Wednesday, April 27, 2011

अपनी सोच में दम हो-हिन्दी कविता (apni soch mein dum ho-hindi kavita)

लगते हैं मेले यहां
खुशी हो या गम हो,
कोई बुलाता है भीड़ को
कोई भेड़ की तरह
उसमें शामिल हो जाता है,
जरूरी है शोर का होना,
चाहे बजाये भीड़ तालियां
या लोगों की आंख नम हो।


अकेले हो जाने का डर
आदमी को बेबस बना देता है,
इसलिये तलाश करता है
वह मेलों की
मगर वहां भी हादसे का डर न कम हो।

अपने से भागता आदमी
करता समय और अक्ल खराब,
कोई हो रहा हुस्न का दीवाना
कोई पी बर्बाद हो रहा पीकर शराब,
मेलों में चंद लम्हें जी लिये
भीड़ के साथ
मगर फिर चला आता अकेलापन
ढूंढ लेते हैं फिर भी कुछ लोग
अपने अंदर ही एक साथी
अगर अपनी सोच में दम हो।
लेखक संपादक-दीपक "भारतदीप", ग्वालियर 
writer and editor-Deepak "Bharatdeep" Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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Wednesday, April 20, 2011

अण्णा हज़ारे और बाबा रामदेव की तुलना गलत-हिन्दी लेख (anna hazare aur baba ramdev ki tulna galat-hindi lekh and article)

