गणित के खेल में
शब्द कहां टिकते हैं।
मधुर वाणी का
सम्मान नहीं हो सकता
जहां शोर के स्वर बिकते हैं।
कहें दीपकबापू रौशनी में
रहकर चुंधिया गयी आंखें
राख हो चुकी संवदेनाओं में
अनुभूतियों के जंगल
वीरान दिखते हैं।
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शब्द कहां टिकते हैं।
मधुर वाणी का
सम्मान नहीं हो सकता
जहां शोर के स्वर बिकते हैं।
कहें दीपकबापू रौशनी में
रहकर चुंधिया गयी आंखें
राख हो चुकी संवदेनाओं में
अनुभूतियों के जंगल
वीरान दिखते हैं।
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