Tuesday, July 13, 2010

बाजा़र का नया महानायक ऑक्टोपस-हास्य व्यंग्य (bazar ka naya mahanayak octopas baba-hasya vyangya)

ऑक्टोपस बाबा की जय! संभव है कि उसकी लोकप्रियता का नाम भुनाने के लिये भारत में कोई बाबा अपना नाम यही रख ले और उसके चले चपाटे उसके लिये गाते रहें कि ऑक्टोपस बाबा की जय।
अब तो ऑक्टोपास के नाम पर अनेक प्रकार दुकानें खूब चल निकलेंगी क्योंकि 2010 का विष्व कप फुटबाल अपने मैचों की वजह से कम उसकी भविष्यवाणियों की वजह से अधिक लोकप्रिय हुआ। अब होना यह है कि कुछ समय बाद बाज़ार में ऑक्टोपस के नाम लिखे पेन, जूते, जींस, शर्ट तथा घड़ियों समेत तमाम चीजें बिकने लगेंगी। संभव है कि आने वाले समय में होटल ऑक्टोपस, ऑक्टोपस ऑटोमोबाइल, ऑक्टोपस फर्नीचर, ऑक्टोपस टेलर्स, ऑक्टोपस किराना मर्चेंट तथा ऑक्टोपस अस्पताल जेसे नाम सड़कों के किनारे दुकानों पर दिखने लगें। इस नाम के उपयोग का कोई पेंटेट भी नहीं है। फिर अपने देश भारत में विदेशी अंग्रेजी नामों का मोह वैसे भी बहुत है और अगर वह लोकप्रिय हों तो कहना भी क्या? कोई रायल्टी नहीं मांग सकता क्योंकि यह नाम एक समुद्री जीव का है जो बोल नहीं सकता, समझ नहीं सकता और सबसे बड़ी बात कि उस फुटबाल का फ तक नहीं जानता जिसके मैचों की सही भविष्यवाणी करने के लिये प्रसिद्ध हो गया है।
इसके भविष्यवाणी करने का तरीका भी विचित्र था। उसे एक कांच में रखा गया जहां उन देशों के झंडे के साथ खाने का डिब्बा रखा जाता था जिनके भविष्यवाणी के दिन मैच होते थे। जिसके साथ वाला वह डिब्बा खाता था मान लिया जाता था कि वह टीम जीतेगी। दावा किया जाता है कि ऐसा आठ बार हुआ और सात बार वही टीमें जीती जिसके साथ वाले झंडे का डिब्बा उसने खोलकर खाया। हालांकि इसमें तमाम तरह के पैंच भी हैं जिनकी चर्चा लोग करते हैं। एक तो यह कि विश्व कप फुटबाल में प्रत्येक दिन दो मैच होते थे पर ऑक्टोपस बाबा-इसे पॉल बाबा की कहा जाता है- भविष्यवाणी एक की ही करता था। दूसरा यह कि एक वक्त में दो झंडे ही लगाये जाते थे। इससे भविष्यवाणी के सच होने की संभावना पचास फीसदी होती थी-यह सट्टबाजी को बढ़ाने वाली बात लगती है। अगर चार झंडे लगाये जायें तो यह संभावना कम होती जाती। दूसरा इस विश्व कप फुटबाल कप प्रतियोगिता शुरू होने से पहले इसमें शामिल सभी देशो के झंटे लगाकर कोई एक डिब्बा क्यों नहीं खुलवाया गया ताकि उस समय विश्व कप विजेता का पता चल जाता।
बहरहाल अब यह मुद्दा महत्वपूर्ण नहीं रहा कि ऑक्टोपस की भविष्यवाणी सही निकली या उनमें कोई तयशुदा गड़बड़ी रही होगी। इधर तमाम तरह के आरोप भी लगते हैें कि मैचों में फिक्सिंग वगैरह भी होती है। कहीं ऑक्टोपस नाम को लोकप्रियता स्थापित कर बाज़ार तथा प्रचार माध्यम-तमाम तरह की उत्पादन तथा व्यवसायिक कंपनियां तथा टीवी चैनल और फिल्म उद्योग-अपने लिये कोई नया माडल तो नहीं बना रहे थे। क्योंकि इधर खेल, फिल्म, तथा टीवी में सक्रिय अभिनेताओं, अभिनेत्रियों तथा खिलाड़ियों के चेहरे लोगों के लिये बोरियत का कारण हो गये हैं इसलिये एक समुद्री जीव को प्रस्तुत किया जा रहा है ताकि बााज़ार पतियों के उत्पादन तथा सेवाओं के लिये विज्ञापन करने वाला नया चेहरा मिल जाये।
