Monday, September 28, 2009

ब्लागवाणी के बंद होने से परेशान न हों-आलेख (closing of blogvani-hindi lekh)

यह पुराने और फ्लाप हिंदी ब्लाग लेखक का पाठ है। यह स्पष्ट करना इसलिये जरूरी है क्योंकि यह पाठ अपने शीर्षक के कारण वह नये ब्लाग लेखक भी पढ़ सकते हैं जिन्होंने इसका नाम तक नहीं सुना हो-हालांकि वह ऐसा करेंगे इसकी आशा नहीं है क्योंकि हिट ब्लाग लेखकों को पढ़ने की आदत जो हो गयी है। ब्लागवाणी बंद हो गया है, इसका दुःख है क्योंकि उसे इस लेखक के दो ऐसे मित्र चला रहे थे जो उसे पसंद करते थे हालांकि ब्लागवाणी पर भले ही इसके पाठ को अधिक समर्थन न मिलता हो।
ब्लागवाणी दो यशस्वी ब्लाग लेखकों का सृजन है (अभी शुरु होने की संभावना है इसलिये था नहीं कर रहे)। इनमें एक तो धुरविरोधीजी नाम से ब्लाग चलाते रहे बाद में उसे बंद कर दिया। उनकी विदाई में दुःख भरे गीत भी गाये गये। हमें भी अफसोस हुआ पर हैरानी तब हुई जब एक ब्लाग मित्र ने प्रथम मुलाकात में ही बताया कि धुरविरोधीजी तो ब्लागवाणी के संचालक हैं। तब हमारा दुःख कम हुआ।
अब इस ब्लागवाणी के अभ्युदय की चर्चा कर लें। ब्लागवाणी का निर्माण तो पहले ही हो गया था पर नारद की वजह से उस पर ब्लाग लेखक कम ही जाते थे जैसे अभी चिट्ठाजगत पर कम जाते हैं। उस समय नारद पर भी पसंद को लेकर ऐसी धमाचैकड़ी मची हुई थी। उस समय धुरविरोधी की स्थिति भी कुछ ऐसी ही थी जैसे हमारे ब्लाग की ब्लागवाणी पर होती है-वहां हमारे पाठ पर दो तीन संख्या ही रहती है हालांकि इससे धुरविरोधी जी के ब्लाग की कुछ अच्छी थी। वह इससे बहुत नाराज थे। इस पर उन्होंने विद्रोह कर दिया। जिसकी परिणति ब्लागवाणी के रूप में हुई। फिर भी उस पर ब्लाग लेखक कम ही जाते थे। एक बार नारद की स्थिति तीन दिन के लिये डांवाडोल हुई तो हमारी हालत भी ऐसे ही बनी जैसी आज मौलिक और स्वतंत्र ब्लाग लेखकों की है। तब ब्लागवाणी पर इस लेखक की नजर पड़ी और एक पाठ लिखा कि नारद में प्रति मोह तो ठीक है पर अन्य फोरमों पर भी जायें। इस पाठ का असर हुआ और ब्लागवाणी पर लोग पहुंच गये। हम भी नारद पर फ्लाप थे पर ब्लागवाणी पर हिट मिलने लगे पर फिर वही ढाक के तीन पात। हम यही सोचते रहे कि केवल इन्हीं फोरमों से पाठक मिलते हैं पर बाद में अपने लिये काउंटर लगाये तो पता लगा कि इन फोरमों से अधिक तो अन्य स्थानों से भी पाठक आते हैं। दरअसल यह समस्या ब्लाग स्पाट के ब्लाग पर ही नजर आती है जबकि वर्डप्रेस के डेशबोर्ड पर पाठक और पढ़े गये पाठों की संख्या का समूचा विवरण दृष्टिगोचर हो जाता है। आप अगर ध्यान करें तो किसी भी वर्डप्रेस वाले ब्लाग लेखक ने ब्लागवाणी के बंद होने पर ऐसा आर्तनाद नहीं किया जितना केवल ब्लाग स्पाट के ब्लाग लेखकों ने किया है।
मौलिक और स्वतंत्र लेखकों को यह जानकर हैरानी होगी कि हमने वर्डप्रेस के सारे ब्लाग अपने दम पर सफल बनाने के विश्वास में ब्लाग वाणी से हटवा लिया थे। आज भी वह यथावत अपनी पाठक संख्या बनाये हुए हैं। हां, एक बात है कि हम लिखते तो ब्लाग स्पाट के ब्लाग पर ही क्योंकि वह ब्लागवाणी पर दिखते हैं और तत्काल प्रतिकिया मिलती है। बाद में उसको वर्डप्रेस के ब्लाग पर रखते हैं और वह अधिक हिट दिलाते हैं।
