देश के बुरे हालतों पर बोलने और लिखने वाले बहुत हैं। आम आदमी का दर्द बयान करने वाले ढेर सारी तालियां बटोर जाते हैं। ऐसी अनेक किताबें लिखी जाती हैं जिनमें पात्रों का दर्दनाक चित्रण कई लेखकों को अंतर्राष्ट्रीय पुरुस्कार दिला चुके हैं। समाज की पीड़ाओं को दिखाते हुए अमीरों को कोसने वालों की तो हमेशा पौबारह रही है। इतना सब लिखे जाने के बावजूद समाज का नैतिक और वैचारिक पतन हुआ है। इसका कारण यह है कि दर्द का बयान सभी करते हैं पर उसके इलाज का नुस्खा कोई नहीं लिखता।
एक कवि से एक आदमी ने कहा-‘यार, तुम कवितायें लिखना बंद कर दो।’
कवि ने कहा-‘एक शर्त पर कि तुम अपनी जिंदगी में कभी स्वयं दुःखी नहीं अनुभव करोगे।’
उस आदमी ने कहा-‘यह संभव नहीं है क्योंकि मैं अपने को कभी दुःखी अनुभव न करने का वादा नहीं कर सकता। वह तो मैं तब से अनुभव कर रहा हूं जब से पैदा होने के बाद होश संभाला है। अरे, इस संसार में कोई सुखी रह सकता है क्या? कैसे कवि हो? इतनी अक्ल भी नहीं है।’
कवि ने कहा-‘बस, यही बात है। जब तक जमाने में दर्द रहेगा कोई न कोई उस पर अपने अल्फाज कहेगा। सभी अगर अंदर ही अंदर रोयेंगे या बाहर केवल चीखेंगे तो फिर दर्द को अल्फाज कौन देगा? यही काम कवि का होता है।’
बहरहाल अब तो कवि ही नहीं दर्द कहते बल्कि गद्यकार भी दर्द का बयां करते हैं। तलवार, तीर या बंदूक की आवाज हो तो उसमें भी वह भूख और गरीबी का दर्द ढूंढा करते हैं। जो आदमी धन और अन्न से मजबूर होता है भला वह कहीं हथियार उठाता है? मगर साहब हमारे देश में इस विश्वास के साथ जीने वाले भी हैं पर उनको यह पता नहीं कि आखिर उन समस्याओं का क्या हल है? वह तो बस अपने दर्द के साथ ऐसा यकीन बयान करते हैं जिसको जमीन पर ढूंढना मुश्किल काम है।
बहरहाल प्रस्तुत हैं इस पर दो पद्य रचनाएं-
दायें चलें कि बायें
वह बताते नहीं।
चलने का नारा देते हैं
वाद सुनाते हैं ढेर सारे
मंजिल का पता खुद नहीं जानते
झंडे उठाये चलते हैं
राहों पर
जमाने का भला करने का
मकसद बताते हैं
अपनी अपनी कहते अघाते नहीं।।
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कहीं पूरब का बखान करेंगे
कहीं पश्चिम का गान करेंगे।
अपनी जमीन पर खड़ी फसलों को
जलाकर
नयी फसल करने का करते दावा
जमाने से करते छलावा
तलवार, तीर और बंदूक से
मचा रहे शोर
इस जहां में बने स्वर्ग को
जलाकर वह बना रहे नरक
भला क्या नया रचेंगे।
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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