सोनाली और अनुराधा नाम की दो बहिनों ने छह माह तक अपने घर में स्वयं को बंद रखा। उन्होंने यह कैद खुद चुनी। उन्होंने भूख को चुना, प्यास को चुना यानि स्वयं अपनी मौत खुद चुनी। उसकी जिम्मेदारी किसी पर डालने का प्रयास बेतुका है। भाई जिम्मेदार है या समाज या पड़ौसी या पास में ही कार्यरत कल्याण संस्था के पदाधिकारी, यह सोचना व्यर्थ है। बिना रोए बच्चे को मां भी दूध नहीं पिलाती-क्या यह बात उन दोनों ने नहीं सुनी थी। पढ़ी लिखी थीं, प्रकृति ने उनको सारी इद्रियां कार्यरूप में प्रदान की थी। वह मन को मारकर बैठ गयीं तो उन इंद्रियों से काम कौन लेता? यह मन ही तो इंद्रियों को दौड़ता है, लड़ाता है और बहलाता है।
उनकी कहानी कोई ऐसी नहीं है जिस पर अधिक लिखा जाये। हादसों से गुजरता इंसान कई बार भारी तकलीफ में आ जाता है पर चंचल मन उसे आगे ले जाता है। वह लड़ता है फिर चल पड़ता है। इस संसार में ऐसा कौन है जिसने अपना नहीं खोया और कौन ऐसा है जो अपना नहीं खोएगा। पहले मां खोई फिर पिता! फिर उनका भाई विवाह के बाद अपनी बहिनों को दिल्ली में उनको छोड़कर बैंगलौर चला गया। उनका प्रिय कुत्ता मर गया। पहले तनाव फिर अवसाद के दौर में दोनों बहिनों की इंद्रियों को निष्क्रिय कर दिया। अहंकार बुरा होता है पर उसका भी इस सीमा तक होना जरूरी है कि ‘मेरा पास काम करने वाली देह है और वह बेकार नहीं है।’
इद्रियों की निष्क्रियता और अहंकार की शून्यता के परिणामस्वरूप आंखों से रूप दर्शन, कानों से स्वर श्रवण, नाक से गंध को ग्रहण, मुख से रस का उपभोग और देह से स्पर्श करते हुए भी उसकी अनुभूति से दूर हो गयीं। मन मरा तो मनुष्य देह होते हुए भी मृत हो जाता है। दूर दृश्यों के प्रसारण में उनके चेहरे देखे तो तय करना कठिन हो रहा था कि क्या देख रहे हैं? मानवियां या उनके शव! वह गुणातीत हो जातीं तो योगी कहलातीं पर अवसाद और निराशा ने उनको मनोरोगी बना दिया। देह विकारों की पहचान न करते हुए स्वयं ही विकारमयी हो गयी।
कुछ दिन पहले दूरदूश्यों में एक 80 वर्ष का योगी दिखाया गया जिसने 70 वर्ष तक कुछ खाया पीया नहीं था! मगर वह सक्रिय था पर अनुराधा और सोनाली योगी नहीं थी नतीजा वह शवरूप होती गयीं। योगी होती तो आदर की पात्र होतीं पर शवरूप हो गयीं तो दया उन पर बरसने लगी।
दोनों चार्टेड एकाउंटेंट और कंप्यूटर की जानकार थीं। अवसाद ने अपने कौशल से ही उनको दूर कर दिया। सोनाली ने दूरदृश्यों में कहा ‘किसी ने उनको कालू जादू किया था।’
हैरान करती हैं यह बात! हमारे आधुनिक शिक्षाविद् दावा करते हैं कि अंग्रेजी शिक्षा पद्धति के विकास से देश अंधविश्वास से मुक्त हो जायेगा? यह तो उल्टा हो रहा है? पढ़े लिखे लोगों की जीवन से लड़ने की क्षमता कम हो जाती है और ऐसे में दैहिक निष्क्रियता से उनका आत्मविश्वास लुप्त हो जाता है। अपढ़ महिला पुरुष काला जादू पर यकीन करते हैं पर फिर भी जीवन से लड़ते हैं पर पढ़ा लिखा आदमी तो संघर्ष करना ही छोड़ देता है। एक शानदार फ्लैट में रही रहीं थी। सभ्रांत परिवार और वैसा ही आसपास समाज भी बस रहा था। ऐसे में जिंदगी के सामने आत्मसमर्पण करते हुए भूख और प्यास को गले लगाना! यकीनन यह शिक्षित आदमी का काम नहीं लगता पर यह सच्चाई है। इस देश में ऐसी हजारों ऐसी महिलायें हैं जो अकेली होते हुए भी अपना संघर्ष जारी रखती हैं। यकीनन वह कथित रूप से उच्च सभ्रांत परिवार की नहीं होती।
