मात्र एक दिन पहले तक अन्ना का जादू खत्म होने का प्रचार करने वाले भौंपू अब अचानक उनको याद कर रहे हैं। ऐसा लगता है जैसे कि अन्ना बिल लोकपाल सून’। 27 दिसंबर को लोकसभा में लोकपाल बिल पास होने के बाद अन्ना ने 28 को अनशन खत्म कर दिया। आमतौर से हम जैसे समाचार पढ़ाकुओं का यह अनुभव रहा है कि लोकसभा में प्रस्ताव पास होने के बाद उपरी सदन राज्यसभा में भी पास हो जाता है। संभवत अन्ना को भी यही अनुभव याद रहा होगा। मगर यह क्या लोकपाल बिल वहां अटक गया। समाचार विश्लेषण करने वाले अनेक अनुभवहीन बुद्धिजीवी इसे लटकना कह रहे हैं। यह गलत है। संसदीय प्रक्रिया में रुचि रखने वालों के लिये इस तरह का अनुभव कोई नया नहीं है। बजट सत्र में इसके पास होने की संभावना बनी हुई है इसलिये लटकना मानना गलत है। चूंकि देश के राजनीतिक स्वरूप बदलने के बाद यह ऐसी पहली महत्वपूर्ण घटना है इसलिये पुराने पढ़ाकुओं को भी चौंकाती है। एक समय था जब एक ही दल का वर्चस्व दोनों सदनों में रहता था तक इस तरह के विरोधाभास की कल्पना कोई नहीं करता था। अब वह बात नहीं है। इसलिये अनेक पुराने लोग इस तरह के समाचारों के अभ्यस्त नहीं है। शायद 28 दिसम्बर को अन्ना हजारे साहब ने अनशन इसलिये समाप्त कर दिया था कि अब तो बिल पास हो गया है और इसमें आगे अपने अनुरूप सुधार के लिये आंदोलन करेंगे। उनका स्वास्थ्य भी साथ नहीं दे रहा था।
उनके अनशन से हटते ही यह लगा कि अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का समापन हो गया है। अस्वस्थ अन्ना जब रालेगण सिद्धि से मुंबई आये तो पता चला कि वह एक रात पहले सोये नहीं थे। 27 दिसंबर को भी सोये कि नहीं पर 28 को वापस चले गये। 29 को शायद आराम से सोये होंगे कि 30 की सुबह भाई लोगों ने यह कहते हुए जगा दिया होगा कि ‘‘अभी जागते रहिये लोकपाल के लिये आपकी जरूरत है।’
संसदीय प्रणाली में इस तरह के विधेयक पास होते रहते हैं। अलबत्ता प्रचार माध्यमों के लिये यह विषय अगले कुछ समय तक विज्ञापन चलाने के लिये चर्चित रहेगा। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि संभवत भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन किन्ही प्रायोजित लोगों ने अपना इतर लक्ष्य पाने के लिये प्रारंभ करने की योजना बनाई होगी और अन्ना साहब के पुराने सद्कर्मों की वजह से उनको अपना चेहरा प्रदान करने का आग्रह किया होगा। जिस तरह उनका आंदोलन चला और उसे प्रचार माध्यमों में समर्थन मिला उससे यही संदेह होता है। टीवी चैनलों पर अनेक उद्घोषक एक तरह उनके आंदोलन के प्रवक्ता बनकर दूसरे बहसकर्ताओं पर अपना विचार थोपते हैं। समस्त बहसों में बाहर से आये वक्ता कम चैनल के संपादक और उद्घोषक अधिक बोलते हैं। 28 जनवरी को जिस तरह अन्ना हजारे ने अपने साथियों के दबाव में आंदोलन खत्म किया वह उसमें प्रायोजन तत्व होने की पुष्टि भी करता है। अन्ना रालेगण सिद्धि से जब दो दिन पहले निकले थे तब भी स्वस्थ नहीं थे। ऐसे में उनका जिद्द कर आना और फिर अपनी इच्छानुरूप न होने के बावजूद बिल पास होने पर चले जाना इस संदेह को अधिक गहरा बनाता है।
