Wednesday, April 13, 2016

प्रकृत्ति का खेल-हिन्दी कविता(Prikriti ka Khel-HindiPoem)

परवाह नहीं थी
जब आकाश से
बादल बरसे थे।

तब भूल गये
कभी बूंद भर
पानी के लिये तरसे थे।

कहें दीपकबापू प्रकृत्ति का खेल
सदियों से चल रहा है
सूरज की आग से
चंद्रमा भी जल रहा है
इंसान की स्मरणशक्ति क्षीण
लालच में गले लगाता 
उन लुटेरों को भी
जिनके हाथ पहले फरसे थे।
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लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा "भारतदीप"
ग्वालियर, मध्यप्रदेश 
Writer and poet-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior, Madhya pradesh
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
jpoet, Writer and editor-Deepak 'Bharatdeep',Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
 
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