और व्यापार कभी
दिल बहलाने के लिये नहीं होता।
मुफ्त में कुछ कोई नहीं दिल बहलाता
कहीं न कहीं जेब से पैसा जाता
विज्ञापन वह फन है
जिसमें हर कोई माहिर नहीं होता।
देखते रहे चाहे कितना खेल आंखों से
जेब से पैसा जब निकलता है
तब कोई नहीं देख रहा होता।
............................
बहला लो चाहे कितना दिल
कहीं न कहीं चुकाओगे बिल।
दिल के व्यापारी
खेल का भी व्यापार करते हैं
जिससे तेल निकालेंगे, तुम हो वह तिल
............................
संगीत का शोर न हो तो
आंखों से कौन देखता है दृश्य।
जब कानों से देखने का काम लेंगे
तो क्या समझेंगे
वाह वाह जुबान से किये जाते हैं
बुद्धि से हो जाती है सोच अदृश्य।
............................
लेखक के अन्य ब्लाग/पत्रिकाएं भी हैं। वह अवश्य पढ़ें।
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका
4.अनंत शब्दयोग
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप
No comments:
Post a Comment