हमारे बुद्धिजीवी समाज पर बरस रहे हैं। आजकल का पूरा समाज ही उनको अब संवेदनहीन दिखाई दे रहा है? समाज यानि क्या? लोगों का समूह ही न! मगर उसकी कोई अपनी सक्रियता नहीं होती। उसमें शामिल लोगों की निजी सक्रियता ही समाज की सक्रियता कहलाती है। फिर हर आदमी की निजता अलग है वैसे ही उसकी गतिविधि भी। बड़े शहर और सभ्रांत निवासघरों की निजता एकांत है जबकि छोटे शहरों और असभ्रांत, गरीब तथा शिक्षित समाज के लोग निजता परिवार, पड़ौस तथा पैसा तीनों के साथ जोड़ते हैं। जरूरत पड़ने पर अहंकार दिखाते हैं तो फिर विनम्र भी हो जाते हैं। जीवन में लोचदार रुख अपनाने के लिये जरूरी है अतिअहंकार रहित होना और अंग्रेजी शिक्षा मनुष्य को एकांगी तथा अतिअहंकारी बना देती है। अपनी देह को नष्ट करने वालों की सूची अगर देखी जाये तो उसमें आधुनिक शिक्षा के छात्रों की संख्या कहीं अधिक है पर प्राचीन शिक्षा में रचे बसे लोग कम ही दिखेंगे यह अलग बात है कि हम उनको अशिक्षित और गंवार कहते हैं।
सभी बुद्धिजीवी बड़े शहरों में सभ्रांत समाजों में रहते हैं। वह वही समाज देख रहे हैं। देश में असभ्रांत, गरीब, अशिक्षित समाज से जुड़े छोटे शहरों के लोगों का संघर्ष वह नहीं देख पाते। जब हम अपने समाज को देखते हैं तो बड़े शहरों का समाज अपनी देश के छोटे और मझौले शहरों से अलग दिखता है। महात्मा गांधी ने शहरी और ग्रामीण भारत की पहचान की थी। वह अमीर और गरीब के बीच खाई पाटना चाहते थे। गांधी दर्शन इसलिये ही लोकप्रिय नहीं हो सका क्योंकि वह मध्य वर्गीय शहरों और नागरिकों को समझ नहीं पाये । एक मध्य वर्गीय शहरी भारतीय अमीरी का स्वांग करते हुए देश और समाज के लिए लड़ता भी है पर जब टूटता है तो भयानक अवसाद में घिर जाता है। यही वह वर्ग है जो विचाराधाराओं को अपनी प्रयासों से प्रवाहित करता है। गांधी दर्शन भारत में चर्चित बहुत है पर लोकप्रिय नहीं बन सका क्योंकि उसमें मध्य शहरी भारतीय वर्ग के लिये कुछ नहीं है। इस वर्ग ने गांधीजी के स्वतंत्रता को ताकत दी पर पाया कुछ नहीं। इसके विपरीत गरीब के कल्याण का बात करते हुए इसी मध्यम वर्ग की उपेक्षा की गयी।
समाज कोई व्यक्ति नहीं है। जब आप समाज को संबोधित करते हुए कोई बात कर रहे हैं तो समझ लीजिये हवा में उड़ा रहे हैं। समाज से व्यक्ति की पहचान है पर मनुष्य की इंद्रियां समाज के स्वरूप को समझ नहीं सकती। उसके लिये मन और बुद्धि की सक्रियता आवश्यक है। वह लोगों में मरती जा रही है। यह समाज की मौत नहीं है पर व्यक्ति को असहाय कर मौत के मार्ग पर जाने के लिये के प्रेरणादायक है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। मतलब यह बिना दूसरे मनुष्य के साथ के जिंदा नहीं रह सकता। मनुष्य का स्वामी उसका मन है और अगर अपने आसपास मरे मन वाले मनुष्य हैं तो उनका होना न होना बराबर है। सोनाली और अनुराधा दोनों का मन मर गया। वह साथ होते हुए भी साथ नहीं थी। यह भयानक एकांत था। यह मार्ग उन्होंने स्वयं चुना था। इसके लिये कौन जिम्मेदार माना जा सकता है।
अनुराधा ने देह त्याग दी पर सोनाली जीवित है। वह अस्पताल में है। भाई आ गया है। भाई का संघर्ष ही सोनाली का मन जिंदा कर सकता है। मनो चिकित्सक इस बात को नहीं समझ पायेंगे कि आखिर हुआ क्या था? कुछ नहीं हुआ था। यह मन चंचल है। चलता रहे तो चलता रहे, मना खड़ा रहा तो जिंदा आदमी को मुर्दा बना देता है। हमारा अध्यात्मिक दर्शन मन पर नियंत्रण करने के लिये कहता है उसे मारने के लिये नहीं! अपढ़, अशिक्षित, और ग्रामीण भारत के लोग अध्यात्मिक दर्शन के निकट रहते हैं और भले ही मन पर नियंत्रण करने की कला नहीं जानते पर उसे मरने नहीं देते। काले जादू से भी नहीं। सोनाली स्वस्थ हो इसके लिये हमारी उसे हमारी शुभकामनायें हैं क्योंकि आदमी को मारता मन है न कि काला जादू।
लेखक संपादक-दीपक "भारतदीप", ग्वालियर
writer and editor-Deepak "Bharatdeep" Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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