आजकल एक धार्मिक संत की फिल्म ‘भगवान का संदेश वाहक’ (messanger of god)नामक फिल्म की चर्चा है। इस फिल्म मेें नायक, गायक, लेखक,
संगीतज्ञ तथा निर्देशक वही संत है जिसके पांच करोड़
से अधिक भक्त हैं। इसी चर्चा के बीच एक मुंबईया फिल्म पीके का भी नाम चल रहा
है। इसमें भारतीय धर्म पर व्यंग्य कसे गये
है। इस फिल्म में नायक की भूमिका निभाने वाला एक चाकलेटी चेहरे वाला अभिनेता है।
आयु से अधेड़ कहलाने योग्य उस अभिनेता के अभिनय की चर्चा अधिक करना व्यर्थ है। वैसे भी हमारी मुंबईया फिल्मों में पचास के पार
हो चुके अधेड़ अभिनेता नायकत्व पाकर षोडषवषीर्य समाज में सम्मानित हो रहे हैं। यह सम्मान मजबूरी भी हो सकती है क्योंकि हमारे
देश में खर्च करने के लिये पैसा और समय बहुत हो गया है। हम फिल्म देखने के बहुत शौकीन रहे हैं पर दो सौ
रुपये की टिकट और ढाई घंटे का समय खर्च कर हम फिल्म नहीं देखना चाहते।
अभी एक फिल्म आई थी। ओ माई गॉड। कटाक्ष उसमें भी थे पर उसमें जिस तरह
श्रीमद्भागवत गीता का संदेश स्थापित हुआ था उससे हमें प्रसन्नता हुई। पीके फिल्म के विज्ञापन में तमाम तरह के कटाक्ष
है जो प्रभावी है शायद दर्शक इसी वजह से जा रहे हैं। हमने फिल्म देखी नहीं है पर पता चला कि इसमें
एक भारतीय हिन्दू लड़की का पाकिस्तान के मुस्लिम लड़के से प्यार दिखाया गया है।
विज्ञापन में इसका उल्लेख नहीं है शायद यही कारण है कि उसे दर्शक मिल गये। इस
फिल्म का अंत हिन्दू हृदयों को पसंद नहीं आयेगा पर तब तक देर हो जाती है। पैसे और समय खर्च हो जाता है उसके बाद अंत से
नाराजगी जताने से कोई लाभ नहीं है। इस फिल्म में मंदिर पर दूध बहाने पर किया गया
व्यंग्य वैसा ही है जैसा ओ माई गॉड में था पर उसमें श्रीमद्भागवत गीता के लिये
सकारात्मक भाव था इसलिये धार्मिक संतुलन था जबकि फिल्म में एक भारतीय धर्म पर कटाक्ष
है फिर समाज पर इकतरफा प्रहार भी है। ऐसा
मत देखने वालों की आधार पर बना है।
बहरहाल हम हरियाणा के उस चर्चित संत की फिल्म की प्रतीक्षा कर रहे
हैं। वह पहले ऐसे संत हैं जो नायक का
अभिनय भी कर रहे हैं। प्रचार से मिली जानकारी के अनुसार जिन फिल्मों के स्टंट
दृश्यों के लिये मुंबईया फिल्मों के अधेड़ अभिनेता अपने प्रतिरूप सहयोगियों का
उपयोग करते हैं वह नायक संत ने स्वयं किये हैं। फिल्म मसाला कहानी की लगती है पर
संत के अभिनेता होने की वजह से चर्चा में है। अनेक लोगों का यह मानना कि संत ऐसा न
करें, हम इससे सहमत नहीं है। हमारा मानना
है कि हमारे देश के युवा संतों को अब फिल्म बनाना चाहिये। हमारे यहां जो मुंबईया
फिल्म का स्थापित ढांचा है वह उत्तर भारत के हिन्दी युवाओं को प्रोत्साहित नहीं
करता दूसरा यह कि वह अब जड़ हो गया है।
इसके अलावा उनके धन के साधन भी संदेहास्पद माने जाते हैं। यही कारण है कि
वहां ऐसी फिल्में बनती हैं जिसमें विवाद होते हैं। फिल्म बनाने में पैसा लगता है।
हमारे अनेक संतों के पास ढेर सारा पैसा है वह इसी तरह नायक का अभिनय कर फिल्म
बनायें तो यकीनन ज्यादा लोकप्रिय हो जायेंगे।
संभव भारतीय धर्म का प्रचार भी बढ़े।
हम याद रखें कि हमारे देश में पाश्चात्य संस्कारों के प्रचार में फिल्मों
का ही योगदान रहा है।
हम जिन संत की बात कर रहे हैं उनका नाम हम जानते थे। उन पर अनेक आरोप भी लग चुके हैं पर हमारे
बौद्धिक दृष्टिपथ में वह फिल्म के प्रचार की वजह से ही आये हैं। उनके साक्षात्कार
पहली बार सुने। यकीनन प्रभावी व्यक्तित्व के स्वामी हैं और ऐसे ही दस बीस संत
प्रचार तंत्र पर छा जायें तो मुंबईया फिल्मों का हिन्दी दर्शकों पर कम हो सकेगा।
लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा "भारतदीप"
ग्वालियर, मध्यप्रदेश
Writer and poet-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior, Madhya pradesh
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
jpoet, Writer and editor-Deepak 'Bharatdeep',Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।ग्वालियर, मध्यप्रदेश
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