स्वतंत्र और मौलिक ब्लाग लेखक तकनीक रूप से अधिक सक्षम नहीं होते पर उन ब्लाग लेखकों के पाठ भी नहीं पढ़ते जो इस संबंध में जानकारी देते हैं। उनको हिट देखकर टिप्पणियां दे तो आते हैं पर उनसे सीखते नहीं है। जो स्वतंत्र एवं मौलिक ब्लाग लेखक इन तकनीक से सक्षम ब्लाग लेखकों के पाठ पढ़ेगा वह सीखता जायेगा। इन्हीं ब्लाग लेखकों के ब्लाग से ही इस लेखक ने पाठ पठनपाठक संख्या बताने वाले काउंटर लिये हैं जिनसे अपने ब्लाग का स्तर पता लग जाता है।
जो छोटे शहरों के ब्लाग लेखक हैं उनको हिंदी ब्लाग जगत में चल रहे झगड़ों का सही पता नहीं लगता सिवाय इसके कि दो ग्रुप हैं जो हमेशा ही आपस में द्वंद्वरत रहते हैं। मुश्किल यह है कि दोनों तरफ ही हमारे मित्र हैं वह इस कारण क्योंकि अंतर्जाल पर शुरुआती दौर में उनसे संपर्क हो गया और उनसे हम सीखे। जब यह लोग आपस में टकराते हैं तो जो जानकारी हमारे सामने आती है वह हैरान कर देती है। छद्म नाम से ब्लाग लिखते हैं पर जब एक दूसरे की पोल खोलते हैं तो यह देखकर सन्न रह जाते हैं कि क्या वाकई अमुक ब्लागर छद्म नाम से भी लिखता है। हम जब नाम पढ़ते हैं तो ऐसा लगता है कि पूरा का पूरा मित्र समूह ही ऐसा है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि हिंदी ब्लाग की सेवाओं को लेकर हम उन पर कोई आक्षेप नहीं करते भले ही उनको थोड़ा बहुत पैसा मिलता हो। बल्कि उनको पैसा मिलने पर हमें खुशी होती है। कभी कभी तो लगता है कि फिक्सिंग वार चल रहा है। इसके बावजूद एक बात सत्य है कि नारद समूह और ब्लागवाणी की आपस में पटरी नहीं बैठ सकती है। अब यह व्यवसायिक वजह से है या विचारों की वजह से इसे जानन को प्रयास करनां अपना समय बरबाद करना है। इसलिये जो रचनाकर्म और अभिव्यक्ति की वजह से ब्लाग लिख रहे हैं वह किसी एग्रीगेटर के बंद होने से इस तरह कभी निराश न हों। अपने ब्लाग स्पाट के ब्लाग पर कोई काउंटर लगा लें यही श्रेयस्कर होगा। नारद समूह के लोग काफी तेज हैं और वह छिपकर नहीं बल्कि सामने आकर ब्लागवाणी के लोगों का सामना करते हैं-यह अलग बात है कि यही लोग पाठकों के लोभ में आकर वहां अपने ब्लाग का पंजीयन कराने से बाज नहीं आते। अगर ब्लागवाणी लिंक नहीं देता तो अपने ब्लाग पर पाठ ही डाल देते हैं फिर उसका लिंक उस ब्लाग पर दिखाते हैं जो ब्लागवाणी पर है। बहरहाल यह ऐसा द्वंद्व ऐसा है जिसमें हम छोटे शहरों के मौलिक तथा स्वतंत्र ब्लाग कोई भूमिका नहीं निभा सकते। जहां तक ब्लागवाणी के संचालकों का सवाल है तो धुरविरोधी जी ऐसे चुप बैठने वालों में नहीं है वह कुछ नया जरूर करेंगे ताकि उनका प्रभाव हिंदी ब्लाग जगत पर बना रहे। यह पाठ हमने इसलिये लिखा क्योंकि कुछ नये तथा पुराने स्वतंत्र मौलिक ब्लागरों को इस पर परेशान होते देखा तो सोचा कि चलो उनसे अपनी बात कही जाये। हमने धुरविरोधी जी नाम इसलिये लिखा क्योंकि उनसे इसी रूप में परिचय है और हम उनके वैचारिक रूप को इसी रूप में पसंद करते हैं। वैसे उनके विरोधी भी उनके उसी रूप को नहीं भूलते और यह बताने से बाज नहीं आ रहे कि हमने तो नारद पर उनके आक्रमण को खूब झेला था वह क्यों अपना एग्रीगेटर बंद कर गये? हमारी धुरविरोधी जी को उनके अगले कदम के लिये शुभकामनायें। उनके विरोधियों को भी शुभकामनायें कि अभी वह कुछ दिन चैन से बैठ लें फिर आयेगा धुरविरोधीजी का कोई नया स्वरूप उनको व्यस्त रखने के लिये। हमारे तो सभी मित्र हो और दशहरे की दोबारा शुभकामनायें। सुबह का पाठ तो ब्लागवाणी के बंद होने के कारण फ्लाप हो गया न!
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Friday, September 25, 2009