हम अगर देश के राजस पुरुषों की बात करें तो विश्व में भारत की जिस तरह भ्रष्टाचार की वजह से बदनामी हो रही है तो उसे बचाना भी उनकी जिम्मेदारी है। कहने वाले कुछ भी कहते हों पर इतना तय कि यह बात उनको भी पता है। लोकपाल का बिल सरकार ने पहले तैयार कर संसद में प्रस्तुत किया था। अन्ना हजारे तो बाद में उसे अपने अनुरूप बनाने के लिये मैदान में उतरे थे। यह उनका मौलिक विषय नहीं था पर उन्होंने इसे इतनी तेजी से अपनाया कि राजस पुरुष अचंभित हो गये कि उनका विषय एक समाजसेवी अपहृत कर ले गया। ऐसे में विवाद तो होना ही था।
अन्ना हजारे की अधिक लोकप्रियता देखते हुए किसी राजस पुरुष ने प्रत्यक्ष छींटाकशी नहीं की पर यह शंका तो होती थी कि समय आने पर वह अपना हिसाब चुकायेंगे। अभी यह कहना कठिन है कि वास्तव में वही हो रहा है जो हम सोचते थे अलबत्ता एक समय राजपुरुषों से दूरी बनाये रखने के इच्छुक अन्ना और उनकी टीम ने आखिर उनको अपने मंच पर चर्चा में आने का आमंत्रण दिया और वह आये भी। ऐसा करके किसने किसका उपयोग किया यह बताना कठिन है पर अप्रैल में अन्ना साहेब के अनशन प्रारंभ होने के पहले ही दिन एक साध्वी तथा एक राजपुरुष को उनके समर्थकों ने जिस ढंग से अपमानित किया था उसे देश के राजसपुरुष भूल पायें यह इतना सरल नहीं था। अंततः अन्ना के सपनों का लोकपाल बनाना उनका ही काम है और उसे कोई चुनौती नहीं दे सकता। बहरहाल प्रचार माध्यमों में अन्ना समर्थक कह रहे हैं कि राज्यसभा में विधेयक रुकने से हमारे आंदोलन को बल मिला है। इसका मतलब यह है कि 27 तारीख को बिल पास होते ही बल निकल गया था। अब यह उनको बल मिला है या दिया गया है आगे अधिक दौड़ लगवाने के लिये, इस पर भी हम जैसे लोग विचार कर सकते हैं। दो तीन जनवरी को अन्ना साहेब के चेले चपाटे फिर रालेगण सिद्धि में पहुंचने वाले हैं। भ्रष्टाचार रोकने के लिये लोकपाल बनना चाहिए और बनाये के प्रयास भी चल रहे है। वैसे कुछ लोग तो यह भी मानते हैं कि अगर वर्तमान व्यवस्था में ही काम किया जाये और इच्छा शक्ति हो तो भ्रष्टाचार कम किया जा सकता है मगर लगता है कि इस लोकतंत्र में जहां जनमानस को व्यस्त रखने के लिये आंदोलन चाहिये तो उन्हें चलाने वाले समाजसेवी भी जरूरी हैं जो प्रायोजन के बिना नहीं चलते।
अन्ना समर्थक भी एक नया संस्थान बनाने के साथ उसमें आज कार्यरत संस्थाऐं मांग जोड़ने की मांग कर रहे हैं। भ्रष्टाचार के विरुद्ध सजा के प्रावधान भी वही रहेंगे जो पहले से हैं। अलबत्ता बाज़ार और प्रचार समूहों ने इसे बना दिया है अन्ना हजारे का जनलोकपाल जो फिलहाल तो लोकपाल ही है।
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
poet, Writer and editor-Deepak 'Bharatdeep',Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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