यह सोचकर लोग सोच रहे होंगे कि आखिर इस निराशाजनक वातावरण के बीच यह आशा की किरण कौन निरर्थक जगा रहा है? सोचने का अपना तरीका होता है पर कोई बात है जो मन में होती है पर हम उसे स्वयं नहीं देख पाते। दरअसल आज की नयी पीढ़ी मनोरंजन के लिये हिंदी फिल्मों पर निर्भर नहीं है। आजकल के सभी बच्चे-जो कभी युवा तो होंगे-हिंदी फिल्में नहीं देखते और यकीनन जो नहीं देखेंगे वह बहादुर बनेंगे, यह हमारा दावा है। अगर आज की सक्रिय पीढ़ी को देखें तो वह कायरों जैसी लगती है और इसका कारण है फिल्में। इसने उस दौर की फिल्में देखी हैं जब मनोंरजन का वह इकलौता साधन था और जो कायरता का बीच बो रही थीं। सामने कोई भी हो पर इनके पीछे के प्रायोजक सही नीयत के लोग नहीं थे और उनका हित समाज को कायर बनाने में था। यहां तक कि कलात्मक फिल्मों के नाम पर ऐसी कायरता समाज में बोई गयी।
एक फिल्म में नायिका को निर्वस्त्र किया गया और बाकी लोग हतप्रभ होकर देख रहे थे। दृश्य मुंबई के किसी मोहल्ले का था। कहने को निर्देशक कह रहे थे कि हम तो वही दिखा रहे हैं जो समाज में होता है पर यह सरासर झूठ था। उस समय तक यह संभव नहीं था कि किसी छोटे शहर में कोई शोहदा ऐसी हरकत करे और सभी लोग उसे नकारा होकर देखें।
अनेक फिल्मों में ईमानदारी पुलिस इंस्पेक्टर का पूरा का पूरा परिवार का सफाया होते दिखाया गया। आज आप जिस शोले, दीवार और जंजीर फिल्मो की बात सोचें तो वह मनोरंजन से अधिक समाज को कायर बनाने के लिये बनायी गयीं। संदेश यह दिया गया कि अगर आप एक आम आदमी हो तो चुपचाप सभी झेलते जाओ। नायक बनना है तो फिर परिवार के सफाये के लिये मन बनाओ।
सच बात तो यह है कि सभी पुलिस वाले भी ऐसे नहीं थे जैसे इन फिल्मों में दिखाये गये। पुलिस हो या प्रशासन आदमी तो आदमी होता है जब समाज के अन्य लोगों पर बुरा प्रभाव पड़े तो वह इससे बच जाये यह संभव नहीं है। इसलिये उस समय जो बच्चे थे वह जब सक्रिय जीवन में आये तो कायरता उनके साथी थी।
इस संबंध में पिछले साल की टीवी पर ही दिखायी गयी एक घटना याद आ रही है जब बिहार में एक स्त्री को निर्वस्त्र किया जा रहा था तब लोग नकारा होकर देख रहे थे। तब लगने लगा कि समाज पर हिंदी फिल्मों ने अपना रंग दिखा दिया है। इधर हमारे टीवी चैनल वाले भी इन फिल्मों के रंग में रंगे हैं और वह ऐसे अवसरों पर ‘हमारा क्या काम’ कर अपने फोटो खींचते रहते हैं।
आजकल की सक्रिय पीढ़ी बहुत डरपोक है। फिल्म के एक हादसे से ही उस पर इतना प्रभाव पड़ता रहा है कि हजारों लोग भय के साये में जीते हैं कहीं किसी खलनायक से लड़ने का विचार भी उनके मन में नहीं आता।
सच बात तो यह है कि इन फिल्मों का हमारे लोगों के दिमाग पर बहुत प्रभाव पड़ता रहा है और आज की पीढ़ी के सक्रिय विद्वान अगर यह नहीं मानते तो इसका मतलब यह है कि वह समाज का विश्लेषण नहीं करते। फिल्मों के इसी व्यापाक प्रभाव का उनसे जुड़े लोगों ने अध्ययन किया इसलिये वह इसके माध्यम से अपने ऐजंेडे प्रस्तुत करते रहे हैं। अगर आप थोड़ा बहुत अर्थशास्त्र जानते हैं और किसी व्यवसाय में रहे हों तो इस बात को समझ लीजिये कि इसका प्रायोजक फिल्मों से पैसा कमाने के साथ ही अपने ऐजेंडे इस तरह प्रस्तुत करता है कि समाज पर उसका प्रभाव उसके अनुकूल हो। आपको याद होगा जब देश आजाद हुआ तो देशभक्ति के वही गाने लोकप्रिय हुए जो फिल्मों में थे। फिर तो यह आलम हो गया कि हर फिल्में एक गाना देशभक्ति का होने लगा था। फिर होली, दिवाली तथा राखी के गाने भी इसमें शामिल हुए और उसका प्रभाव पड़ा।
