लगते हैं मेले यहां
खुशी हो या गम हो,
कोई बुलाता है भीड़ को
कोई भेड़ की तरह
उसमें शामिल हो जाता है,
जरूरी है शोर का होना,
चाहे बजाये भीड़ तालियां
या लोगों की आंख नम हो।
अकेले हो जाने का डर
आदमी को बेबस बना देता है,
इसलिये तलाश करता है
वह मेलों की
मगर वहां भी हादसे का डर न कम हो।
अपने से भागता आदमी
करता समय और अक्ल खराब,
कोई हो रहा हुस्न का दीवाना
कोई पी बर्बाद हो रहा पीकर शराब,
मेलों में चंद लम्हें जी लिये
भीड़ के साथ
मगर फिर चला आता अकेलापन
ढूंढ लेते हैं फिर भी कुछ लोग
अपने अंदर ही एक साथी
अगर अपनी सोच में दम हो।
कोई बुलाता है भीड़ को
कोई भेड़ की तरह
उसमें शामिल हो जाता है,
जरूरी है शोर का होना,
चाहे बजाये भीड़ तालियां
या लोगों की आंख नम हो।
अकेले हो जाने का डर
आदमी को बेबस बना देता है,
इसलिये तलाश करता है
वह मेलों की
मगर वहां भी हादसे का डर न कम हो।
अपने से भागता आदमी
करता समय और अक्ल खराब,
कोई हो रहा हुस्न का दीवाना
कोई पी बर्बाद हो रहा पीकर शराब,
मेलों में चंद लम्हें जी लिये
भीड़ के साथ
मगर फिर चला आता अकेलापन
ढूंढ लेते हैं फिर भी कुछ लोग
अपने अंदर ही एक साथी
अगर अपनी सोच में दम हो।
लेखक संपादक-दीपक "भारतदीप", ग्वालियर
writer and editor-Deepak "Bharatdeep" Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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