          अण्णा हज़ारे और बाबा रामदेव में कोई तुलना नहीं हो सकती मगर लोग करना चाहते हैं। इसका कारण केवल यही है कि दोनों ही भ्रष्टाचार के विरुद्ध अभियान छेड़े हुए हैं और कम से कम एक दिन के लिये दोनों साथ एक मंच पर दिखे। हमारे देश के लोगों की मानसिकता है कि वह व्यक्त्तिवों में द्वंद्व देखना चाहते हैं और अगर वह न हो तो फिर अपने ही मस्तिष्क में दोनों में से किसी एक की श्रेष्ठता पर विचार करते हैं। फिर बहसें करते हैं। एक किसी को श्रेष्ठ तो दूसरा किसी को श्रेष्ठ बताता है।
       जब हम छोटे थे तो अक्सर ब्रह्मा, विष्णु और शिवजी में से ‘बड़ा कौन’ जैसे विषय पर बुजुर्गों की बहस देखा करते थे। वैसे तो हमारा समाज मानता है कि परब्रह्म परमात्मा का ही तीनों रूप है। ब्रह्मा जन्म, विष्णु जीवन तथा शिव शक्ति प्रदान करने वाले भगवत्रूप माने जाते हैं। इसके बावजूद कुछ लोग विष्णु भगवान को ही श्रेष्ठ मानते हैं-इसका कारण यह भी हो सकता है क्योंकि उनकी पत्नी लक्ष्मी को माना जाता है जिसके भक्त सारे संसार में हैं। प्रसंगवश अवतार केवल भगवान विष्णु के ही माने गये हैं। यह बहस अगर हमारे अंदर मौजूद धार्मिक भावना का प्रमाण है तो अध्यात्मिक ज्ञान से पैदल होना भी दर्शाती है। अब देश में बाबा रामदेव तथा अण्णा हज़ारे को लेकर बहस चल रही है। इसका एक कारण यह भी है कि भ्रष्टाचार से त्रस्त देश को अब यह यकीन दिलाया जा रहा है कि उसे अब ईमानदारी के युग में पहुंचा दिया जायेगा। इसके लिये कितने लोग कितने आन्दोलन  चला रहे हैं पर सभी को एक मान लेना भी गलत होगा। लक्ष्य एक है पर मार्ग प्रथक प्रथक हैं उससे भी अधिक संशय इस बात का है कि उनके उद्देश्य क्या हैं?
       इधर भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन एक खेल बनता जा रहा है। ऐसा खेल जिसमें प्रचार माध्यमों का समय विज्ञापन का प्रसारण के साथ अच्छा बीत जाता है। उससे देखकर तो लगता है कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन भी प्रचार के लिये बेचने का साधन बन गया है। यहां हम बाबा रामदेव और अण्णा हज़ारे की प्रशंसा करेंगे कि उन्होंने अपने प्रयासों से समाज में चेतना जगाने का प्रयास किया है पर सवाल यह है कि इसके परिणाम अभी प्रकट नहीं हो रहे।
        बाबा रामदेव ने जब योग शिक्षक के रूप में लोकप्रियता प्राप्त कर ली तो वह उससे प्रथक सांसरिक विषयों पर प्रवचन करने लगे और हमारा मत तो यह है कि योग को छोड़कर सारे विषय राजनीतिक हो चुके हैं। खेल, फिल्म, समाज सेवा, साहित्य, पत्रकारिता, स्वास्थ्य, वकालत, गरीबा का कल्याण, वन तथा पशु संरक्षण तथा ऐसे ढेर सारे विषय हैं जिनमें परिवर्तन बिना राजनीति के नहीं आता। योग सिखाते हुए बाबा रामदेव काला धन तथा भ्रष्टाचार विषय पर बोलने लगे। अब तो वह एक राजनीतिक दल बनाने में जुट गये हैं। बहरहाल उन्होंने भारत स्वाभिमान बचाने के लिये आंदोलन छेड़ा। उससे उनकी लोकप्रियता एक हरफनमौला के रूप में हो गयी जो योग के अलावा सांसरिक विषयों में भी पारंगत हैं। सब ठीक चल रहा था कि महाराष्ट्र के समाज सेवी अण्णा हज़ारे भ्रष्टाचार के विरुद्ध आमरण अनशन करने दिल्ली आ गये। उनको विशुद्ध रूप से गैर राजनीतिक व्यक्ति माना जाता है इसीलिये उनके आंदोलन के प्रति भी यही लोगों की धारणा बनी। यहां तक कि इस आंदोलन से राजनीतिक हस्तियों को दूर ही रखा गया। ऐसे में अण्णा हजारे रातोंरात देश के नायक बन गये। यह सब प्रचार माध्यमों का कमाल था। कुछ लोगों ने तो ऐसा दिखाया कि बाबा रामदेव महत्वहीन हो गये हैं। इस समय जब भ्रष्टाचार विरोधी अभियान की बात होती है तो स्वामी रामदेव से कहीं अधिक अन्ना की लोकप्रियता का ग्राफ ऊपर दिखता है। अभी भी कुछ लोग मान रहे हैं कि दोनों महानुभाव एक हैं पर वह बात अब नहीं दिखती।

