हरिद्वार में आयोजित गायत्री महाकुंभ के दौरान मची भगदड़ में अनेक लोगों की मौत होने का समाचार अत्यंत दुःखदायी है। हम यह कामना करते हैं कि परमात्मा मृतकों के परिवारों को पीड़ा सहने की क्षमता और हताहतों को जल्दी स्वास्थ्य प्रदान करे।
एक योगसाधक, गीता शिष्य और और अध्यात्मिक लेखक होने के नाते इस घटना पर हमारे लिये लिखना अत्यंत द्वंद्वपूर्ण और पीड़ादायक है। एक तरफ भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान का भंडार है तो दूसरी तरफ मासूम और भोले लोगों का अज्ञान जो उन्हें कहीं भी इंसान से भीड़ की भेड़ बना देता है। कभी मानसिक शांति तो कभी अपना सांसरिक कार्य सिद्ध होने की कामना उनको धार्मिक कर्मकांडों की तरफ आकर्षित करती है। जिस कार्य को करना उनके हाथ संभव है उसके लिये कोई याचना नहीं करता पर जिसका आधार कोई अन्य व्यक्ति, समय या स्थितियां हैं वहां हर मनुष्य अनकूल परिणाम के लिये अदृश्य शक्ति की तरफ देखता है। चुप बैठ नहीं सकता तो अपने हाथ से हवन, तंत्र मंत्र या दान अपनी सक्रियता से अपने आपको तसल्ली देता है। ऐसे में बरसों से सक्रिय बाज़ार तंत्र उसके सामने अध्यात्म के नाम पर अपना सौदा बेचता है। जिसे आदमी समझ नहीं पाता। संसार के काम तो बनते बिगड़ते रहते हैं जिसका बन गया वह मुरीद बन गया जिसका नहीं बना वह भगवान की मर्जी मानकर बैठ गया। बहरहाल अध्यात्म के नाम मेले लगते हैं और लोग उसमें शामिल होकर अपने आपको धन्य मानते हैं। सब ठीक रहा तो आयोजकों की वाह वाह और कोई हादसा हुआ तो दुर्भाग्य का दोष दिया जाता है।
हम यहां गायत्री परिवार के संस्थापक श्रीराम आचार्य की जन्मशती के अवसर आयोजित कार्यक्रम में हुई भगदड़ पर न तो आयोजकों से सवाल करेंगे न ही सरकार या पुलिस पर आक्षेप करेंगे। हम तो यह सीधे भारतीय समाज के महानुभावों को संबोधित कर पूंछेंगे कि क्या वह वास्तव में अध्यात्म और धर्म का मतलब समझते हैं? क्या वह पेशेवर गुरुओं और संस्थाओं के शीर्षपुरुषों की सोच को ही अंतिम मानने की बजाय कभी स्वयं धर्म ग्रंथों की विषय सामग्री पर चिंत्तन और मनन करते हैं?
सवाल किया है पर जवाब नहीं चाहिए। भारतीय समाज की स्थिति यह है कि उसे अध्यात्म ज्ञान की चर्चा और कर्मकांड के के निर्वहन के लिये एक मध्यस्थ चाहिए। लोग सामान्य सांसरिक विषय पर इस तरह ज्ञान बघारते हैं जैसे कि उनका कोई सानी नहीं है पर जब अध्यात्मिक ज्ञान की बात हो तो कहते हैं कि यह तो सन्यासियों और संतों का विषय है। श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन करने वाले जानते हैं कि यज्ञ और हवन केवल प्रथ्वी पर उत्पन्न वस्तुओं से ही नही होता वरन् देह में भी वही पदार्थ हैं और पसीने के माध्यम से उनको बाहर लाना भी यज्ञ सम्पन्न करने जैसी प्रक्रिया है। भगवान श्रीकृष्ण ने प्रायायाम और ध्यान को भी यज्ञ कहा है। प्राणायाम से देह में जो ऊर्जा पैदा होती है वह यज्ञ सामग्री ही है। उस समय गायत्री मंत्र का जाप करने का सीधा मतलब यही है कि हम एक महान अध्यात्मिक यज्ञ कर रहे हैं। योगसाधक इस यज्ञ को प्रतिदिन करते हैं और इसके लिये उनको कहीं जाने की आवश्यकता नहीं होती। दूसरी बात यह है कि अध्यात्मिक कर्म नितांत एकांत में किया जाता है उसके लिये मेले नहीं लगते। श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने द्रव्यमय यज्ञ से ज्ञान यज्ञ को श्रेष्ठ माना है। ज्ञानी लोग प्राणायाम आदि के बाद ध्यान तथा मंत्रजाप वही यज्ञ और हवन काम करते हैं जो सामान्य मनुष्य बाहरी पदार्थों से करते हैं। यही कारण है कि भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि वैसे तो मुझे सारे भक्त प्रिय हैं पर ज्ञानी तो मेरा ही रूप है।
अध्यात्मिक के नाम पर समय पास करने या मनोरंजन के लिये इस तरह के मेले लगते हैं उसमें शामिल होने वाले लोगों को कितना लाभ होता है इस पर बहस करने की आवश्यकता नहीं है पर इतना तय है कि परेशान हाल लोग कुछ समय के लिये अपने घर से बाहर होकर तनाव रहित होते हैं पर फिर वापसी पर वहीं पुरानी स्थिति हो जाती है। एकांत में योग साधना तथा अध्यात्मिक चिंत्तन करने वाले जहां है वहीं प्रतिदिन स्वयं को नवीनता प्रदान करते हैं। दरअसल इस तरह के मेले लगवाने वाले ज्ञानी नहीं हो सकते। यह एक तरह से अपने धर्म का प्रदर्शन है जिसे राजस या तामस कुछ भी समझा जा सकता है पर सात्विक कतई नहीं कहा जाता। ऐसे में समाज के समझदार लोगों को यह देखना चाहिए कि वह अपने आसपास के लोगों को समझायें कि इस तरह के मेले अध्यात्मिक शांति या मानसिक सुख नहीं दे सकते।
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कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
poet, Writer and editor-Deepak 'Bharatdeep',Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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