Friday, November 30, 2012

चाणक्य नीति-अवसर आने पर ही कोयल की तरह बोलें (samaya hone par koyal kee tarah bolen-chankya neeti and chankya policy)

                        कहा जाता है कि मनुष्य को अपनी जीभ ही छाया में बैठने की सुविधा दिलवाती है  है तो कभी धूप में भटकने का मजबूर करती है।  मनुष्य का मन अत्यंत चंचल है और जीभ उसकी ऐसी अनुचर है जो बिना विचारे शब्दों का प्रवाह बाहर कर देती है।  मन और जीभ के बीच जो बुद्धि या विवेक तत्व है पर मनुष्य  मन उतावलनेपन की वजह से उपयोग नहीं करता। यही कारण है कि मनुष्य अनुकूल और प्रतिकूल समय की परवाह किये बिना बोलता है।  कभी सामर्थ्य से अधिक साहस तो कभी शक्ति से अधिक क्रोध प्रकट कर अनेक मनुष्य कष्ट उठाने के साथ ही कभी कभी तो अपनी देह तक गंवाते हैं।
               एक नहीं ऐसी अनेक घटनायें हम देखते हैं जिसमें असमय आवेश और शक्ति से अधिक साहब दिखाने वाले आदमी संकटग्रस्त होते हैं। वैसे हमारे समाज में तत्वज्ञान का अभाव साफ दिखता है।  हर आदमी हर विषय पर  बोलना चाहता है। किसी विषय में ज्ञान हो या नहीं सभी उसमें अपनी विशेषज्ञता  जाहिर करना चाहते हैं।  स्वयं को अन्य से श्रेष्ठ दिखाने के लिये मनुष्य पाखंड की हद तो पार करता ही है अपनी वाणी से अपने ऐसे कार्यों को संपन्न करने का दावा करता है जो उसने किये ही नहीं होते। सारी जिंदगी स्वार्थ में गुजारने वाले भी अपने परमार्थी होने का विज्ञापन देते हैं।
चाणक्य नीति में कहा गया है कि
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प्रस्तावसदृशं वाक्यं प्रभावसदृशं प्रियम्।
आत्मशक्तिसमं कोपं यो जानाति स पण्डितः।।
          हिन्दी में भावार्थ-जो मनुष्य अनुकूल समय पर बात करता है, सामर्थ्य के अनुसार साहस दिखाता है और अपनी शक्ति के अनुसार क्रोध भी प्रकट करता है।
लावन्मौनेन नीयन्ते कोकिलैश्चैव वासराः।
यावत्सर्वजनानन्ददायिनी वाक्प्रवर्तते।।
         हिन्दी में भावार्थ-जब तक मनुष्यों को आनंद प्रदान करने वाली बसंत ऋतु नहीं आती तब तक कोयले मौन रहकर अपना दिन बिताती हैं।
       भारतीय अध्यात्मिक दर्शन से दूर होते जा रहे हमारे   समाज में शोर करने वाले साहसी और मौन रहने वाले मूर्ख माने जाने लगे हैं।  ऐसे में ज्ञानियों को कोयल की तरह समय और स्थितियां देखकर अपनी बात कहना चाहिये।  जाति, समाज, भाषा तथा धार्मिक समूहों ने देश में ऐसे हालात पैदा कर दिये हैं उन्हें अपनी प्रतिकूल बात सुनने पर आक्रामकता दिखाने की सुविधा मिल जाती है।  यह धारण बना दी गयी है कि देश का आम आदमी अपनी पहचान से बने समूहों का सदस्य है और उनके शिखर पुरुष उसके नियंत्रणकर्ता होने के साथ ही  महान सत्यवादी है।  हालांकि यह सोच एकदम भ्रामक है।  स्थिति यह है कि भारतीय अध्यात्मिक दर्शन की पहचान उन लोगों में नहीं दिखती  जो उसके विस्तार का दावा करते हैं।  ऐसे में अपनी बात केवल उन्हीं लोगों में कहना चाहिए जो सुनने की क्षमता रखते हों।  आज के खान पान, रहन सहन और चाल चलन से  मनुष्य के सहने की क्षमता कम हो गयी है।  कहा भी जाता है कि कमजोर आदमी को गुस्सा जल्दी आता है।  स्थिति यह है कि कथित महानतम ज्ञानी लोग भी अपनी बात आक्रामक शब्दों में सजाकर प्रस्तुत करते हैं।  उनका विरोध करने का मतलब  है कि उनके आश्रित आक्रामक तत्वों से सामूहिक बैर बांधना।  इसलिये  ज्ञानी और साधकों के लिये यही बेहतर है कि वह अपने शब्दों का संतुलित ढंग से उपयोग करें। इतना ही नहीं व्यर्थ के वार्तालापों में व्यस्त सामान्य मनुष्यों को भी निंदा परनिंदा से दूर होकर सकारात्मक कार्यों में अपना समय बिताना चाहिए।   
लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा "भारतदीप"
ग्वालियर, मध्यप्रदेश 

Writer and poet-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior, Madhya pradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
jpoet, Writer and editor-Deepak 'Bharatdeep',Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
 
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