसिद्ध होने के साथ संवेदनशील लेखक भी हैं। फिर सवाल यह नहीं है कि अमीर आदमी को लिखने या छपने का अधिकार नहीं हैं। हां, उनमें भी बहुत अच्छे लेखक हो सकते हैं। पर अनवरत चलने वाली बहस का निष्कर्ष यह है कि अपना पैसा खर्च किये बिना कोई लेखक प्रसिद्ध नहीं हो सकता। इसे हम यह भी कह सकते हैं कोई भी आदमी अपने लिखने के दम पर प्रसिद्ध नहीं हो सकता।
दूसरा यह है कि जो धनीमानी हैं उनका समय अधिकतर अपने व्यवसायों पर ही रहता है। समाज के उतार चढ़ाव में वह बहते हैं पर वह किस तरह आते हैं और इसके लिये कौनसी प्रवृत्तियां जिम्मेदार हैं यह देखने के पास उनके पास इतना समय नहीं होता जितना अल्प धनिक के पास रहता है। अल्प धनिक के पास ही वह समय होता है कि वह जमीन पर चलते हुए अनेक यथार्थ घटनाओं को एक स्वपनदृष्टा की तरह प्रस्तुत करता है। मुख्य बात यह है कि हिंदी में लिखने की बात आज वही सोच सकता है जिसके पास अपने रोजगार का कोई साधन हो। इससे रोटी पाने की कोई आशा नहीं कर सकता। हिंदी भाषी समाज की यह प्रवृत्ति है कि वह शुद्ध लेखक को पाल नहीं सकता।
ऐसे में यह अंतर्जाल ही एक आशा की किरण है। उसमें भी शर्त यही है कि इंटरनेट कनेक्शन व्यय करने की शक्ति होना चाहिए। इस लेखक ने लिखना तब शुरु किया था जब वह कमाने की सोच भी नहीं सकता था। जीवन संघर्ष के दौरान लिखते हुए कभी यह नहीं लगा कि उसक सहारे धन या प्रतिष्ठा मिलेगी। बस, एक आनंद आता है। इंटरनेट कनेक्शन लेते समय यह विचार भी था कि जब अवसर मिलेगा अपनी रचनायें प्रतिष्ठत समाचार पत्रों में भेज दिया जायेगा। कुछ समय बाद अध्ययन किया तो इस बात का आभास हो गया कि हर क्षेत्र में शिखर पर बैठे लोग कंप्यूटर पर काम करने से इसलिये कतराते हैं क्योंकि उनको लगता है कि यह काम टाईपिस्ट या लिपिक’ का है। इंटरनेट से भेजी गयी रचनाओं का भी वही हाल रहा जो डाक से भेजी गयी रचनाओं का था। ऐसे में स्वतंत्र लेखन के लिये ब्लाग मिला तो लिखना शुरु किया। इस लेखक की कवितायें, व्यंग्य, आलेख और कहानियां अच्छी है या बुरी इस स्वयं कभी नहीं सोचता। लिखते समय इस बात का ध्यान रहता है कि उसका सामाजिक सरोकार और संबंध जरूर होना चाहिये। अपनी कहानी लिखना आसान है पर वह तभी प्रभावी होती है जब उसकी प्रस्तुति ऐसी होना चाहिये कि वह सभी को अपनी लगे।
इधर इंटरनेट पर अच्छे लेखक भी आ गये हैं। उनका पढ़कर आनंद आता है और उनसे भी लिखने की प्रेरणा मिलती है। सच बात तो यह है कि कई ऐसे स्तरीय पाठ भी सामने आये जो व्यवसायिक पत्र पत्रिकाओं में नहीं दिखते। साहित्य, फिल्म, व्यापार, कला तथा प्रचार माध्यमों में एक परंपरागत ढांचा है जो परिवार, जाति, भाषा और धर्म में ही अपने रचनाकार तथा पात्र ढूंढता है। नयी व्यवस्था के आने की आशंका से यथास्थितिवादी खौफ खाते हैं और इसलिये वह ऐसी योजना बनाते हैं कि वह बदलाव आये ही नहीं और आये तो उसमें उसके मोहरे ही फिट हों। इसका पता तो पहले से ही था पर अंतर्जाल लिखते हुए इसका आभास अच्छी तरह होता जा रहा है।
एक ब्लाग मित्र-उसकी और इस लेखक की मित्रता ब्लाग लिखने के पहले से ही है- से उसी दिन बात हो रही थी। उसकी इंटरनेट पर अनेक ब्लाग लेखकों से चर्चा भी होती है। उसने कहा-’‘वह लोग तुम्हें पंसद करें या नहीं पर जानते सभी हैं। यह तय बात है। वह लोग कहते हैं कि ‘उसके कुछ ब्लाग बहुत अच्छे हैं और कुछ ऐसे ही हैं। मतलब यह कि तुम्हारी पहचान है और इसे कोई मिटा नहीं सकता। सबसे बड़ी बात यह है कि मुझे भी तुम्हारा वह ब्लाग पसंद हैं जो सभी की पसंद है।’
इशारा समझ में आया। मगर यह यात्रा बहुत लंबी है। कोई जल्दी नहीं है। आशा से अधिक जिज्ञासा है कि देखें यथास्थितिवादी किस तरह बदलाव लाने के लिये जूझ रहे लेखकों के सामने प्रतिरोध कर रहे हैं। जाति, भाषा, धर्म, क्षेत्र और परिवार के दायरों से मुक्त रहने का संदेश वाले छद्म लोग वास्तव में यथास्थितिवादी है और बदलाव लाने वाले तो केवल अपने कर्म में लिप्त रहते हैं। इसमें एक दृष्टा की तरह शामिल होकर देखने का अलग ही मजा है। खुद मैदान में उतरने का अर्थ है अपने लिये अधिक से अधिक विरोधी बनाना। ऐसे अवसरों पर लिखने का केवल एक ही मतलब होता है कि जिन लोगों की हिंदी ब्लाग का विश्लेषण करने वाले ब्लाग लेखकों के लिये अगर कुछ हो तो वह समझ लें। पूर्व में ऐसे ही आलेखों का प्रभाव क्या हुआ है यह इस लेखक ने देखा है। ब्लाग लेखक मित्रों से जो पाया है उनको ही कुछ लौटाया जा सकता है तो वह इसी तरह ताकि वह अगर इससे कोई लाभ उठा सकें तो ठीक, नहीं भी तो पाठकों में यह प्रेरणा तो आ ही सकती है कि अंतर्जाल पर हिंदी में लिखना उतना बुरा नहीं है जितना लगता है।
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Sunday, June 14, 2009

