Saturday, September 27, 2008

आश्वासन और सिंहासन का खेल-व्यंग्य आलेख

देश के बुद्धिजीवियों के लिये इस समय कुछ न कुछ लिखने के लिये ऐसा आ ही जाता है जिसमें उनको संकुचित ज्ञान को व्यापक रूप से प्रस्तुत करने का अवसर मिल जाता है। देश में निरंतर हो रही आतंकी घटनाओं ने विचाराधारा पर अनेक भागों में बंटे बुद्धिजीवियों को अपने दृष्टिकोण से हर हादसे पर विचार व्यक्त करने का अवसर दिया है। घटना से पीडि़त लोगो के परिवारों के हाल पर कोई नहीं लिख रहा पर हादसों के आधार पर बहसों के दौर शुरू हो गये हैं।

पिछले कई दिनों से लग रहा था कि विचाराधारा के आधार पर लिखने पढ़ने वालों के दिल लद गये और अब कुछ नवीनतम और सत्य लिखकर नाम कमाया जा सकता है पर हमारे जैसे लोगों के दिन न पहले आये और न आयेंगे। हम तो सामाजिक और वैचारिक धरातल पर जो समाज में कहानियां या विषय वास्तव में रहते हैं उस पर लिखने के आदी हैं। विचाराधारा के लोग न केवल पूर्वाग्रह से सोचते हैं बल्कि किसी भी घटना पर संबंधित पक्ष की मानसिकता की बजाय अपने अंदर पहले से ही तय छबि के आधार पर आंकलन कर अपना निष्कर्ष प्रस्तुत कर देते हैं। चूंकि समाज पर बड़े लोगों का प्रभाव है इसलिये उनके पास अपनी विचारधारा के आधार पर इन बुद्धिजीवियों का समूह भी रहता है। इन्हीं बड़े लोगों का सभी जगह नियंत्रण है और अखबार और टीवी चैनल पर उनके समर्थक बुद्धिजीवियेां को ही प्रचार मिलता है। ऐसे मेें शुद्ध सामाजिक एवं वैचारिक आधार वाले समदर्शी भाव वाले लेखक के लिये कहीं अपनी बात कहने का मंच ही नहीं मिल पाता।

इधर अंतर्जाल पर लिखना शुरू किया तो पहले तो अच्छी सफलता मिली पर अब तो जैसे विचारधारा पर आधारित सक्रिय बुद्धिजीवियों को देश मेंं हो रहे हादसों ने फिर अपनी जमीन बनाने का अवसर दे दिया। अब हम लिखें तो लोग कहते हैं कि तुम उस ज्वलंत विषय पर क्यों नहीं लिखते! हमने गंभीर चिंतन,आलेख और कविताओं को लिखा। मगर फिर भी फ्लाप! क्योंकि हम किसी का नाम लेकर उसे मुफ्त में प्रचार नहीं दे सकते। वैसे तो समाज को बांटने के प्रयासों के प्रतिकूल जब हमने पहले लिखा तो खूब सराहना हुई। वाह क्या बात लिखी! अब लगता है कि हमारे दिल लद रहे हैंं।
तब ऐसा लग रहा था कि समाज अब भ्रम से निकलकर सच की तरफ बढ़ रहा है पर हादसों ने फिर वैचारिक आधार पर बंटे बुद्धिजीवियों को अपनी बात कहने का अवसर दे दिया। यह बुद्धिजीवी बात तो एकता की करते हैं मगर उससे पहले समाज को बांट कर दिखाना उनकी बाध्यता है। उनके तयशुदा पैमाने हैं कि अगर दो धर्म, जातियों या भाषाओं के बीच विवाद हो तो एक को सांत्वना दो दूसरे को फटकारो। ऐसा करते हुए यह जरूर देखते हैं कि उनके आका किसको सांत्वना देने से और किसको फटकारने से खुश होंगे।

एकता, शांति और प्रेम का संदेश देते समय छोड़ मचायेंगे। इतिहास की हिंसा को आज के संदर्भ में प्रस्तुत कर अहिंसा की बात करेंगे।

जिस धर्म के समर्थक होंगे उसे मासूम और जिसके विरोधी होंगे उसके दोष गिनायेंगे। मजाल है कि अपने समर्थक धर्म के विरुद्ध एक भी शब्द लिख जायें। जिस जाति के समर्थक होंगे उसे पीडि़त और जिसके विरोधी हों उसे शोषक बना देंगे। यही हाल भाषा का है। जिसके समर्थक होंगे उसको संपूर्ण वैज्ञानिक, भावपूर्ण और सहज बतायेंगे और जिसके विरोधी हों तो उसकी तो वह हालत करेंगे जो वह पहचानी नहीं जाये।
मतलब उनका केंद्र बिंदु समर्थन और विरोध है और इसलिये उनके लेखक में आक्रामकता आ जाती है। ऐसे में समदर्शिता का भाव रखने वाले मेरे जैसे लोग सहज और सरल भाषा में लिखकर अधिक देरी तक सफल नहीं रह सकते। इनकी आक्रामकता का यह हाल है कि यह किसी को राष्ट्रतोड़क तो किसी को जोड़क तक का प्रमाणपत्र देते हैं। बाप रे! हमारी तो इतनी ताकत नहीं है कि हम किसी के लिये ऐसा लिख सकें।

