Thursday, October 09, 2008

इतिहास तो कूड़ेदान की तरह है-व्यंग्य आलेख

लोग कहते हैं कि इतिहास से सीखना चाहिये। किसी को कोई नया काम सीखना होता है तो उससे कहा जाता है पीछे देख आगे बढ़। यह शायद अंग्रेजों द्वारा बताया गया कोई तर्क होगा वरना समझदार आदमी तो आज वर्तमान को देखकर न केवल भूतकाल का बल्कि भविष्य का भी अनुमान कर लेता है और जो पीछे देख आगे बढ़ के नियम पर चलते हैं वह जीवन में कोई नया काम नहीं कर सकता।

इतिहास किसी न किसी के द्वारा लिखा जाता और लिखने वाला निश्चित रूप से अपने पूर्वाग्रहों के साथ लिखता है। इसलिये जो इतिहास हमें पढ़ाया जाता है वह एक तरह का कूड़ेदान होता है। उससे सीखने का मतलब है कि अपनी बौद्धिक क्षमता से दुश्मनी करना। जिनकी चिंतन, मनन और अध्ययन की क्षमता कमजोर होती है पर वही इतिहास पढ़कर अपना विचार व्यक्त करते हैं। तय बात है जिसने अपनी शिक्षा के दौरान ही अपनी चिंतन,मनन और अध्ययन की जड़ें मजबूत कर ली तो फिर उसे इतिहास की आवश्यकता ही नहीं हैं। न ही उसे किसी दूसरे के लिखे पर आगे बढ़ने की जरूरत है।

आये दिन अनेक लेखक और विद्वान इतिहास की बातें उठाकर अपनी बातें लिखते हैंं। ऐसा हुआ था और वैसा हुआ था। एतिहासिक व्यक्तियों के चरित्र की मीमांसा ऐसा करेंगेे जैसे कि वह भोजन नहीं करते थे या और कपड़े कोई सामान्य नहीं बल्कि दैवीय प्रकार के पहनते थे। उनमें कोई दोष नहीं था या वह सर्वगुण संपन्न थे। कभी कभी लोग कहते हैं कि साहब पहले का जमाना सही था और हमारे शीर्षस्थ लोग बहुत सज्जन थे। अब तो सब स्वार्थी हो गये हैं। कुछ अनुमान और तो कुछ दूसरे को लिखे के आधार पर इतिहास की व्याख्या करने वाले लोग केवल कूड़ेदान से उठायी गयी चीजों को इस तरह प्रस्तुत करते हैं जैसे वह अब भी नयी हों।

बात जमाने की करें। कबीर और रहीम को पढ़ने के बाद कौन कह सकता है कि पहले समाज ऐसा नहीं था। जब समाज ऐसा था तो तय है कि उसके नियंत्रणकर्ता भी ऐसे ही होंगे। फिर देश में विदेशी आक्रमणकारियों की होती है। कहा जाता है कि वह यहंा लूटने आये। सही बात है पर वह यहां सफल कैसे हुए? तत्कालीन शासकों, सामंतों और साहूकारों की कमियां गिनाने की बजाय विभक्त समाज और राष्ट्र की बात की जाती है। इस सवाल का जवाब कोई नहीं देता कि आखिर विदेशी शासकों ने इतने वर्ष तक राज्य कैसे किया? यहां के आमजन क्यों उनके खिलाफ होकर लड़ने को तैयार नहीं हुए।

इतिहास से कोई बात उठायी जाये तो इस पर फिर अपनी राय भी रखी जाये। हम यहां उठाते हैं महात्मा गांधी द्वारा अंग्रेजों के विरुद्ध प्रारंभ किये आंदोलन की घटना। दक्षिण अफ्रीका में अंग्रेजों को जमीन दिखाने के बाद जब वह भारत लौटे तो उनसे यहां स्वाधीनता आंदोलन का नेतृत्व प्रारंभ करने का आग्रह किया गया। उन्होंने इस आंदोलन से पहले अपने देश को समझने की लिये दो वर्ष का समय मांगा और फिर शुरु की अपनी यात्रा। उसके बाद उन्होंने आंदोलन प्रारंभ किया। दरअसल वह जानते थे कि आम आदमी के समर्थन के बिना यह आंदोलन सफल नहीं होगा। अंग्रेजों की छत्रछाया में पल रही राजशाही और अफसरशाही का मुकाबला बिना आम आदमी के संभव नहीं था। आज भी भारत में गांधीजी को याद इसलिये किया जाता है कि उन्होंने आम आदमी की चिंता की। यह पता नहीं कि उन्होंने इतिहास पढ़ा था या नहीं पर यह तय है कि उन्होंनें इसकी परवाह नहीं की और इतिहास पुरुष बन गये। यह पूरा देश उनके पीछे खड़ा हुआ।

