स्वात घाटी में कथित उदारवादी तालिबानों को मनमानी करने की छूट पाकिस्तान सरकार ने दी थी तब उसका विरोध अमेरिका ने दिखाने के लिये जरूर किया था पर सभी जानते थे कि अमेरिका के प्यादे राष्ट्रपति जरदारी के लिये यह संभव नहीं है कि वह उनके इशारे के बिना कोई इतना बड़ा निर्णय करे। अमेरिका ने पहले यही यह संकेत दिया था कि तालिबान उसका दुश्मन नहीं है इसलिये अलकायदा से उसे अलग करने का प्रयास करेगा।
पाकिस्तान में तालिबान के बढ़ते वर्चस्व से भारत को परेशानी होगी पर पाकिस्तान का सभ्रांत तबका और अमेरिकी रणनीतिकार उससे बेफिक्र नजर आ रहे हैं। उनको लगता है कि वह तो हर तरह से सुरक्षित रहेंगे।
अमेरिका जहां अफगानिस्तान और इराक से हटने की तैयारी करता दिख रहा है वहीं अफगानिस्तान में अपनी सेना भी बढ़ा रहा है। इराक की तेल और अफगानिस्तान की प्राकृतिक संपदा को वह इतनी आसानी से अमेरिका छोड़ देगा यह लगता नहीं है। हां, वह कूटनीतिक ढंग से दोनों जगह स्थानीय गुटों को अपने सहयोग के लिये तैयार कर रहा है-इसका सीधा आशय यह है कि वह धन देकर उनको खरीदेगा।
ओबामा के निर्णयों को लेकर भारत आश्वस्त नहीं रह सकता। हालांकि अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव के दौरान भारत के प्रचार माध्यमों ने उनको हीरो बनाकर यह प्रचारित किया पर अब उनकी राह यह संदेह पैदा करती है कि बहुत लंबे समय तक उनकी यह छबि यहां रह पायेगी। अपनी तरक्की,संस्कृति,विज्ञान और ज्ञान को कमतर मानने वालों की इस देश में कमी नहीं है और उनके लिये अमेरिका एक स्वर्ग की तरह है। शायद बहुत कम लोगों ने इस बात पर ध्यान दिया था कि भारत के चंद्रयान -1 के प्रक्षेपण पर ओबामा ने बहुत चिंता जताई थी। विश्व के हालत बदल रहे हैं और इससे अनेक देशों की रणनीति में भी बदलाव आयेंगे। सबसे बड़ी है आर्थिक मंदी का प्रकोप। शुद्ध रूप से औद्योगिक अर्थव्यवस्था पर आधारित देशों के लिये यह संकट का समय है-अनेक आतंकवादी संगठन भी इसका शिकार होंगे क्योंकि भले ही वह धर्म,जाति,भाषा और क्षेत्र का नाम लेकर संघर्ष करते दिखते हैं पर उनका लक्ष्य अपनी शक्ति से केवल धनार्जन करना ही होता है। प्रचार माध्यमों के समाचारों को देखें तो आतंकवादी संगठनों ने औद्योगिक संस्थानों में भी विनिवेश किया था और मंदी के प्रकोप ने जरूर कहीं न कहीं आर्थिक रूप से उनको कमजोर किया होगा। ऐसे में उनके आक्रमण कम होते जायें तो कोई आश्चर्य की बात नहीं।
अलकायदा के साथ तालिबान इसलिये बना रहा है क्योंकि धन और तकनीकी के मामले में उसको उससे बहुत आश्रय मिला। अफगानिस्तान और पाकिस्तान में अलकायदा के अपने लोग संख्या की दृष्टि से अधिक नहीं है पर धन और तकनीकी की वजह से वह नेतृत्व करते हैं। अलकायदा के लोग मध्य एशिया से आये हैं और भाषा तथा संस्कृति की दृष्टि से उनकी वहां के लोगों से एक दूरी हमेशा रही होगी। ऐसे में धन की कमी