दीवारों के पीछे छिपकर-व्यंग्य कविताएं (deevar ke piche chipakar-vyangya kavitaen)

चेहरे पर रोज नया मुखौटा लगाकर
वह सामने चले आते
उनकी बहादुरी पर क्या भरोसा करें
जो अपने पहचाने जाने का खौफ
हमेशा अपने साथ लाते।
..................
दीवारों के पीछे छिपकर
वह पत्थर हम पर उछालते हैं
भीड़ हंसती है
हम भी बदले का इरादा पालते हैं।
दीवारों के पीछे हम नहीं जा सकते
अपनी पहचान छिपाते
डर के साये में जीते वह लोग
मर मर कर जीते होंगे
अपने ही प्रति प्रहार वापस हमारी तरफ लौट आयें
जमाने को मुफ्त में फिर क्यों हंसायें
यही सोचकर चुप रह जाते हैं।

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Sunday, September 20, 2009

हिंदी ब्लाग की अंग्रेजी पर बढ़त बन सकती है-आलेख (hindi and inglish blog-hindi lekh)

अंतर्जाल पर कौन कितना सफल है यह तो कहना कठिन है क्योंकि यहां अनेक तरह के फर्जीवाड़े हैं जिनको समझना एक कठिन काम है। चाहे किसी भी भाषा के ब्लाग हैं उनको लेकर अनेक तरह के भ्रम बने ही रहते हैं। अनेक दिलचस्प बातें सामने आती हैं। लोग तमाम तरह की वेबसाईटों पर अपने ब्लाग की रेटिंग दिखाकर अपने को सबसे सफल ब्लाग या वेबसाईट लेखक होने का दावा भी करते हैं। अनेक लोगों को तो यह लगता है कि हम तो अच्छा लिख नहीं रहे इसलिये सफल नहीं है।
अनेक समझदार ब्लाग लेखक ऐसी बातें लिख जाते हैं उनके आशय कुछ भी लिये जा सकते हैं। अभी कुछ दिनों पहले एक समाचार था कि अंतर्जाल पर लिखे जा रहे ब्लागों को एक ही आदमी पढ़ता है। इसका आशय यह भी हो सकता है कि लेखक स्वयं ही पढ़ता है या यह भी हो सकता है कि जिन वेबसाईटों पर ब्लाग बने हैं वहीं से उनकी सामग्री देखी जा सकती है या कहीं उनके द्वारा कुछ लोग इसके लिये नियुक्त हैं जिन्हें रोज ब्लाग पर व्यूज भेजने के लिये रखा गया है।
एक कमाने वाले ब्लाग लेखक ने लिखा था कि ‘हजारों ऐसे पाठक लेकर क्या करूंगा जिनसे मुझे एक पैसा भी न मिले। मुझे तो दस ऐसे ही पाठक काफी हैं जो मेरे विज्ञापनों से मुझे आय अर्जित करायें।’
अब सच क्या है कोई नहीं जानता। अलबत्ता इतना तय है कि अनेक तरह के फर्जीवाड़े संभावित हैं इसलिये यह कहना कठिन है कि कौन कितना सफल है? यह बात केवल ब्लाग लेखकों तक नहीं बड़ी बड़ी वेबसाईटों पर भी लागू होती है। अलबत्ता आॅनलाईन से जनता का काम करने वाली व्यवसायिक वेबसाईटें जरूर अधिक देखी जाती हैं पर वह सफलता और असफलता के दायरे से बाहर हैं। संभव है कोई ऐसा ब्लाग या वेबसाईट लेखक हो जिसको एक हजार पाठक रोज देखते हों और वह कमाता भी हो तो उसे सफल मान लिया जाये और जिसे सौ पाठक देखते हों और वह न कमाता हो उसे असफल मान लिया जाये। इसमें एक पैंच ही फंसता है कि जिसके पास सौ पाठक हों संभव है वह पूरी तरह से सौ हों और जिसके पास हजार हों उसके लिये केवल बीस ही सक्रिय हों। जो ब्लागर कमा रहे हैं उनकी इस बात के लिये प्रशंसा करना चाहिए कि वह आय अर्जित करने का गुर सीख गये हैं और नये लोगों को उनसे प्रेरणा भी लेना चाहिए। मुश्किल यह है कि जिनके लिये अंगूर खट्टे हैं वह कैसे संतोष करें। न पैसा मिले न प्रतिष्ठा उनके लिये क्या है यहां पर? ऐसे में उनके पास एक ही चारा है कि वह अपने पास ऐसे कांउटर लगायें जिससे पता लगे कि उनको कितने लोग पढ़ रहे हैं और कहीं मित्र लोग ही तो केवल फर्जी व्यूज नहीं दे रहे क्योंकि सफलता का भ्रम तो असफलता से भी अधिक बुरा होता है।
