पूरी उम्र फिक्र करते रहे
कयामत के खौफ और इंतजार की
पर वह नहीं आयी
आंखें तब खुलीं जब
फिक्र ही कयामत लायी
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उनका ‘बेफिक्र रहो’ कहने से ही
अपनी फिक्र बढ़ जाती है
क्योंकि फिर उनको हमारी याद नहीं आती
उनकी बेफिक्री बहुत डराती है
उनके लिये यह दो लफ्ज हैं
जिसकी जगह उनके दिल में ही नहीं होती
ऐसे में फिर फिक्र कहां दूर हो पाती है
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यह कविता इस ब्लॉग
कयामत के खौफ और इंतजार की
पर वह नहीं आयी
आंखें तब खुलीं जब
फिक्र ही कयामत लायी
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उनका ‘बेफिक्र रहो’ कहने से ही
अपनी फिक्र बढ़ जाती है
क्योंकि फिर उनको हमारी याद नहीं आती
उनकी बेफिक्री बहुत डराती है
उनके लिये यह दो लफ्ज हैं
जिसकी जगह उनके दिल में ही नहीं होती
ऐसे में फिर फिक्र कहां दूर हो पाती है
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'दीपक भारतदीप की शब्द प्रकाश-पत्रिका'पर मूल रूप से प्रकाशित की गयी है और इसके प्रकाशन किसी अन्य को अधिकार नहीं है.
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