        जहां तक दोनों के व्यक्तित्व और कृतित्व की बात करें तो बाबा रामदेव और अन्ना हज़ारे के बीच कोई साम्यता नहीं है। 73 वर्षीय अण्णा साहेब बाबा रामदेव से कम से 30 से 35 वर्ष के बीच बड़े होंगे-बाबा रामदेव की सही उम्र का अनुमान नहीं है पर ऐसा लगता है कि वह चालीस से कम ज्यादा होंगे। अण्णा साहेब का योग से कोई वास्ता नहीं है। भले ही वह सामाजिक आंदोलन चलाते रहे हों पर उनके विषय कहीं न कहीं राजनीतिक रूप से प्रभावित रहे हैं। स्वयं वही कहते हैं कि ‘हमने दो सरकारें गिराई हैं।’ उनकी सादगी उनके विरोधियों को राजनीतिक चालाकी भी लग सकती है पर उनके विषय अविवादित हैं। अण्णा साहेब देश में ईमानदारी लाना चाहते हैं और इसके लिये कानून बनवाने का प्रयास कर रहे हैं। बाबा रामदेव भारतीय योग साधना के आधुनिक और प्रसिद्ध शिक्षक हैं जो न केवल व्यक्ति की देह को स्वस्थ रखती है बल्कि चरित्र निर्माण के लिये भी प्रेरित करती है। अगर आप योग साधना की दृष्टि से देखेंगे तो अण्णा हज़ारे तो अनैतिकता से भरे गंदे नाले को बीच में से साफ करने का प्रयास कर रहे हैं जबकि बाबा रामदेव उसी नाले में शुद्ध जल की धारा बहाकर उसमें शुद्ध जल प्रवाहित करना चाहते हैं। सामान्य दृष्टि से देखेंगे तो बाबा रामदेव के प्रयास अधिक सक्रिय नहीं दिखेंगे क्योंकि वह नारे नहीं लगा रहे जिससे लोगों के सामने भ्रष्टाचार के खिलाफ सक्रियता नहीं दिख रही। इसके अलावा बाबा रामदेव अपने विषय में योग भी शामिल करते हैं इसलिये भ्रष्टाचार का विषय मुखर नहीं हो पाता। जबकि अण्णा साहेब केवल इसी विषय पर बोल रहे हैं फिर उनकी धवल छवि के कारण भ्रष्टाचार विरोधी योद्धा के रूप में दिख रही है।
       अण्णा हज़ारे साहिब सज्जन आदमी हैं पर उनके साथ जुड़े लोगों पर अब प्रश्नचिन्ह लगने लगा है। इसका कारण यह है कि उनके सभी साथी राजनीतिक पृष्ठभूमि वाले हैं या वर्तमान व्यवस्था से जुड़े रहे हैं। ऐसे में अण्णा साहिब का आंदोलन विरोधियों से जुझता दिख रहा है। फिर अण्णा साहेब के पास अपनी धवल छवि के अलावा अन्य कोई हथियार नहीं है जिससे वह समाज में सुधार ला सकें। इसके विपरीत बाबा रामदेव के पास योग जैसा ब्रह्मास्त्र है। अगर बाबा रामदेव का राजनीतिक आंदोलन सफल नहीं भी हुआ तो भी योग के नये सूत्रधार के रूप में उनका नाम सदियों तक पूरी दुनियां में याद रखा जायेगा जबकि आंदोलन का निश्चित परिणाम न मिलने पर अण्णा साहेब की छवि फिर महाराष्ट्र तक ही सिमट जायेगी। अंतिम अंतर यह कि अण्णा साहेब अपने भाषण से अपने अनुयायियों की बुद्धि में चेतना लाकर उसकी देह को संघर्ष के लिये प्रेरित करने वाले व्यक्ति हैं जबकि बाबा रामदेव का प्रयास लोगों को मन और देह की दृष्टि से स्वस्थ बनाकर वैचारिक रूप से शक्तिशाली बनाने का है।
           बाबा रामदेव योग शिक्षक हैं। कहा जाता है कि ‘रमता योगी बहता पानी इनकी माया किसी ने नहीं जानी’। जैसे बाबा रामदेव योग साधना करते रहेंगे वैसे उनका तेज बढ़ता रहेगा। वह आयु को परास्त करेंगे। स्वास्थ की दृष्टि से तो कहना ही क्या? जब कोई उनकी आलोचना करता है तो मन करता है कि उससे पूछा जाये कि ‘क्या, वह वाकई उतना स्वस्थ है जितना रामदेव जी दिखते हैं। क्या वह मधुमेह, कब्ज, हृदय या कमर दर्द के विकार से परेशान नहीं है।’
        कभी कभी तो यह कहने का मन करता है कि जो व्यक्ति स्वस्थ होने के साथ योग साधक भी हों, वही उनको चुनौती दे तो अच्छा रहेगा। विशुद्ध रूप से योग बेचने वाले योगी स्वयं भी महान योगी के पद पर प्रतिष्ठित होते जा रहे हैं और उनकी शक्तियों को कोई योग साधक ही समझ सकता है। अण्णा हज़ारे के कहे अनुसार कानून बन गया तो उनका कार्य खत्म हो जायेगा जबकि बाबा रामदेव का काम तो लंबे समय तक चलने वाला है। मतलब अण्णा हज़ारे का कार्य क्षणिक प्रभाव वाला है जबकि बाबा रामदेव लंबी लड़ाई लड़ने वाले योग योद्धा हैं। वैसे इन दोनों महानुभावों को देखकर कहना पड़ता है कि हमारी धरती वाकई महान है जो हमेशा ही हीरे के रूप में मनुष्य हमारे समाज को सौंपती हैं। इन हीरों की किस्म अलग अलग हो सकती है और श्रेष्ठता के रूप में किसी को मान्यता देना कठिन है।
        एक आम लेखक और नागरिक के रूप में हम दोनों पर निरंतर दृष्टि गढ़ाये रहते हैं। हमें इस बात में दिलचस्पी है कि आखिर दोनों कैसे अपने अभियानों के बेहतरीन परिणाम प्राप्त करेंगे?
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Wednesday, April 13, 2011

