उस बालक ने श्वान पर ही प्रस्तर प्रहार किया था। जब बालक श्वान पर प्रहार करने वाला था तो उसने देख लिया और भाग गया। बालक का निशाना भी कोई अचूक नहीं था और वह हमारे साइकिल के बीचों बीच निकल कर पास से निकल रहे एक स्कूटर को जा लगा।
स्कूटर चालक के साथ एक महिला भी थी जो संभवत उसकी पत्नी रही होगी। स्कूटर वाला आगे जाकर रुका और चिल्लाया-‘ऐ किसने फैंका यह पत्थर?’
पांच से सात वर्ष का वह बालक सहमा हुआ उसे देख रहा था। स्कूटर चालक उतर कर उसके पास आया और बालक को संबोधित कर बोला-‘दूं एक थप्पड़! क्यों मारा पत्थर?’
बालक सहमते हुए अब भी उसे निहार रहा था। इतने में पास ही से ईंटों की कच्ची झौंपड़ी से उस बालक की मज़दूर मां निकल कर आयी और बोली-‘बाबूजी, यह पत्थर यह अक्सर उस कुत्ते को मारता है जो एक बार इसके पीछे दौड़कर काटने की कोशिश कर चुका है। यह गोली खरीदने जा रहा था तो वह यहीं सोया हुआ था, इसलिये उसे भगाने के लिये यह पत्थर मारा था। अब वह कुत्ता तो भाग गया।’
स्कूटर चालक ने कहा-‘आइंदा ध्यान रखा करो। किसी को लग जाये तो, या फिर उसकी वजह से किसी की गाड़ी का संतुलन बिगड़ा तो कितनी परेशानी होगी।’
बीच में हमने भी बोला दिया कि ‘हां, इसने उस कुत्ते पर ही पत्थर फैंका था!
इस कहानी में ऐसा कुछ नहीं है कि लिखा जाये मगर जब किसी संत के आश्रम के पास गोली चलकर उसके आश्रम पहुंची हो और भक्त अपने गुरु पर चलाई बता रहें तो यह कहानी याद आनी ही थी।
जीवन की कला सिखाने वाले संत! सारी दुनियां को जीवन शांति से बिताना सिखाने वाले संत अपने पड़ौसियों को नहीं सिखा पाते कि पशुओं को भी शांति से जीने का हक है। इसे कहते है कि घर का ज्ञानी बैल बराबर!
कहां संत कहां श्वान! भक्तों को गुस्सा आ सकता है। जिस समय उपरोक्त कहानी की पात्र महिला मज़दूर मां ने अपनी स्कूटर चालक से कहा कि ‘इस बच्चे ने तो कुत्ते को पत्थर मारा था’ तब वह दूर स्कूटर के पास खड़ी अपनी पत्नी की तरफ निहारा था कि कहीं वह सुन तो नहंी रही। एक पत्थर जो कुत्ते की तरफ उछाला जाये और आदमी को लगे तब घायल होने पर भी शायद उसे इतना बुरा न लगे पर उससे बड़ा घाव तो उसके दिल पर इस बात से होगा कि वह कुत्ते के लिये उछाला गया था। जब स्कूटर चालक चला गया तो हमने उसकी सहनशीलता की मन ही मन तारीफ की। साथ में उस मज़दूर महिला के सच बोलने पर भी गुस्सा आ रहा था। वहां एक गाय, बकरी, मुर्गी और भैस के अलावा एक बैल भी था। वह कह सकती थी कि ‘गाय को मारा है।’ इस नाम में पवित्रता है और कोई बुरा नहीं मानता। कुत्ता शब्द पर वह स्कूटर चालक गुस्से में लड़को एक दो हाथ भी जड़ सकता था। उसने ऐसा नहीं किया यह उसकी महानता थी।
जीवन की कला सिखाने वाले संत के आश्रम के पीछे ही उसके पड़ौसी के भेड़ पालने का आश्रम है-अब हिन्दी में फार्म हाउस का अनुवाद पता नहीं है सो यही ठीक लगता है-जहां श्वान उसके पालतुओं पर आक्रमण करते रहते हैं जिनको भगाने के लिये उसने पिस्तौल से एक नहीं दो गोलियां चलाईं।
जांच अधिकारी उसकी बात से संतुष्ट नज़र आ रहे हैं। इधर संत श्री की बात भी सच नज़र आ रही है कि उन्होंने गोली की आवाज़ सुनी थी। उन्होंने शायद पहली गोली की आवाज सुनी थी पर जो उनके भक्त के पास गयी वह शायद दूसरी गोली थी जो कुछ अंतराल के बाद चली होगी। लोगों ने पहले इस बात पर संदेह जाहिर किया था कि संत के मंच पर रहते हुए गोली हो। मंच पर जब वह थे तब पहली गोली होगी पर उनके भक्त के पास पहुंची दूसरी गोली ने ही सबसे अधिक बवाल मचाया।
