Tuesday, April 22, 2014

पेशेवर बुद्धिमानों की मजबूरी-हिन्दी हास्य कविता(peshewar buddhimanon ki mazboori-hindi comedy poem)



आया फंदेबाज और बोला
‘‘दीपक बापू बड़े बड़े लफ्फाज
प्रचार पाकर मशहूर हो गये,
एक तुम हो जो ज्ञान होते हुए भी
लोगों की नज़रों से दूर हो गये,
कोई ऐसी कविता लिखो जिससे
ज़माने में तहलका मच जाये,
तुम्हारी वाह वाह करने से कोई न बच पाये,
नित लिखो शब्द नये।
सुनकर पहले चौंके फिर
हंसते हुए बोले दीपक बापू
‘‘लोगों को प्रभावित करने के लिये
ज्ञान हो या न हो विज्ञापन देना जरूरी है,
पहले कुछ खर्च करो
फिर लोगों से निकलवाओं पैसा
इस चालाकी पर चलना पेशेवर बुद्धिमानों की  मजबूरी है,
ज्ञान हो तो उस पर चलें या नहीं
बघार कर तालियां लोगों से बजवा सकते हैं,
चिंत्तन कोई नहीं पढ़ता
चुटकुलों को लोग तकते हैं,
लेखक बहुत हैं पर हिन्दी साहित्य में
लेखन के अकाल पर लोग रोते हैं,
गरीब के सुंदर शब्द लिखने पर भी लोग बोर होते हैं,
अमीर और उच्च पदस्थ चाहे जैसा भी लिखे
कूड़े भी हो तो बोझ  सिर पर सभी ढोते हैं,
लिखने को हम लिख लेते हैं
प्रसिद्धि का प्रबंध करना नहीं आता,
शब्दों मे झौंक देते पूरी ताकत
दंदफंद करना नहीं भाता,
पहले प्रसिद्ध होने की चाहत होती थी,
तब उपेक्षा पर हमारी भावना रोती थी,
अंतर्जाल पर आने पर पता लगा
टूटा बिखरा समाज है,
देखता दूसरे का दोष
छिपाता अपने राज है,
खौफ में जी रहे हैं बड़े बड़े लोग,
कुछ खो जाने का डर बन गया
उनका स्थाई रोग,
स्वांत सुखाय लिखने में अलग मजा है
दूसरों के विषय हम उठा कर लिखें
वह दिन अब गये,
मशहूरी के बोझ तले रचनाधर्मिता के दबने का रहता खतरा
नहीं मिली वाह वाह कोई बात नहीं
अपने लिये बने रहते हैं हम सदा नये।
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लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा "भारतदीप"
ग्वालियर, मध्यप्रदेश 
Writer and poet-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior, Madhya pradesh
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
jpoet, Writer and editor-Deepak 'Bharatdeep',Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
 
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Monday, April 14, 2014

प्रदर्शनी समाचार-हिन्दी व्यंग्य कविता(pradashini samachar-hindi vyangya kavita)



जिन्होंने देखी नहीं कभी गरीबी
क्या रहेगी उनकी दर्द से करीबी
हमदर्दी के बयान देकर तालियां बटोर लें यह अलग बात है,
प्रचार सुख में गुजरता उनका दिन बहलती रात है।
कहें दीपक बापू पर्दे पर नकली जंग रोज दिखती है,
बंदूक और तोप नहीं कलम पहले उसकी पटकथा लिखती है,
पेशेवर सजाते  चित्र प्रदर्शनी जो समाचार जैसे लगते हैं,
देख कर वाह वाह कर रहे दर्शक खुद को ठगते हैं,
नायकत्व की छवि बन गयी है बहुत सारे इंसानी बुतों की
बाहर बैठे निर्देशकों के इशारे से पर्दे पर चलते फिरते हैं
मजे लेने में लगे लोग क्या जाने यह अंदर की बात है।
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लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा "भारतदीप"
ग्वालियर, मध्यप्रदेश 
Writer and poet-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
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Tuesday, April 08, 2014

लोगों के मसले पैने हैं-हिन्दी व्यंग्य कविता



टुकड़ों टुकड़ों में बंटा है समाज,
हर इंसान अपनं मतलब के लिये बन जाता बाज़,
छिपा रहा है हर कोई अपने बुरे कारनामो के  राज,
फिर भी मानते हैं सभी
कोई फरिश्ता आसमान से उतरकर आयेगा,
जहान में एकता कायम कर पायेगा।
कहें दीपक बापू मन का वहम है
या खुद को ही धोखा खा देना
यह सोचना कि सर्वशक्तिमान
इंसानों में किसी को अपने जैसा बनायेगा।
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लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा "भारतदीप"
ग्वालियर, मध्यप्रदेश 
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