मन मरा तो आदमी भी, जिम्मेदार कौन-हिन्दी चिंत्तन आलेख (man mara to aadmi bhi-hindi thought aricle)

सोनाली और अनुराधा नाम की दो बहिनों ने छह माह तक अपने घर में स्वयं को बंद रखा। उन्होंने यह कैद खुद चुनी। उन्होंने भूख को चुना, प्यास को चुना यानि स्वयं अपनी मौत खुद चुनी। उसकी जिम्मेदारी किसी पर डालने का प्रयास बेतुका है। भाई जिम्मेदार है या समाज या पड़ौसी या पास में ही कार्यरत कल्याण संस्था के पदाधिकारी, यह सोचना व्यर्थ है। बिना रोए बच्चे को मां भी दूध नहीं पिलाती-क्या यह बात उन दोनों ने नहीं सुनी थी। पढ़ी लिखी थीं, प्रकृति ने उनको सारी इद्रियां कार्यरूप में प्रदान की थी। वह मन को मारकर बैठ गयीं तो उन इंद्रियों से काम कौन लेता? यह मन ही तो इंद्रियों को दौड़ता है, लड़ाता है और बहलाता है।
उनकी कहानी कोई ऐसी नहीं है जिस पर अधिक लिखा जाये। हादसों से गुजरता इंसान कई बार भारी तकलीफ में आ जाता है पर चंचल मन उसे आगे ले जाता है। वह लड़ता है फिर चल पड़ता है। इस संसार में ऐसा कौन है जिसने अपना नहीं खोया और कौन ऐसा है जो अपना नहीं खोएगा। पहले मां खोई फिर पिता! फिर उनका भाई विवाह के बाद अपनी बहिनों को दिल्ली में उनको छोड़कर बैंगलौर चला गया। उनका प्रिय कुत्ता मर गया। पहले तनाव फिर अवसाद के दौर में दोनों बहिनों की इंद्रियों को निष्क्रिय कर दिया। अहंकार बुरा होता है पर उसका भी इस सीमा तक होना जरूरी है कि ‘मेरा पास काम करने वाली देह है और वह बेकार नहीं है।’
इद्रियों की निष्क्रियता और अहंकार की शून्यता के परिणामस्वरूप आंखों से रूप दर्शन, कानों से स्वर श्रवण, नाक से गंध को ग्रहण, मुख से रस का उपभोग और देह से स्पर्श करते हुए भी उसकी अनुभूति से दूर हो गयीं। मन मरा तो मनुष्य देह होते हुए भी मृत हो जाता है। दूर दृश्यों के प्रसारण में उनके चेहरे देखे तो तय करना कठिन हो रहा था कि क्या देख रहे हैं? मानवियां या उनके शव! वह गुणातीत हो जातीं तो योगी कहलातीं पर अवसाद और निराशा ने उनको मनोरोगी बना दिया। देह विकारों की पहचान न करते हुए स्वयं ही विकारमयी हो गयी।
कुछ दिन पहले दूरदूश्यों में एक 80 वर्ष का योगी दिखाया गया जिसने 70 वर्ष तक कुछ खाया पीया नहीं था! मगर वह सक्रिय था पर अनुराधा और सोनाली योगी नहीं थी नतीजा वह शवरूप होती गयीं। योगी होती तो आदर की पात्र होतीं पर शवरूप हो गयीं तो दया उन पर बरसने लगी।
दोनों चार्टेड एकाउंटेंट और कंप्यूटर की जानकार थीं। अवसाद ने अपने कौशल से ही उनको दूर कर दिया। सोनाली ने दूरदृश्यों में कहा ‘किसी ने उनको कालू जादू किया था।’