छद्म मोहब्बत-हास्य व्यंग्य कविता (hasya kavita)

इंटरनेट पर लिखते लिखते
हो गया प्यार तो
आशिक ने माशुका से
उसकी उम्र पूछी
उसने सच सच कसम खाते हुए बता दी
वर्ष बत्तीस।
पढ़कर आशिक के मन में उठी टीस।
उसने लिखा अपनी माशुका को
‘तुम्हारा हमारा साथ अधिक नहीं चलेगा
यह इंटरनेट का खेल
तुम्हें नहीं सच के साथ नहीं जमेगा
मोहब्बत हो या नफरत का दौर
हमेशा ही छद्म रूप ही जंचेगा
तुमने अपनी असली उम्र बताई
समझ कम जताई
उम्र में तुमसे दस साल छोटा हूं
कोई फिल्म अभिनेता नहीं कि
इतना अंतर चल जायेगा
तुम अपने बड़ी उम्र का कोई
दूसरा साथी चुनना जो
अपनी उम्र दस साल कम बतायेगा
तुम भी दस साल छिपाना
जब छद्म मोहब्बत असल हो जाये
तक सच बताना
अपनी राय मुफ्त दे रहा हूं
इसकी नहीं लूंगा फीस।

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Sunday, June 07, 2009

ब्लाग कोई टीवी चैनल और अखबार नहीं है-आलेख

क्या यह जरूरी है कि किसी खास दिन होने पर अपने ब्लाग/पत्रिका पर उससे संबंध विषय पर लिखा जाये? कतई नहीं। आपने देखा होगा कि अखबार और टीवी चैनल अक्सर किसी खास दिन पर विशेष सामग्री प्रकाशित करते हैं। यह सामग्री ऐसी होती है जिसे हम अक्सर सुन और पढ़ चुके होते हैं। उसमें कोई नया चिंतन या विचार नहीं होता जिसे पहले सुना नहीं गया हो।
सभी जानते हैं कि हमारे यहां के प्रचार माध्यम से जुड़े लोग एक निश्चित ढांचे में काम करने के आदी हो चुके हैं। फिल्म, टीवी चैनल, और प्रकाशन संस्थान किसी नये अभिनेता, संपादक या चिंतक खोजने की बजाय अपने आसपास सक्रिय लोगों में ही ऐसे कार्यकर्ता तलाश करते हैं जो केवल उनके प्रदर्शन को नियमित रख सकें न कि उसमें कोई नयापन तलाश करें। यह कोई शिकायत नहीं है बल्कि अंतर्जाल पर पिछले ढाई वर्षों से लिखने पढ़ने से उपजा अनुभव है। यहां अनेक ब्लाग लेखक न बल्कि निर्धारित वैचारिक ढांचे से अलग हटकर अपने विचार लिख रहे हैं बल्कि उनकी भाषा-उसे आक्रामक भी कह सकते हैं और प्रहारात्मक भी-से यह पता लगता है कि उनके मन में जो विद्रोह है वह आम आदमी की वास्तविक अभिव्यक्ति है।
हम यहां ब्लाग की अन्य माध्यमों से तुलना करें तो ब्लाग पर लिखा गया विषय कभी पुराना नहीं पड़ता।
तात्पर्य यह है कि अगर किसी ब्लाग लेखक ने एक बार किसी त्यौहार, दिवस या अवसर पर एक बार अपनी विषय सामग्री लिख ली है और उस पर कोई अलग से सोच उसके पास नहीं है तो दोबारा उसे लिखने की जरूरत नहीं है। अगर लिखें तो फिर नये सोच के साथ लिखें। हां, अगर वह चाहे तो ब्लाग की प्रकाशन सुविधा का लाभ उठाते हुए प्रकाशन का दिन बदल कर वही दिन कर सकता हैै। इसके अलावा वह चाहे तो पुराने की वैसी की वैसी कापी कर दोबारा प्रकाशित कर सकता है ताकि हिंदी के ब्लाग दिखाये जाने वाले फोरमों पर वह दिख सके।
इस लेखक ने देखा है कि रामनवमी, गणेश चतुर्थी, दिवाली, होली, रक्षाबंधन, पर्यावरण दिवस पर ब्लाग पर लिखे गये लेख उस दिन वैसे ही पढ़े जाते हैं जैसे लिखने वाले दिन पढ़े गये थे। होता यह है कि खास विषयों पर पढ़ने की चाहत रखने वाले पाठक सर्च इंजिनों में अपनी पसंद के शब्द से उसे ढूंढ निकालते हैं-कई बार तो एक दिन पहले ही पाठक उसे पढ़ने लगते हैं। इस लेखक ने सभी खास दिन और अवसर पर एक दिन पूर्व अपने ब्लाग/पत्रिकाओं के पाठ पठन/पाठकों की गतिविधियों का अवलोकन करते हुए देखा है कि लोग उन विषयों पर पहले ही पढ़ना प्रारंभ करते हैं। सभी खास दिन और अवसर पर पढ़े जाते ऐसे पाठों को पढ़ा जाता देखकर फिर नया लिखने का मन नहीं होता। इतना ही नहीं कभी कभी तो ऐसा लगता है कि जितना अच्छा पहले उत्साह में लिख गये अब वैसा नहीं लिख पायेंगे। हालांकि कुछ विषय सदाबहार हैं जिनमें पर्यावरण और योग साधना शामिल हैं।