अगर आप कोई फिल्म में देखें तो उसका विषय देखकर ही आप समझ जायेंगे कि उसके पीछे कौनसा आर्थिक तत्व है। हमने तो यही आंकलन किया है कि जहां से पैसा आ रहा है उसकी हर कोई बजा रहा है। आजकल के संचार माध्यमों में तमाम तरह के प्रसारण देखकर इस बात को समझ लेते हैं कि उनके आर्थिक स्त्रोत कहां हैं। यह जरूरी नहीं है कि किसी को प्रत्यक्ष सहायता दी जाये बल्कि इसका एक तरीका है ‘विज्ञापन’। इधर आप देखें तो अनेक धनपतियों -जिनको हम आज के महानायक भी कहते सकते हैं-के अनेक व्यवसाय हैं। वह क्रिकेट और फिल्मों से जुड़े हैं तो उनको इस बात की आवश्यकता नहीं कि आत्मप्रचार के लिये सीधे पैसा दें बल्कि उनसे अप्रत्यक्ष रूप से विज्ञापन पाने वाले उनका प्रचार स्वतः करेंगे। उनका जन्म दिन और मंदिर में जाने के दृश्य और समाचार स्वतः ही प्रस्तुत संचार माध्यमों में चमकने लगते हैं। फिर उनके किसी एक व्यवसाय के विज्ञापन से मिलने वाली राशि बहुत अच्छी हो तो उनके दूसरे व्यवसाय का भी प्रचार हो जायेगा।
हमने तो आत्मंथन किया है और अपने मित्रों से भी कई बार इस बात पर चर्चा की और सभी इस बात पर सहमत थे कि इन फिल्मों के माध्यम से समाज को कायर, लालची और अहंकारी बनाया गया है। वह इस बात को भी मानते हैं कि हो सकता है कि यह ऐजेंडा समाज को अपने चंगुल में रखने के प्रयास के उद्देश्य से ही हुआ हो। बहरहाल बच्चों की बहादुरी देखकर यह मन में आया कि यकीनन अब फिल्मों का इतना प्रभाव नहीं है और यकीनन उन बच्चों में हिंदी फिल्मों द्वारा पैदा किया जाने वाला कायरता का भाव उनमें नहीं जम पाया है। यह भाव इस तरह पैदा होता है कि एक चाकू पकड़े बदमाश भी इतना खतरनाक ढंग से पेशा आता है कि बाकी सभी लोग सांस थामें उसे देखते हैं तब तक, जब तक कोइ नायक नहीं आ जाता। इन फिल्मों पर यह आरोप इसलिये भी लगता है कि क्योंकि अधिकतर फिल्मों में खलनायक को लोगों का गोलियों से सीना छलनी करते दिखाने के बाद जब नायक से उसकी मुठभेड़ होती है तो वह लात घूंसों में दिखती है-कभी ऐसा नहीं दिखाया गया कि नायक पिस्तौल लेकर पहुंचा हो और पीछे से खलनायक को मारा हो। अपराधी खतरनाक, चालाक और अजेय होते हैं पर उतने नही जितने फिल्मों में दिखाया गया। ऐसे बहादुर बच्चों को सलाम। आजकल के बच्चों को तो बस हमारी यही शिक्षा है कि सब देखो। श्लील हो या अश्लीन वेबसाईट या फिल्म! सब चलेगा! मगर यह हिन्दी फिल्में मत देखना वरना कायरों की तरह जियोगे। जिन माता पिता को अपने बच्चे बहादुर बनाने हैं वह फिल्मों से अपने बच्चों को बचायें चाहे वह अंग्रेजी की हों-आखिर हिंदी फिल्में भी उनकी नकल होती हैं।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप
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