पर रंग भी असली कहां आते
इसलिये ही नकली रंग से होली मना लेते हैं।
होली पर ही नहीं होते चेहरे रंगीन
यहां तो हर रोज लोग
खुद ही रंग लगा लेते हैं
आदमी की पहचान चेहरे से नहीं
दिल की नीयत से होती है
कोई झांक कर न देखे अंदर
इसलिये लोग रोज
देखने वालों को रंग से बरगला देते हैं।
.......................
उनके चेहरे पर वैसे ही रंग
बहुत लगे थे
इसलिये अपना रंग जाया न करने का
ख्याल हमारे दिल में आया।
उनके पास भी बहुत रंग थे
हमारे साफ चेहरे पर लगाकर
तरस न खायें
अपनी उदारता का अहंकार न जताये
उनसे पहले किसी ने हमसे होली खेली नहीं
इसकी अनुभूति न करायें
इसलिये हमने उनके दरवाजे से ही
अपना कदम पीछे हटाया।
.................................
लेखक के अन्य ब्लाग/पत्रिकाएं भी हैं। वह अवश्य पढ़ें।
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका
4.अनंत शब्दयोग
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप
No comments:
Post a Comment