कुछ ब्लाग मित्र अपने पाठों पर ऐसी शिकायतें करने लगे हैं कि अमुक खास दिन कम लोगों ने लिखा या लोग अपनी संस्कृति और दायित्वों से बच रहे हैं। यह बात नहीं है। एक ब्लाग लेखक ने सन 2005 में दिपावाली पर-उस समय लिखने वाले दस या बीस से अधिक संख्या में नहीं रहे होंगे- एक पाठ लिखा था वह सर्च इंजिनों में नंबर एक पर पिछली दिपावली तक बना हुआ था। इस बार उसने उस विषय पर नहीं लिखा तो क्या हुआ उसका पाठ तो निरंतर पढ़ा गया। उस दिन उसका पाठ पढ़ते हुए इस लेखक ने इस बात का अनुभव किया कि अंतर्जाल पर लिखा गया कभी पुराना नहीं पड़ता। हम ब्लाग लेखक चूंकि हिंदी के ब्लाग एक जगह दिखाये जाने वाले फोरमों पर ही उनको पढ़ने के आदी हैं इसलिये ऐसा लगता है कि खास दिन या अवसर पर पढ़ने के लिये मिल जाये पर आम पाठक को शायद इसका आदी नहीं है। ब्लाग लेखकों के संतोष के लिये प्रकाशन का दिन बदल कर या फिर पुराने पाठ की कापी प्रस्तुत की जा सकती है पर आम पाठक को तो उस विषय पर आपका लिखा पढ़ने को वैसे ही मिल जायेगा।
उस पाठ को पढ़ने के बाद इस लेखक को लगा कि जब ब्लाग पर लिखें तो ऐसा लिखें जो सदाबहार हो। कहानी, कविता, निबंध या व्यंग्य लिखते हुए इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि वह पुराना न पड़े। सम सामयिक विषयों पर लिखें तो भी उस पर ऐसा लिखना चाहिये कि तीस वर्ष बाद भी लोग पढ़ें तो एतिहासिक पृष्ठभूमि से अधिक मतलब न होते हुए भी वैचारिक आधार पर वह लेखक या कवि के साथ खड़ा रह सके। टीवी चैनल और प्रकाशन संस्थान व्यवसायिक रूप से सक्षम होते हुए भी इस बात के लिये बाध्य हैं कि वह प्रतिदिन अपने कार्यक्रमों और पृष्ठों को नवीनता प्रदान करें जबकि ब्लाग लेखक आर्थिक और सामाजिक रूप से सामान्य होते हुए भी इस मामले में भाग्यशाली है कि उनका लिखा ‘सदाबहार’ रहेगा और नयापन लाने की बाध्यता से वह मुक्त हैं।
इसी असीमित संभावनाओं का विचार करते हुए लिखने वाले ही आनंद उठा सकते हैं। ब्लाग में हिट या फ्लाप का खेल एक दिन में समाप्त नहीं होने वाला। किसी एक पाठ को चारों फोरमों-नारद, चिट्ठाजगत, ब्लाग वाणी या हिंदी ब्लाग-पर एक ही पाठक ने पढ़ा पर यह निराशा वाली बात नहीं है क्योंकि वह आगे कितने लोगों द्वारा पढ़ा जायेगा इसका अंदाजा तो कोई नहीं लगा सकता। कुल मिलाकर ब्लाग लेखन की यह यात्रा आगे किन किन रूपों के दर्शन करायेगी यह कहना कठिन है पर इतना जरूर कहा जा सकता है कि इस पर वैसी मानसिकता के साथ काम नहीं किया जैसी कि अन्य प्रचार माध्यमों में होना जरूरी है। ब्लाग कोई टीवी चैनल या अखबार नहीं है जिसे रोज चमकाने की आवश्यकता या बाध्यता हो। हां, अपने नियमित पाठकों के लिये नित्य कुछ लिखना भी नहीं भूलना चाहिए क्योंकि वही आगे लिखने के लिये मनोबल बनाये रखने में सहायक होते हैं।
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Friday, June 05, 2009