हैरान करती हैं यह बात! हमारे आधुनिक शिक्षाविद् दावा करते हैं कि अंग्रेजी शिक्षा पद्धति के विकास से देश अंधविश्वास से मुक्त हो जायेगा? यह तो उल्टा हो रहा है? पढ़े लिखे लोगों की जीवन से लड़ने की क्षमता कम हो जाती है और ऐसे में दैहिक निष्क्रियता से उनका आत्मविश्वास लुप्त हो जाता है। अपढ़ महिला पुरुष काला जादू पर यकीन करते हैं पर फिर भी जीवन से लड़ते हैं पर पढ़ा लिखा आदमी तो संघर्ष करना ही छोड़ देता है। एक शानदार फ्लैट में रही रहीं थी। सभ्रांत परिवार और वैसा ही आसपास समाज भी बस रहा था। ऐसे में जिंदगी के सामने आत्मसमर्पण करते हुए भूख और प्यास को गले लगाना! यकीनन यह शिक्षित आदमी का काम नहीं लगता पर यह सच्चाई है। इस देश में ऐसी हजारों ऐसी महिलायें हैं जो अकेली होते हुए भी अपना संघर्ष जारी रखती हैं। यकीनन वह कथित रूप से उच्च सभ्रांत परिवार की नहीं होती।
हमारे बुद्धिजीवी समाज पर बरस रहे हैं। आजकल का पूरा समाज ही उनको अब संवेदनहीन दिखाई दे रहा है? समाज यानि क्या? लोगों का समूह ही न! मगर उसकी कोई अपनी सक्रियता नहीं होती। उसमें शामिल लोगों की निजी सक्रियता ही समाज की सक्रियता कहलाती है। फिर हर आदमी की निजता अलग है वैसे ही उसकी गतिविधि भी। बड़े शहर और सभ्रांत निवासघरों की निजता एकांत है जबकि छोटे शहरों और असभ्रांत, गरीब तथा शिक्षित समाज के लोग  निजता परिवार, पड़ौस तथा पैसा तीनों के साथ जोड़ते हैं। जरूरत पड़ने पर अहंकार दिखाते हैं तो फिर विनम्र भी हो जाते हैं। जीवन में लोचदार रुख अपनाने के लिये जरूरी है अतिअहंकार रहित होना और अंग्रेजी शिक्षा मनुष्य को एकांगी तथा अतिअहंकारी बना देती है। अपनी देह को नष्ट करने वालों की सूची अगर देखी जाये तो उसमें आधुनिक शिक्षा के छात्रों की संख्या कहीं अधिक है पर प्राचीन शिक्षा में रचे बसे लोग कम ही दिखेंगे यह अलग बात है कि हम उनको अशिक्षित और गंवार कहते हैं।
सभी बुद्धिजीवी बड़े शहरों में सभ्रांत समाजों में रहते हैं। वह वही समाज देख रहे हैं। देश में असभ्रांत, गरीब, अशिक्षित समाज से जुड़े छोटे शहरों के लोगों का संघर्ष वह नहीं देख पाते। जब हम अपने समाज को देखते हैं तो बड़े शहरों का समाज अपनी देश के छोटे और मझौले शहरों से अलग दिखता है। महात्मा गांधी ने शहरी और ग्रामीण भारत की पहचान की थी। वह अमीर और गरीब के बीच खाई पाटना चाहते थे। गांधी दर्शन इसलिये ही लोकप्रिय नहीं हो सका क्योंकि वह मध्य वर्गीय शहरों और नागरिकों को समझ नहीं पाये । एक मध्य वर्गीय शहरी भारतीय अमीरी का स्वांग करते हुए देश और समाज के लिए लड़ता भी है पर जब टूटता है तो भयानक अवसाद में घिर जाता है। यही वह वर्ग है जो विचाराधाराओं को अपनी प्रयासों से प्रवाहित करता है। गांधी दर्शन भारत में चर्चित बहुत है पर लोकप्रिय नहीं बन सका क्योंकि उसमें मध्य शहरी भारतीय वर्ग के लिये कुछ नहीं है। इस वर्ग ने गांधीजी के स्वतंत्रता को ताकत दी पर पाया कुछ नहीं। इसके विपरीत गरीब के कल्याण का बात करते हुए इसी मध्यम वर्ग की उपेक्षा की गयी।