इधर हमने शिनी का स्टेट कांउटर लगाकर देखा। यह कांउटर केवल वर्डप्रेस के ब्लाग पर लगाया यह देखने के लिये कि आखिर देखें तो सही कि हमारे ब्लाग किस दिशा में जा रहे हैं। इस कांउटर के साथ अच्छी बात यह है कि इसने ब्लाग के वर्गीकरण कर दिये हैं। पंजीकृत समझ में अधिक नहीं आया पर जो उचित लगा वह वर्ग ले लिया। इसमें मनोरंजन और साहित्य के अलग अलग वर्ग लिये।
इसका अवलोकन करने के बाद करने पर पता चला कि अंग्रेजी के ब्लागों पर भी अब हिंदी ब्लाग की बढ़त बन सकती है। इतना ही नहीं यौन सामग्री से सुसंज्जित सामग्री के मुकाबले भी साहित्य का स्थान बन सकता है। इस कांउटर पर अभी अन्य ब्लाग अधिक पंजीकृत नहीं है इसलिये यह कहना कठिन है कि उनके मुकाबले इस लेखक के ब्लाग का क्या स्तर है? अलबत्ता प्रारंभ में ही हिंदी ब्लागों को पचास में 10 से 13 तक अंक और समाज में ई पत्रिका और दीपक बापू कहिन को साहित्य वर्ग मे 22, 23 स्थान मिलना अच्छा संकेत है। वैसे हिंदी पत्रिका को मनोरंजन के अन्य वर्ग में 82 वां स्थान मिला है पर वहां उसके सामने अंग्रेजी ब्लाग हैं जो शायद अधिक पढ़े जाते है। यह ब्लाग दो दिन पहले तक 92 वें स्थान पर था। यह आंकड़े ऊपर नीचे होंगे। यह कोई बड़ी सफलता का प्रमाण भी नहीं है पर इससे एक बात साफ है कि अंतर्जाल पर हिंदी की पाठक संख्या ठीक ठाक है और भविष्य में हिंदी ब्लाग अंग्रेजी को जरूर चुनौती देंगे। वैसे ब्लाग स्पाट के ब्लाग की सफलता का सबसे अच्छा आंकलन गूगल विश्लेषण प्रस्तुत करता है जिसका दावा है कि वह आपको फर्जी व्यूज से भ्रमित होने से बचाता है। इसके बावजूद अन्य वेबसाईटों पर भी ब्लाग की स्थिति देखी जा सकती है पर उनके साफ्टवेयरों पर अनेक लोग संदेह जाहिर करते हैं। अलबत्ता शिनी ने जो अलग वर्ग बनाये हैं वह एक अच्छी बात है। हमने यह कांउटर एक किसी हिंदी ब्लाग लेखक के ब्लाग से दो सप्ताह पहले ही लिया था पर यह पता नहीं वह किस श्रेणी में पंजीकृत हैं क्योंकि हमने अपनी श्रेणियों में उनको देखने का प्रयास किया था पर दिखाई नहीं दिया। यहां यह भी याद रखने लायक है कि अनेक वेबसाईटें ऐसी हैं जो वहां पंजीकरण कराने पर रैकिंग देती हैं इसलिये उनको लेकर अपना यह दावा करना ठीक नहीं लगता कि हम सफल हैं, क्योंकि संभव है कि अन्य अपंजीकृत ब्लाग हमसे भी श्रेष्ठ हो सकते हैं।

हां, एक मजेदार बात सामने आई। कहा जाता है कि अधिकतर ब्लाग को एक आदमी पढ़ता है। लेखक समेत हम दो मान लें तो सफलता का एक पैमाना यह भी होता है कि आपके ब्लाग को तीसरा आदमी भी पढ़ता दिखे। इस काउंटर पर हमने अपने ब्लाग पर आनलाईन पाठक की संख्या पांच से सात तक देखी है। इसका आशय यह है कि हमारे ब्लाग उस दायरे से तो बाहर निकल गये हैं जो उसे एक या दो पाठक तक ही सीमित रहते हैं।
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Thursday, September 17, 2009

खामोशी-हिंदी शायरी (khamoshi-hindi shayri)

बिकते हैं सपने बीच बाजार
कहीं नकदी कहीं उधार
खरीदने वाले भी कम नहीं हैं।
नारे सुनकर करते अपना काम
चुकाते जाते अपनी जेब से दाम
कामयाबी मिल जाये तो
सौदागरों की तारीफ में गीत गाते
नाकाम होने वाले भी कम नहीं हैं।