समाज और खानदान-दो व्यंग्य क्षणिकायें

जिन कहानियों में हर पल
क्लेशी पात्र सजाये जाते
उसी पर बने नाटक
सामाजिक श्रेणी के कहलाते
सच है समाज के नाम पर
लोग भी खुशी कहां पाते।
....................
जिनकी बेइज्जती
सरेआम नहीं की जाती
बड़े खानदान की छबि उनकी बन जाती।
फिर भी बड़े खानदान पर
यकीन नहीं करना
उनकी बेईमानी भी
ईमानदारी की श्रेणी में आती।

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Tuesday, June 02, 2009

दूसरे के बदले से अपने को कैसे बचाओगे-हिंदी शायरी

आग लगी थी किसी दूसरे घर में
अंधेरा उन्होंने अपने यहां कर लिया।
हादसे की खबर के इंतजार में
गम के इजहार के लिए
पकड़े खड़े हैं हाथ में मोमबती और दिया।
मजमा देखने जाती भीड़ से
अपने घर के अंदर के नजारे
छिपाने की एक कोशिश भी थी यह
हमदर्दों में अपना नाम भी लिखा लिया।
.............................
दूसरे के घरों होती जंग
देखकर कब तक दिल बहलाओगे।
अपने यहां फैले खतरे को
अपने से कितना छिपाओगे।
अभी तो उछाल रहे हो
अपने लफ्ज पत्थर की तरह
पर जब फैलेगी बगावत तुम्हारे यहां
तब दूसरे के बदले से
अपने को कैसे बचाओगे।

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