समाज कोई व्यक्ति नहीं है। जब आप समाज को संबोधित करते हुए कोई बात कर रहे हैं तो समझ लीजिये हवा में उड़ा रहे हैं। समाज से व्यक्ति की पहचान है पर मनुष्य की इंद्रियां समाज के स्वरूप को समझ नहीं सकती। उसके लिये मन और बुद्धि की सक्रियता आवश्यक है। वह लोगों में मरती जा रही है। यह समाज की मौत नहीं है पर व्यक्ति को असहाय कर मौत के मार्ग पर जाने के लिये के प्रेरणादायक है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। मतलब यह बिना दूसरे मनुष्य के साथ के जिंदा नहीं रह सकता। मनुष्य का स्वामी उसका मन है और अगर अपने आसपास मरे मन वाले मनुष्य हैं तो उनका होना न होना बराबर है। सोनाली और अनुराधा दोनों का मन मर गया। वह साथ होते हुए भी साथ नहीं थी। यह भयानक एकांत था। यह मार्ग उन्होंने स्वयं चुना था। इसके लिये कौन जिम्मेदार माना जा सकता है।
अनुराधा ने देह त्याग दी पर सोनाली जीवित है। वह अस्पताल में है। भाई आ गया है। भाई का संघर्ष ही सोनाली का मन जिंदा कर सकता है। मनो चिकित्सक इस बात को नहीं समझ पायेंगे कि आखिर हुआ क्या था? कुछ नहीं हुआ था। यह मन चंचल है। चलता रहे तो चलता रहे, मना खड़ा रहा तो जिंदा आदमी को मुर्दा बना देता है। हमारा अध्यात्मिक दर्शन मन पर नियंत्रण करने के लिये कहता है उसे मारने के लिये नहीं! अपढ़, अशिक्षित, और ग्रामीण भारत के लोग अध्यात्मिक दर्शन के निकट रहते हैं और भले ही मन पर नियंत्रण करने की कला नहीं जानते पर उसे मरने नहीं देते। काले जादू से भी नहीं। सोनाली स्वस्थ हो इसके लिये हमारी उसे हमारी शुभकामनायें हैं क्योंकि आदमी को मारता मन है न कि काला जादू।
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Saturday, April 02, 2011

क्रिकेट पर तीन क्षणिकाऐं (short poem on cricket world cup 2011)

इंडिया में क्रिकेट भी एक धर्म है
प्रचारक जी ने बताया,
मगर फिक्सिंग की इसमें कैसी परंपरा है
यह नहीं समझाया।
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क्रिकेट वह धर्म है
जिसमें खेलने से पहले खिलाड़ी
बाज़ार में नीलाम होते हैं,
सट्टा लगाने पर मिलता है प्रसाद
कोई होता भी है इसमें बरबाद
जीतने से ज्यादा
हारने पर आमादा
क्रिकेट खेलने वाले गुलाम होते हैं
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