रेगिस्तान में नहीं चलते।
हरी दूब में चलते हों जो पांव
रेत की धरती पर बुरी तरह जलते।
जमीन के अपने है कायदे
पर इंसान ने अपने उसूल नये बना लिये
आसमान में देखता है फरिश्ते
अपनी अक्ल के चिराग बुझा दिये
हरियाली में मिलते हैं हाथी
कहां मिलेंगे वह रेत के समंदर में
जहां रेगिस्तान के जहाज ऊंट पलते।
इठलाते हैं वह पहाड़
जिनको साथ हिमालय का मिला है
वह हरियाली और जल के स्त्रोतों में नहाते
बसंत और वर्षा में खुशी के गीत गाते
सूखी धरती पर रेत के ढेरों को
नहीं नसीब पानी की बूंद
फिर भी उनको न शिकवा न गिला है
अपने हालातों में सभी यूं ही ढलते।
पर इंसानों को चैन नहीं
रेतीली जमीन पर हरियाली
और पेड़ पौद्यों से सजी धरती पर
रेगिस्तान के कायदे चलाने के लिये
करता है लड़ाई
ताकि हो उसकी बड़ाई
अपनी ताकत दिखाने के लिये उनके दिल मचलते।
इस धरती पर बदलाव की
धारा लाकर अपने इंसान होने का
सबूत देने के लिये
अपने दिमाग घमंड से सिल दिये
इंसान को मिली है अक्ल
दिखाये उसकी ताकत उसे चैन नहीं आता
मिसाल जमती हो या नहीं
हर कोई एक दूसरे पर थोप कर इतराता
रेगिस्तान में पीपल का पेड़ नहीं बो सकता
इसलिये हरियाली में खुजूर का पेड़ लगाता
तेल से कर रहा है अपनी दुनियां रौशन
जानता है कि पानी के बिना जिंदगी नहीं हेाती
फिर भी उसकी परवाह नहीं
जमीन के हर हिस्से के
अपने होते अलग कायदे
जिन पर चलकर ही होते हैं फायदे
पर उधार की अक्ल पर चलने वाले
इंसानों में अकड़ बहुत है
ला नहीं सकते जो अपने घर में अमन
सह नहीं पाते खामोश चमन
इसलिये उसे उजाड़ने के लिये
बना लेते हैं अपने कायदे
लड़ते हैं उनका नाम लेकर जंग
जिसमें शहर और घर जलते हैं।
...........................
लेखक के अन्य ब्लाग/पत्रिकाएं भी हैं। वह अवश्य पढ़ें।
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका
4.अनंत शब्दयोग
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप
No comments:
Post a Comment