आदर्श की चर्चा जब बढ़ती, बात मनाने की जिद्द
भी चढ़ती है।
‘दीपकबापू’ भलाई की दुकान में, दाम के मोल से दया चढ़ती है।।
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घर में सभी विराजते देवरूप, सड़क पर आकर दानव हो जाते।
‘दीपकबापू’ भलाई बिकती नहीं, प्रसिद्ध पाखंडी मानव हो जाते हैं।।
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कहीं कातिल नायक कहलायें, कहीं शिकार शहीद
बन जायें।
‘दीपकबापू’ मौत के खेल में, कलमकार भी मुर्दा शब्द सजायें।।
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घर में ही स्वर्ग का विज्ञापन, पढ़कर मन चहक ही जाता
है।
‘दीपकबापू’ आंखें खुली बुद्धि बंद, इंसान बहक ही जाता है।।
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बड़े बोल पर्दे पर आकर बोलें, चरित्र से छोटे भी
होते लोग।
‘दीपकबापू’ जीभ से चबाते शब्द, अर्थ में हो जैसे गणित योग।।
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कहीं रोटी कहीं मांगते भात, कहीं मिले कही पड़
जाती लात।
‘दीपकबापू’ याचक रूप में, अपमान लगती मान की भी बात।।
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कभी राम कभी हनुमान भजते, कभी सांई नाम से
उलझें।
‘दीपकबापू’ ओम हृदय में रखें, तत्वज्ञान से बैर को सुलझें।।
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सबसे कहें छोड़ स्वयं मोह जोड़ें, धर्म बनायें पेड़
धन फल तोड़ें।
‘दीपकबापू‘ रहें महल में त्यागी, दान से दयालुता का नल जोड़ें।।
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अंग्रेजी के ढेर सारे शब्द जोड़े, भाषा के पांव विकास
पथ पर मोड़े।
दीपकबापू नहीं समझते हिंग्लिश, शब्दों के अर्थ जैसे
लंगड़ाते घोड़े।।
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चंदन के पेड से सांप जैसे लिपटे, भ्रष्टचारी समाज
में वैसे चिपटे।
दीपकाबापू ईमानदार वीरों जैसे, अभावों में त्याग
से लड़ते निपटे।।
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मदिरा से मनमस्ती आती अगर, मदिरालयों में स्वर्ग
दिख जाता।
‘दीपकबापू’ विष का नाम अमृत, बर्बादी का नाम मजा लिख लाता।
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दर्द बिकता महंगा बाज़ार में, रोती कवितायें लिखना
सरल।
‘दीपकबापू’ हास्य रस में नहायें, न पीयें आंसुओं का गरल।।
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खाने में सब्जी हो या मांस, भरे पेट वालों की
बहस जारी।
‘दीपकबापू’ बाज़ार नहीं जाते कभी, जताते हल्के तर्क भी भारी।।
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गैरों
पर फब्तियां कसना सहज, अपने गिरेबां में कोई नहीं झांकता।
‘दीपकबापू’ अपने दर्द पर रोयें, पराये पर हर कोई
हंसी टांकता।।
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लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा "भारतदीप"
Writer and poet-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior, Madhya pradesh
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
jpoet, Writer and editor-Deepak 'Bharatdeep',Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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