इस गोली पर जितनी बहस हुई अब उस पर हंसना ही चाहिए। धर्म, जाति, भाषा, तथा वर्ग के आधार पर अनेक प्रकार के आतंकवाद पर बहस हो गयी। अब तो संत भी सुरक्षित नहीं है जैसी बात कही गयी। अब तो ऐसा लगता है कि आज़ादी के बाद जितनी भी बहसें होती रही हैं सब बेकार हैं। कभी कभी तो लगता है कि एशियाई देशों में बढ़ती जनसंख्या को संभालना कठिन है इसलिये यहां के देशों के आर्थिक, सामाजिक तथा धार्मिक शिखर पुरुष बेकार की बहसों के लिये अपने अनुयायी नियुक्त करते हैं जिनको बुद्धिजीवी भी कहा जाता है। इतना ही नहीं इनके लिये बहस के नाटक वास्ते वह मुद्दे लाने के लिये कहीं खेल तो कहीं हादसे भी कराते हैं ताकि लोग भ्रामक मुद्दों में उलझे रहें। अभी पश्चिम से पुरस्कार प्राप्त एक लेखिका नक्सलवादियों का खुलेआम समर्थन कर रही है। सवाल यह है कि संगठित प्रचार माध्यम उसे छाप क्यों रहे हैं? तय बात है कि संगठित प्रचार माध्यम भी कहीं न कहीं शिखर पुरुषों पर आश्रित हैं और उनको पता है कि ऐसे पुरस्कार विजेता उनके लिये बहस का सामान प्रयोजित करने वाले कारिंदे हैं अतः आगे उनके विरोधियों से लिखवाने के लिये ऐसे मूर्खतापूर्ण बयान छापना जरूरी है।
बात उससे भी आगे हैं! वह विदेश से मान्यता प्राप्त है तो उसका दूर दिया गया बयान छाप देते हैं और हमारे तीन तीन आध्यात्मिक लेख एक अखबार बिना नाम के छाप देता है क्योंकि कहीं से प्रायोजित नहीं है। एक स्तंभकार ने तो हद ही गांधीजी, ओबामा तथा नोबल पुरस्कार पर लिखे गये तीन लेखों के सभी पैरे उड़ाकर अपना लेख लिख लिया। इधर यह अखबार कहते हैं कि इंटरनेट पर अच्छा नहीं लिखा जा रहा उधर बिना नाम के हमारे ही नहीं दूसरों के भी लेख छाप रहे हैं। स्वतंत्र बुद्धिजीवी, विचारक और चिंतक को उबरने नहीं देंगे, गैर प्रायोजित रहने वाले संत को मानेंगे नहीं, जो समाज या पूंजीपतियों से सम्मानित नहीं है तो उस समाज सेवक को फोकटिया मानेंगे और चाहे जिसने श्री मद् भागवत् गीता, संत कबीर, गुरुग्रंथ साहिब तथा रामायाण का जितना भी अध्ययन किया हो पर उसे तब तक ज्ञानी नहीं मानेंगे जब तक वह साधु दिखने के लिये सफेद या गेरुए वस्त्र नहीं धारण करेगा। अध्यात्मिक ज्ञान करते करते जब तक मनोरंजन बात न करे तब किसी को संत नहीं मानेंगे-यह प्रवृत्ति पूरे समाज की हो गयी है इसलिये उसके सामने दूर के ढोल सुहावने रखने के लिये ऐसे ही मुद्दे रखे जाते हैं जिससे उसका संबेध नहीं है।
बहरहाल जिस आदमी ने श्वान को गोली मारी उसके लिये अब पशु प्रेमी संकट खड़ा कर सकते हैं। वैसे श्वान को गोली मारने के लिये चलाना अजीब लगता है पर शायद वह उनके भेड़ों पर श्वानों के झुंड से हमले का खतरा रहा होगा। वरना श्वान तो पानी से भी भागता है। उस दिन हमने घर के बाहर अपने कीचड़ में सने जूते धोने के लिये जैसे डिब्बे से पानी डाला, बाहर थोड़ी दूर सो रहा श्वान भाग खड़ा हुआ इस आशंका से आदमी का क्या भरोसा कि कब दिमाग फिर जाये और पानी मेरी तरफ उछाल दे। यह लिखने की बात नहीं है पर इतनी बहस में इतने सारे शब्द खर्च हो गये तो थोड़ा और ही सही। बस अंतर इतना है कि बाकी बहसें प्रयोजित हैं सो भाग लेने वालों को कुछ न कुछ मिलता है हम तो ठहरे फोकटिया पर क्या करें, लिखने के लिये कोई जगह तो चाहिए न!
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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