से उनकी पकड़ कमजोर होना स्वाभाविक है और अमेरिका को इसका लाभ मिल सकता है। मुख्य बात यह है कि अमेरिका अपनी रणनीति बदल सकता है पर लक्ष्य नहीं। कुछ लोगों का कहना है कि अफगानिस्तान में बहुत अधिक प्राकृतिक संपदा तो है साथ ही तेल और प्राकृतिक गैस भंडारों के प्रचुर मात्रा मेें होने की संभावना है और यकीनन अभी भी अमेरिका उस पर नियंत्रण रखना चाहेगा। वहां उसकी तैयारी लंबे समय तक टिकने की है और हो सकता है कि वह पाकिस्तान में तालिबानों के वर्चस्व को स्वीकार कर ले। तालिबान उसके पुराने मित्र हैं और अमेरिका से उनका बैर अलकायदा की वजह से है।
ऐसे में भारत का चिंतित होना स्वाभाविक है। वैसे सामरिक दृष्टि से भारत कोई इराक या अफगानिस्तान नहीं है कि अमेरिका भारत पर सीधे हमला कर सके या कश्मीर हाल से निकाल सके। हां, वह पहले की तरह ही पाकिस्तान को सहायता देकर भारत में आतंकवादी घटनाओं के लिये प्रोत्साहित कर सकता है। यह भी तय है कि अगर तालिबान की भूमिका अगर पाकिस्तान में बनती है तो वह केवल भारत विरोध पर ही चलेगा। हालंाकि यह संभावनायें ही हैं। अलकायदा एक विश्वव्यापी संगठन है और फिलहाल उसकी सक्रियता अधिक नहीं दिखाई देती क्योंकि वह अमेरिका और उसके सहयोगियों पर कोई बड़ा हमला बहुत दिनों से नहीं कर सका है। ऐसे में तालिबानों का जिस तरह पाकिस्तान में वर्चस्व बढ़ रहा है उससे भारत के पास आगे एक ही उपाय बचेगा वह यह कि पाकिस्तान से हर तरह का नाता तोड़ ले। यही एक उपाय है जिससे भारत पाकिस्तान को विचलित कर सकता है। समस्या यहीं से शुरु होगी क्योंकि पाकिस्तान के फिल्मी अभिनेताओं,हास्य कलाकारों,गायकों,संगीतकारों क्रिकेट खिलाडि़यों,पुराने सैन्य अधिकारियों और नेताओं के प्रति जो यहां के एक खास वर्ग का रुझान है वह ऐसा नहीं करने देगा। यह खास वर्ग आतंकवाद की बड़ी घटना होने पर पाकिस्तान को कोसता जरूर है पर तब भी वह अपने पाकिस्तानी मोह को तिलांजलि नहीं देता और वहां के माडलों का भारतीय बाजार प्रचार माध्यमों में उपयोग करता है। वैसे पाकिस्तान के हालत बता रहे हैं कि वहां लोकतंत्र अब अधिक दिन का मेहमान नहीं हैं। पहले तो तालिबानों को बढ़ाया जायेगा फिर उनको रोकने के नाम पर सैन्य शासन आयेगा। अमेरिका थोड़ा बहुत विरोध कर चुप बैठ जायेगा क्योंकि चाहे कोई भी सेनाध्यक्ष हो वह अमेरिका का ही चेला होगा। वैसे अधिकतर विशेषज्ञ अमेरिका की नयी रणनीति का विश्लेषण कर रहे हैं और हो सकता है कि यह दांव कहीं उसको उल्टा न पड़ जाये क्योंकि इराक और अफगानिस्तान में अमेरिका की जो किरकिरी हुई उससे उसका संभलना आसान नहीं है। अभी अमेरिका का बहुचर्चित विमान इन्हीं तालिबानों ने मार गिराया जो कि इस बात का प्रमाण है कि उनके पास आधुनिक हथियार भी हैं।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप
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