बहुत पहले एक अमेरिकी उपग्रह स्काइलैब जमीन पर गिरने वाला था। गिरने से तीन चार माह पहले तक उसका खूब प्रचार हुआ। उस समय टीवी की भूमिका अधिक नहीं थी पर रेडियो और अखबार उसके गिरने का खूब प्रचार कर रहे थे। यह प्रचार इस ढंग से हो रहा था कि जैसे उससे पूरी दुनियां नष्ट हो जायेगी। जगह जगह लोग उसकी चर्चा करते रहे। जिस दिन वह गिरा तो समुद्र ने उसे आगोश में ले लिया और किसी का बाल भी बांका नहंी हुआ। तब लोगों को अफसोस हुआ और सभी सोच रहे थे कि ‘मरे ने एक भी आदमी नहीं मारा।’
ऐसा लगता है कि उस समय बाज़ार और प्रचार प्रबंधकों ने बहुत कुछ सीखा जो बाद में अन्य प्रचार अभियानों में काम आया। वह स्काईलैब इतना खतरनाक प्रचारित किया गया कि जैसे परमाणु बम गिरने वाला है मगर उसके बाद क्या हुआ। जूते, साड़ियां, खिलौने, तथा अन्य अनेक बस्तुऐं उसके नाम से बाज़ार में बिकीं।
ऑक्टोपस महाराज का नाम भी कुछ इस तरह से बाज़ार में आयेगा। संभव है कि अमेरिकी फिल्म निर्माता इस विषय पर कोई अच्छी कहानी गढ़कर फिलम बनायें और उसकी नकल हिन्दी में आ जाये। अलबत्ता इनमें अंतर इतना हो सकता है कि हिन्दी फिल्मों में ऐसे ऑक्टोपस को अभिनय-यकीनन वह लकड़ी , प्लसिटक, रबड़ या लोहे से आधुनिक की सहायता से बनेगा-करने वाले पुतले को गाता हुआ दिखाना पड़ सकता है क्योंकि इसके बिना हिन्दी फिल्में चलती नहीं हैं। चूंकि वह जीव मनुष्य रूप में नहीं हो्रगा तो संभव है कि उसके अभिनय के समय पार्श्व में गीत संगीत का जोड़कर उसे प्रस्तुत किया जाये।
पूर्वकाल में बाजा़र के क्रय विक्रय के दायरे अत्यंत सीमित थे इसलिये वस्तुओं के प्रचार की वैसी आवश्यकता नहीं होती थी। दूसरी बात यह थी आदमी केवल जीवन यापन के लिये अधिक वस्तुऐं खरीदता भी नहीं था। इसलिये जहां जरूरत की चीजें मिलती ग्राहक स्वयं चलकर वहां जाता था मगर आज समय बदल गया है। सीधी बात कहें तो अनावश्यक चीजों के उपयोग की पृवुति ने मनुष्य को विलासी बना दिया है। उसकी जरूरतों में कई चीजें ऐसी हैं जो उसे न भी मिलें तो कुछ नहीं बिगड़ेगा पर बाज़ार ने प्रचारतंत्र को इस तरह अपनी पकड़ में कर रखा है कि वह विलासिता की चीजों को भी मूलभूत आवश्यकता बताता है। ऐसे में ऑक्टोपस महाराज उसके लिये एक महानायक बन सकता है जो हर जगह नयी नयी चीजें-अजी, नयी क्या एक तरह से कहें कि रूप बदलकर नये ढंग से प्रस्तुत की जायेंगी-बेचने आ सकता है।
आधुनिक व्यापार आजकल कल्पित महानायकों के सहारे हैं। उसके द्वारा पाले गये प्रचार तंत्र ने क्रिकेट, फिल्म ओर टीवी के धारावाहिकों में सक्रिय पात्रों को महानायक बना रखा है जो विज्ञापनों में अभिनय कर आम आदमी के अंदर के विवेक को पूरी तरह से हर लेते हैं। आम आदमी स्वयं महानायक बनना चाहता है पर नहीं बन पाता पर इन महानायकों की बतायी चीजों का उपयोग कर वह अपवे को महानायक होने का कुछ देर सुखद अहसास दिलाकर तसल्ली पा लेता है। सो अब इस नये महानायक ऑक्टोपस महाराज की जय।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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1 comment:

Jandunia said...

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