Saturday, January 10, 2009

जिंदगी के नियम-व्यंग्य कविता

जिंदगी में हर पल अपने

नियम से गुजर जाता है

बचपन गुजरता है खेलते हुए

जवानी गुजरती है सोते हुए

बुढ़ापा रोने में गुजर जाता है

ऐसे ही आदमी भी

पहले बनता है परिश्रमी

फिर समाज का बनता है आदर्श

जब आता है घौटाला सामने

तब वह खलनायक बन जाता है

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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

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