अपने सपने टूटने के साथ ही
लोग भी टूट जाते
गैर क्या अपनों को ही दूर पाते
आंसु बहा नहीं पाती उनकी लाचार आंखें
पत्थर जैसे चेहरे पर छायी खामोशी
देखकर लगता
जैसे उनको कोई गम नहीं है।
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Monday, September 14, 2009

हिंदी दिवस पर दो व्यंग्य कवितायें तथा आलेख (Hindi divas parlekh aur vyangya kavitaen)

लो आ गया हिन्दी दिवस
नारे लगाने वाले जुट गये हैं।
हिंदी गरीबों की भाषा है
यह सच लगता है क्योंकि
वह भी जैसे लुटता है
अंग्रेजी वालों के हाथ वैसे ही
हिंदी के काफिले भी लुट गये हैं।
पर्दे पर नाचती है हिंदी
पर पीछे अंगे्रजी की गुलाम हो जाती है
पैसे के लिये बोलते हैं जो लोग हिंदी
जेब भरते ही उनकी जुबां खो जाती हैं
भाषा से नहीं जिनका वास्ता
नहीं जानते जो इसके एक भी शब्द का रास्ता
पर गरीब हिंदी वालों की जेब पर
उनकी नजर है
उठा लाते हैं अपने अपने झोले
जैसे हिंदी बेचने की शय है
किसी के पीने के लिये जुटाती मय है
आओ! देखकर हंसें उनको देखकर
हिंदी के लिये जिनके जज्बात
हिंदी दिवस दिवस पर उठ गये हैं।
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हम तो सोचते, बोलते लिखते और
पढ़ते रहे हिंदी में
क्योंकि बन गयी हमारी आत्मा की भाषा
इसलिये हर दिवस
हर पल हमारे साथ ही आती है।
यह हिंदी दिवस करता है हैरान
सब लोग मनाते हैं
पर हमारा दिल क्यों है वीरान
शायद आत्मीयता में सम्मान की
बात कहां सोचने में आती है
शायद इसलिये हिंदी दिवस पर
बजते ढोल नगारे देखकर
हमें अपनी हिंदी आत्मीय
दूसरे की पराई नजर आती है।
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हिंदी दिवस पर अपने आत्मीय जनों-जिनमें ब्लाग लेखक तथा पाठक दोनों ही शामिल हैं-को शुभकामनायें। इस अवसर पर केवल हमें यही संकल्प लेना है कि स्वयं भी हिंदी में लिखने बोलने के साथ ही लोगों को भी इसकी प्रोत्साहित करें। एक बात याद रखिये हिंदी गरीबों की भाषा है या अमीरों की यह बहस का मुद्दा नहीं है बल्कि हम लोग बराबर हिन्दी फिल्मों तथा टीवी चैनलों को लिये कहीं न कहीं भुगतान कर रहे हैं और इसके सहारे अनेक लोग करोड़ पति हो गये हैं। आप देखिये हिंदी फिल्मों के अभिनेता, अभिनेत्रियों को जो हिंदी फिल्मों से करोड़ेा रुपये कमाते हैं पर अपने रेडिया और टीवी साक्षात्कार के समय उनको सांप सूंघ जाता है और वह अंग्रेजी बोलने लगते हैं। वह लोग हिंदी से पैदल हैं पर उनको शर्म नहीं आती। सबसे बड़ी बात यह है कि हिंदी टीवी चैनल वाले हिंदी फिल्मों के इन्हीं अभिनता अभिनेत्रियों के अंग्रेजी साक्षात्कार इसलिये प्रसारित करते हैं क्योंकि वह हिंदी के हैं। कहने का तात्पर्य है कि हिंदी से कमा बहुत लोग रहे हैं और उनके लिये हिंदी एक शय है जिससे बाजार में बेचा जाये। इसके लिये दोषी भी हम ही हैं। सच देखा जाये तो हिंदी की फिल्मों और धारावाहिकों में आधे से अधिक तो अंग्रेजी के शब्द बोले जाते हैं। इनमें से कई तो हमारे समझ में नहीं आते। कई बार तो पूरा कार्यक्रम ही समझ में नहीं आता। बस अपने हिसाब से हम कल्पना करते हैं कि इसने ऐसा कहा होगा। अलबत्ता पात्रों के पहनावे की वजह से ही सभी कार्यक्रम देखकर हम मान लेते हैं कि हमाने हिंदी फिल्म या कार्यक्रम देखा।
ऐसे में हमें ऐसी प्रवृत्तियों को हतोत्तसाहित करना चाहिये। हिंदी से पैसा कमाने वाले सारे संस्थान हमारे ध्यान और मन को खींच रहे हैं उनसे विरक्त होकर ही हम उन्हें बाध्य कर सकते हैं कि वह हिंदी का शुद्ध रूप प्रस्तुत करें। अभी हम लोग अनुमान नहीं कर रहे कि आगे की पीढ़ी तो भाषा की दृष्टि से गूंगी हो जायेगी। अंग्रेजी के बिना इस दुनियां में चलना कठिन है यह तो सोचना ही मूर्खता है। हमारे पंजाब प्रांत के लोग जुझारु माने जाते हैं और उनमें से कई ऐसे हैं जो अंग्रेजी न आते हुए भी ब्रिटेन और फ्रंास में गये और अपने विशाल रोजगार स्थापित किये। कहने का तात्पर्य यह है कि रोजगार और व्यवहार में आदमी अपनी क्षमता के कारण ही विजय प्राप्त करता है न कि अपनी भाषा की वजह से! अलबत्ता उस विजय की गौरव तभी हृदय से अनुभव किया जाये पर उसके लिये अपनी भाषा शुद्ध रूप में अपने अंदर होना चाहिये। सबसे बड़ी बात यह है कि आपकी भाषा की वजह से आपको दूसरी जगह सम्मान मिलता है। प्रसंगवश यह भी बता दें कि अंतर्जाल पर अनुवाद टूल आने से भाषा और लिपि की दीवार का खत्म हो गयी है क्योंकि इस ब्लाग लेखक के अनेक ब्लाग दूसरी भाषा में पढ़े जा रहे हैं। अब भाषा का सवाल गौण होता जा रहा है। अब मुख्य बात यह है कि आप अपने भावों की अभिव्यक्ति के लिये कौनसा विषय लेते हैं और याद रखिये सहज भाव अभिव्यक्ति केवल अपनी भाषा में ही संभव है।