इन बुद्धिजीवियों ने ऐसे इतिहास संजोकर रखा है जिस पर यकीन करना ही मूर्खता है क्योंकि इनके बौद्धिक पूर्वजों ने अपना नाम इतिहास में दर्ज कराने के लिये ऐसी किताबें लिख गये जिसको पढ़कर लोग उनकी भ्रामक विचाराधारा पर उनका नाम रटते हुए आगे बढ़ते जायेंं। ऐसा तो है नहीं कि सौ पचास वर्ष पूर्व हुए बुद्धिजीवी कोई भ्रमित नहीं रहे होंगे बल्कि हमारी तो राय है कि उस समय ऐसे साधन तो थे नहीं इसलिये अधिक भ्रमित रहे होंगे। फिर वह कोई देवता तो थे नहीं कि हर बात सच मान जी जाये पर उनके समर्थक इतने यहां है कि उनसे विरोधी बुद्धिजीवी वर्ग के ही लोग लड़ सकते हैं। समदर्शी भाव वाले विद्वान के लिये तो उनसे दो हाथ दूर रहना ही बेहतर है। अगर नाम कमाने के चक्कर में हाथ पांव मारे तो पता पड़ा कि सभी विचारधारा के बुद्धिजीवी कलम लट्ठ की तरह लेकर पीछे पड़ गये।
इतिहास के अनाचार, व्याभिचार और अशिष्टाचार की गाथायें सुनाकर यह बुद्धिजीवी समाज में समरसता का भाव लाना चाहते हैं। ऐसे में अगर किसी प्राचीन महान संत या ऋषि का नाम उनके सामने लो तो चिल्ला पड़ते हैं-अरे, तुझे तो पुराने विषय ही सूझते हैं।‘

अब यह बुद्धिजीवी क्या करते हैं उसे भी समझ लें
किसी जाति का नाम लेंगे और उसको शोषित बताकर दूसरी जाति को कोसेंगे। मतलब शोषक और और शोषित जाति का वर्ग बनायेंगे। फिर जायेंगे शोषित जाति वाले के पास‘उठ तू। हम तेरा उद्धार करेंगे। चल संघर्ष कर।’

फिर शोषक जाति वाले के पास जायेंगे और कहेंगे-‘हम बुद्धिजीवी हैं हमारा अस्तित्व स्वीकारा करो। हमसे बातचीत करो।’

तय बात है। फिर चंदे और शराब पार्टी के दौर चलते हैं। इधर आश्वासन देंगे और उधर सिंहासन लेंगे। अब अगर यह समाज को बांट कर समाज को नहीं चलायेंगे तो फिर इनका काम कैसे चलेगा।

ऐसे ही धर्म के लिये भी करेंगे। एक धर्म को शोषक बताकर उसे मानने वाले से कहेंगे-‘उठ तो अकेला नहीं है हम तेरे साथ हैं। उठ अपने धर्म के सम्मान के लिये लड़। तू चाहे जो गलती कर हम तुझे और तेरे धर्म को भले होने का प्रमाणपत्र देंगे।’

दूसरे धर्म वाले के पास तो वह जाते ही नहीं क्योंकि उसके लिये प्रतिकूल प्रमाणपत्र तो वह पहले ही तैयार कर चुके होते हैं। फिर शुरू करेंेगे इधर आश्वासन देने और उधर सिंहासन-यानि सम्मान और को पुरस्कार आदि-लेने का काम।’

मतलब यही है कि अब फिर वह दौर शुरू हो गया है कि हम जैसे समदर्शी भाव के लेखक गुमनामी के अंधेरे में खो जायें, पर यह अंतर्जाल है यहां सब वैसा नहीं है जैसा लोग सोचते हैं। यही वजह है कि लिखे जा रहे हैं। समदर्शिता के भाव में जो आनंद है वह पूर्वाग्रहों में नहीं है-अपने लेखन के अनुभव से यह हमने सीखा है। इसमें इनाम नहीं मिलते पर लोगों की वाह वाह दिल से मिलती है। अगर प्रकाशन जगत ने हमें समर्थन दिया होता तो शायद हम भी कहीं विचाराधाराओं की सेवा करते होते। ऐसी कोशिश यहां भी हो रही है पर यहां हर चीज वैसी नहीं है जैसे लोग सोचते हैं। सो लिखे जा रहे हैं। वैसे इन बुद्धिजीवियों का ज्ञान तो ठीक ठाक है पर अपना चिंतन और मनन करने का सामथर््य उनमें नहीं है। वैसे उनके आका यह पसंद भी नहीं करते कि कोई अपनी सोचे। हां, अब तो अंतर्जाल पर भी चरित्र प्रमाण पत्र बांटने का काम शुरू हो गया है। देखते हैं आगे आगे होता है क्या। यह आश्वासन और सिंहासन का खेल है हालांकि समाज का आदमी इसे देखता है पर उसका निजी जीवन अब इतना कठिन है कि वह इसमें दिलचस्पी नहीं लेता।

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