या फिर विरोधी चिंगारी जलाओ
नहीं तो बाजार से बाहर हो जाओगे।
भीड़ में जाकर छोर मचाओ
या जंगल में कहीं चले जाओ
खड़े देखते रहे खाली
तो कमअक्ल कहलाओगे।
बिक गयी है यहां सोच सभी की
किसी के गुलाम होकर पीछे चलो
या आजादी से अपने गीत गाओ
खामोश रहे तो गूंगे कहलाओगे।
दूसरे के दर्द पर हंसना नहीं
अपने गमों के जहर से किसी को डसना नहीं
किसी गरीब पर अपनी जुबां से
कभी फब्तियां कसना नहीं
अपने यकीन की राह से भटकना नहीं
जिंदगी के अपने उसूलों पर ही
खड़े करना अपनी कामयाबी की इमारत
तभी इस भीड़ में अपना मुकाम बनाओगे।
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खुश होने के लिये बहानों को
क्या ढूंढना
एक नहीं हजार मिलते हैं
खोल रखे हैं जिन्होंने अपने दिल के दरवाजे
वह खुशी के आने के इंतजार में
आखों की खिड़कियों पर लगाने के लिये
महंगे परदे नहीं सिलते हैं।
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2.दीपक भारतदीप का चिंतन
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4.अनंत शब्दयोग
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप
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