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Thursday, September 10, 2009

शब्दों की जंग महंगी बिकती-हिंदी व्यंग्य कविता (shabdon ke jang-hindi vyangya kavita)

झगड़ा भी एक शय है जो
बड़ा पाव की तरह बाजार में बिकती।
अमन के आदी लोगों में चैन कहां
कहीं शोर देखने की चाहत उनमें दिखती।
इसलिये लिख वह चीज जो
बाजार में बड़े दाम पर बिकती।
अठखेलियां करती कवितायें
मन भाती कहानियां और
अमन के गीत लिखना है तो
अपने दिल के सुकूल के लिये लिख
शोर से दूर एक अजूबा दिख
दुनियां में उनके चाहने वाले
गुणीजनों की अधिक नहीं गिनती।
अमन का पैगाम लिखकर क्या करेगा
जब तक उसमें शोर नहीं भरेगा
सौदागरों ने रची है तयशुदा जंग
उस पर रख अपने ख्याल
जिससे बचे बवाल
सजा दिया है उन्होंने बाजार
वहां शब्दों की जंग महंगी बिकती।
सोचता है अपना
दूसरा ही है तेरा सपना
नहीं बहना विचारों की सतही धारा में
तो तू अपना ही लिख
गहरे में डूबकर नहीं ढूंढ सके मोती
वही नकली ख्याल बहा रहे हैं
सब तरफ बवाल मचा रहे हैं
अपनी सोच की गहराई में उतर जा
कभी न कभी तेरे नाम का भी बजेगा डंका
सच्चे मोती की माला
कोई यूं ही नहीं फिंकती।
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Monday, September 07, 2009

फिल्में नहीं देखोगे तो बहादुर बनोगे-हास्य व्यंग्य (hindi film and breveness-hindi hasya vyangya)

पिछले दो तीन दिनों से टीवी पर बच्चों की बहादुरी के किस्से आ रहे हैं। एक लड़की अपहर्ताओं को चकमा देकर भाग निकली। चलती ट्रेन में डकैती करने वालों को बच्चों ने भागने के लिये बाध्य किया। कुछ और भी घटनायें सामने आ रही हैं। आगे भी ऐसी ही घटनायें आयेंगी और आप देखना वह समय आने वाला है जब भ्रष्टाचारी और अनाचारी लोगों को हमारी कौम के युवा ही सबक सिखायेंगे बस जरूरत इस बात की है कि उनको नैतिक समर्थन मिलना चाहिये।