गांधीजी का नाम जपने वाले बहुत हैं और उनके चरित्र की चर्चा गाहे बगाहे उनके साथी करते हैं पर आम आदमी को संगठित करने के उनके तरीके के बारे में शायद ही कोई सोच पाता है। अपने अभियानों और आंदोलनों को जो सफल करना चाहते हैं उनको गांधीजी द्वारा कथनी और करनी के भेद को मिटा देने की रणनीति पर अमल करना चाहिये। हो रहा है इसका उल्टा।
गांधीजी के नारे सभी ने ले लिये पर कार्यशैली तो अंग्रेजों वाली ही रखी। इसलिये हालत यह है कि आम आदमी किसी अभियान या आंदोलन से नहीं जुड़ता।

बड़े बड़े सूरमाओें से इतिहास भरा पड़ा है पर वह हारे क्यों? सीधा जवाब है कि आम आदमी की परवाह नहीं की इसलिये युद्ध हारे। आखिर विदेशी आक्रमणकारी सफल कैसे हुए? क्या जरूरत है इसे पढ़ने की? आजकल के आम आदमी में व्याप्त निराशा और हताशा को देखकर ही समझा जा सकता है। पद, पैसे और प्रतिष्ठा मंें मदांध हो रहे समाज के शीर्षस्थ लोगों को भले ही कथित रूप से सम्मान अवश्य मिल रहा है पर समाज में उनके प्रति जो आक्रोश है उसको वह समझ नहीं पा रहे। महंगी गाड़ी को शराब पीकर चलाते हुए सड़क पर आदमी को रौंदने की घटना का कानून से प्रतिकार तो होता है पर इससे समाज में जो संदेश जाता है उसे पढ़ने का प्रयास कौन करता है। बड़े लोगों की यह मदांधता उन्हें समाज से मिलने वाली सहानुभूति खत्म किये दे रही है। देश की बड़ी अदालत ने शराब पीकर इस तरह गाड़ी चलाने वाले की तुलना आत्मघाती आतंकी से की तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिये। यह माननीय अदालतें इसी समाज का हिस्सा है और उनके संदेशों को व्यापक रूप में लेना चाहिये।

आखिर धन और वैभव से संपन्न लोग उसका प्रदर्शन कर साबित क्या करना चाहते हैं। शादी और विवाहों के अवसर पर बड़े आदमी और छोटे आदमी का यह भेद सरेआम दिखाई देता है। आजकल तो प्रचार माध्यम सशक्त हैं और जितना वह इन बड़े लोगों को प्रसन्न करने के लिये प्रचार करते हैं आम आदमी के मन में उनके प्रति उतना ही वैमनस्य बढ़ता हैं।

इतिहास में दर्ज अनेक घटनाओं के विश्लेषण की अब कोई आवश्यकता नहीं है। कई ऐसी घटनायें हो रही हैं जो इतिहास की पुनरावृति हैंं। एक मजे की बात है कि विदेशियों के विचारों की प्रशंसा करने वाले कहते हैं कि इस देश के लोग रूढि़वादी, अंधविश्वासी और अज्ञानी थे पर देखा जाये तो भले ही ऐसे लोगों ने विदेशी ज्ञान की किताबें पढ़ ली हों पर वह भी कोई उपयोगी नहीं रहा। कोई कार्ल माक्र्स की बात करता है तो कोई स्टालिन की बात करता और कोई माओ की बात करता जबकि उनके विचारों को उनके देश ही छोड़ चुके हैं। ऐसे विदेशी लोगों के संदेश यहां केवल आम आदमी को भरमाने के लिये लाये गये पर चला कोई नहीं। यही कारण है कि आम आदमी की आज किसी से सहानुभूति नहीं है। लोग नारे लगा रहे हैं पर सुनता कौन है? हर आदमी अपनी हालतों से जूझता हुआ जी रहा है पर किसी से आसरा नहीं करता। यह निराशा का चरम बिंदू देखना कोई नहीं चाहता और जो देखेगा वह कहेगा कि इतिहास तो कूड़ेदान की तरह है। टूटे बिखरे समाज की कहानी बताने की आवश्यकता क्या है? वहा तो सामने ही दिख रहा है।
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