अपने सामने ही
खुद के काफिले लुटते देखते रहे,
दरिंदों के आगे घुटने टेकते रहे,
इस उम्मीद में कि
सहारा मिल जायेगा
कहीं कोई फरिश्ता भी जिंदा होगा।
मगर हैरान है यह देखकर कि
टूटते रहे हमारे अरमान कांच की तरह
किसी को तरस नहीं आया
फिर भी यकीन नहीं होता
कि यहां हर आदमी दरिंदा होगा।
---------------
हमेशा चारों तरफ
हमारी तन्हाई के घेरे रहे,
अपने ही नजरें फेरे रहे,
लाचारी किसी को लाई हमारे करीब
फिर हो गये लोग दूर
अकेलेपन दूर नहीं हुआ
मतलब के यार भले घेरे रहे।
दरिंदों के आगे घुटने टेकते रहे,
इस उम्मीद में कि
सहारा मिल जायेगा
कहीं कोई फरिश्ता भी जिंदा होगा।
मगर हैरान है यह देखकर कि
टूटते रहे हमारे अरमान कांच की तरह
किसी को तरस नहीं आया
फिर भी यकीन नहीं होता
कि यहां हर आदमी दरिंदा होगा।
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हमेशा चारों तरफ
हमारी तन्हाई के घेरे रहे,
अपने ही नजरें फेरे रहे,
लाचारी किसी को लाई हमारे करीब
फिर हो गये लोग दूर
अकेलेपन दूर नहीं हुआ
मतलब के यार भले घेरे रहे।
लेखक संपादक-दीपक "भारतदीप", ग्वालियर
writer and editor-Deepak "Bharatdeep" Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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