यह सोचकर लोग सोच रहे होंगे कि आखिर इस निराशाजनक वातावरण के बीच यह आशा की किरण कौन निरर्थक जगा रहा है? सोचने का अपना तरीका होता है पर कोई बात है जो मन में होती है पर हम उसे स्वयं नहीं देख पाते। दरअसल आज की नयी पीढ़ी मनोरंजन के लिये हिंदी फिल्मों पर निर्भर नहीं है। आजकल के सभी बच्चे-जो कभी युवा तो होंगे-हिंदी फिल्में नहीं देखते और यकीनन जो नहीं देखेंगे वह बहादुर बनेंगे, यह हमारा दावा है। अगर आज की सक्रिय पीढ़ी को देखें तो वह कायरों जैसी लगती है और इसका कारण है फिल्में। इसने उस दौर की फिल्में देखी हैं जब मनोंरजन का वह इकलौता साधन था और जो कायरता का बीच बो रही थीं। सामने कोई भी हो पर इनके पीछे के प्रायोजक सही नीयत के लोग नहीं थे और उनका हित समाज को कायर बनाने में था। यहां तक कि कलात्मक फिल्मों के नाम पर ऐसी कायरता समाज में बोई गयी।
एक फिल्म में नायिका को निर्वस्त्र किया गया और बाकी लोग हतप्रभ होकर देख रहे थे। दृश्य मुंबई के किसी मोहल्ले का था। कहने को निर्देशक कह रहे थे कि हम तो वही दिखा रहे हैं जो समाज में होता है पर यह सरासर झूठ था। उस समय तक यह संभव नहीं था कि किसी छोटे शहर में कोई शोहदा ऐसी हरकत करे और सभी लोग उसे नकारा होकर देखें।
अनेक फिल्मों में ईमानदारी पुलिस इंस्पेक्टर का पूरा का पूरा परिवार का सफाया होते दिखाया गया। आज आप जिस शोले, दीवार और जंजीर फिल्मो की बात सोचें तो वह मनोरंजन से अधिक समाज को कायर बनाने के लिये बनायी गयीं। संदेश यह दिया गया कि अगर आप एक आम आदमी हो तो चुपचाप सभी झेलते जाओ। नायक बनना है तो फिर परिवार के सफाये के लिये मन बनाओ।
सच बात तो यह है कि सभी पुलिस वाले भी ऐसे नहीं थे जैसे इन फिल्मों में दिखाये गये। पुलिस हो या प्रशासन आदमी तो आदमी होता है जब समाज के अन्य लोगों पर बुरा प्रभाव पड़े तो वह इससे बच जाये यह संभव नहीं है। इसलिये उस समय जो बच्चे थे वह जब सक्रिय जीवन में आये तो कायरता उनके साथी थी।

