Wednesday, February 26, 2014

समाज सेवा के कारोबार में-हिन्दी व्यंग्य कविता(samar sewa ke karobar mein-hindi vyangya kavita)



 कैमरे के सामने आते ही समाज सेवकों की बाछें खिल जाती हैं,
चंदे के कारोबार में प्रचार की पंक्तियों की सांसें मिल जाती हैं।
जन कल्याण की दुकानें शहर और गांव में जगह जगह खुल गयी हैं,
मालिकों खाते चंदे की मिठाई जिसमें  दान की मिश्री घुल गयी है,
देश के एक सिरे से दूसरे सिरे तक सेवकों की टोली फैली है,
बेबसों की संख्या यथावत पता नहीं किसकी नीयत मैली है,
गायक गाते अभिनेता नाचते मजबूरों के लिये चंदा मांगते,
भूल जाते सब जब भरी जेब की पतलून घर में खूंटी पर टांगते,
कहें दीपक बापू विकास दर के साथ गरीबी और बेबसी भी बढ़ी हैं
समाज सेवा के कारोबारियों के खाते में रकम भी बढ़ती जाती है।
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लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा "भारतदीप"
ग्वालियर, मध्यप्रदेश 
Writer and poet-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior, Madhya pradesh
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
jpoet, Writer and editor-Deepak 'Bharatdeep',Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
 
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Monday, February 17, 2014

पैसे में होती आस्था-हिन्दी व्यंग्य कविता(paise mein hotee aastha-hindi vyangya kavita)



आंदोलन से सरल हो जाता है चुनाव का रास्ता,
सेवा के दावे का स्वामी बनने की टिकट से होता वास्ता।
आज के जमाने कोई मुफ्त भलाई नहीं करता,
चंदा कहीं से लेकर  अपने कटोरे में मलाई कहीं भरता,
निष्काम कर्म की बात करते मिलते सभी लोग,
अपने मन में लिये ढेर सारी कामनाओं के रोग,
दूसरे को बेच रहे सपने सस्ते दाम में,
अच्छा हो तो खुश गलती डालते दूसरे के नाम में,
कहें दीपक बापू भलाई और सेवा का धंधा सरल है,
पेशेवर रटते सर्वशक्तिमान का नाम पैसे में होती आस्था।
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लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा "भारतदीप"
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Tuesday, February 11, 2014

हंसी का इंतजाम-हिन्दी व्यंग्य कविता(hansi ka intzam-hindi vyangya kavita)




हर कोई लगा रहा एक दूसरे पर भ्रष्टाचार का इल्जाम,
अपने कसूरों से बेखबर लिखते खुद ही अपना ईमानदारों में नाम।
लोगों के खजाने पर खतरे मंडराते हैं नहीं देते अब सांप पहरा,
सारे सबूत सामने हैं पर दावा यह कि चोरी का राज है गहरा,
पर्दे पर चर्चा होती विज्ञापनों के बीच भ्रष्टाचार हटाने की,
हंसी और मजाक करते हुए विद्वान कहते बात महंगाई घटाने की,
शिखर पर पहुंचे खास लोग लगाते हैं भलाई के नये नारे,
बेबस हो रहा आम इंसान दिन में दिखते हैं जमीन पर तारे,
कहें दीपक बापू दूसरे पर न छोड़ो  अपनी खुशी का काम,
हुक्मतों के लिये मुश्किल है खुद ही करो अपनी हंसी का इंतजाम।
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लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा "भारतदीप"
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Monday, February 03, 2014

बेबस आदमी नाखुश गुर्रा रहा है-हिन्दी व्यंग्य कविता(bebas aadmi nakhush gurra rahaa hai-hindi vyangya kavita)



आम इंसान की सांसों को थाम रही बढ़ती महंगाई,
विकास के स्वर्णिम रथ से बंट रही  गरीब को भलाई।
कहें दीपक बापू सबसे आसान है दिन में देखना सपने,
साकार करना कठिन हो तो लगें भगवान नाम जपने।
रिश्तों की डोर कभी टूटती नहीं यह सच बात है,
मगर मेहमानों की महंगी पड़ ही जाती एक रात है।
जेब में पैसा हो तो आशिक पर इश्क का भूत चढ़ता है,
खाली जेब से होता जब नाकाम दोष माशुका पर मढ़ता है।
दिमाग में सामान खरीदने की सूची बहुत लंबी बसी है,
मुश्किल है कुछ लोगों के हाथ दुनियां की हर शय फसी है।
परिवार और समाज टूटे अब खतरा इंसानी जज्बात पर आ रहा है,
दौलत बसी कुछ घरों में बाहर बेबस आदमी नाखुश गुर्रा रहा है।

लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा "भारतदीप"
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