इस संबंध में पिछले साल की टीवी पर ही दिखायी गयी एक घटना याद आ रही है जब बिहार में एक स्त्री को निर्वस्त्र किया जा रहा था तब लोग नकारा होकर देख रहे थे। तब लगने लगा कि समाज पर हिंदी फिल्मों ने अपना रंग दिखा दिया है। इधर हमारे टीवी चैनल वाले भी इन फिल्मों के रंग में रंगे हैं और वह ऐसे अवसरों पर ‘हमारा क्या काम’ कर अपने फोटो खींचते रहते हैं।
आजकल की सक्रिय पीढ़ी बहुत डरपोक है। फिल्म के एक हादसे से ही उस पर इतना प्रभाव पड़ता रहा है कि हजारों लोग भय के साये में जीते हैं कहीं किसी खलनायक से लड़ने का विचार भी उनके मन में नहीं आता।
सच बात तो यह है कि इन फिल्मों का हमारे लोगों के दिमाग पर बहुत प्रभाव पड़ता रहा है और आज की पीढ़ी के सक्रिय विद्वान अगर यह नहीं मानते तो इसका मतलब यह है कि वह समाज का विश्लेषण नहीं करते। फिल्मों के इसी व्यापाक प्रभाव का उनसे जुड़े लोगों ने अध्ययन किया इसलिये वह इसके माध्यम से अपने ऐजंेडे प्रस्तुत करते रहे हैं। अगर आप थोड़ा बहुत अर्थशास्त्र जानते हैं और किसी व्यवसाय में रहे हों तो इस बात को समझ लीजिये कि इसका प्रायोजक फिल्मों से पैसा कमाने के साथ ही अपने ऐजेंडे इस तरह प्रस्तुत करता है कि समाज पर उसका प्रभाव उसके अनुकूल हो। आपको याद होगा जब देश आजाद हुआ तो देशभक्ति के वही गाने लोकप्रिय हुए जो फिल्मों में थे। फिर तो यह आलम हो गया कि हर फिल्में एक गाना देशभक्ति का होने लगा था। फिर होली, दिवाली तथा राखी के गाने भी इसमें शामिल हुए और उसका प्रभाव पड़ा।
अगर आप कोई फिल्म में देखें तो उसका विषय देखकर ही आप समझ जायेंगे कि उसके पीछे कौनसा आर्थिक तत्व है। हमने तो यही आंकलन किया है कि जहां से पैसा आ रहा है उसकी हर कोई बजा रहा है। आजकल के संचार माध्यमों में तमाम तरह के प्रसारण देखकर इस बात को समझ लेते हैं कि उनके आर्थिक स्त्रोत कहां हैं। यह जरूरी नहीं है कि किसी को प्रत्यक्ष सहायता दी जाये बल्कि इसका एक तरीका है ‘विज्ञापन’। इधर आप देखें तो अनेक धनपतियों -जिनको हम आज के महानायक भी कहते सकते हैं-के अनेक व्यवसाय हैं। वह क्रिकेट और फिल्मों से जुड़े हैं तो उनको इस बात की आवश्यकता नहीं कि आत्मप्रचार के लिये सीधे पैसा दें बल्कि उनसे अप्रत्यक्ष रूप से विज्ञापन पाने वाले उनका प्रचार स्वतः करेंगे। उनका जन्म दिन और मंदिर में जाने के दृश्य और समाचार स्वतः ही प्रस्तुत संचार माध्यमों में चमकने लगते हैं। फिर उनके किसी एक व्यवसाय के विज्ञापन से मिलने वाली राशि बहुत अच्छी हो तो उनके दूसरे व्यवसाय का भी प्रचार हो जायेगा।
हमने तो आत्मंथन किया है और अपने मित्रों से भी कई बार इस बात पर चर्चा की और सभी इस बात पर सहमत थे कि इन फिल्मों के माध्यम से समाज को कायर, लालची और अहंकारी बनाया गया है। वह इस बात को भी मानते हैं कि हो सकता है कि यह ऐजेंडा समाज को अपने चंगुल में रखने के प्रयास के उद्देश्य से ही हुआ हो। बहरहाल बच्चों की बहादुरी देखकर यह मन में आया कि यकीनन अब फिल्मों का इतना प्रभाव नहीं है और यकीनन उन बच्चों में हिंदी फिल्मों द्वारा पैदा किया जाने वाला कायरता का भाव उनमें नहीं जम पाया है। यह भाव इस तरह पैदा होता है कि एक चाकू पकड़े बदमाश भी इतना खतरनाक ढंग से पेशा आता है कि बाकी सभी लोग सांस थामें उसे देखते हैं तब तक, जब तक कोइ नायक नहीं आ जाता। इन फिल्मों पर यह आरोप इसलिये भी लगता है कि क्योंकि अधिकतर फिल्मों में खलनायक को लोगों का गोलियों से सीना छलनी करते दिखाने के बाद जब नायक से उसकी मुठभेड़ होती है तो वह लात घूंसों में दिखती है-कभी ऐसा नहीं दिखाया गया कि नायक पिस्तौल लेकर पहुंचा हो और पीछे से खलनायक को मारा हो। अपराधी खतरनाक, चालाक और अजेय होते हैं पर उतने नही जितने फिल्मों में दिखाया गया। ऐसे बहादुर बच्चों को सलाम। आजकल के बच्चों को तो बस हमारी यही शिक्षा है कि सब देखो। श्लील हो या अश्लीन वेबसाईट या फिल्म! सब चलेगा! मगर यह हिन्दी फिल्में मत देखना वरना कायरों की तरह जियोगे। जिन माता पिता को अपने बच्चे बहादुर बनाने हैं वह फिल्मों से अपने बच्चों को बचायें चाहे वह अंग्रेजी की हों-आखिर हिंदी फिल्में भी उनकी नकल होती हैं।
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Friday, September 04, 2009

कल्पनातीत-हिंदी शायरी (Unthinkable - Hindi poetry)

बरसात में सड़क पर चलते हुए
जब पानी से भरे छोटे छोटे समंदर
और कीचड़ के पहाड़ों से गिरता टकराता हूं।
तब याद आती है
सुबह अखबार में छपी तरक्की की खबरें
और उसे सभी में बांटने के लिये
शोर करते लोगों के जूलूस की फोटो याद
तब बरबस हंसी आ जाती है
उनको कल्पनातीत पाता हूं।
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Wednesday, September 02, 2009

मुफ्त की इज्जत और शौहरत-हिंदी व्यंग्य कविता (muft ki ijjat aur shauharat-vyagnya kavita)

जेब खाली हो तो
अपना चेहरा आईने में देखते हुए भी
बहुत डर लगता है
अपने ही खालीपन का अक्स
सताने लगता है।

क्यों न इतरायें दौलतमंद
जब पूरा जमाना ही
आंख जमाये है उन पर
और अपने ही गरीब रिश्ते से
मूंह फेरे रहता है।

अपना हाथ ही जगन्नाथ
फिर भी लगाये हैं उन लोगों से आस
जिनके घरों मे रुपया उगा है जैसे घास
घोड़ों की तरह हिनहिना रहे सभी
शायद मिल जाये कुछ कभी
मिले हमेशा दुत्कार
फिर भी आशा रखे कि मिलेगा पुरस्कार
इसलिये दौलतमंदों के लिये
मुफ्त की इज्जत और शौहरत का दरिया
कमअक्लों की भीड़ के घेरे में ही बहता है।

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