सुनकर कहीं भी आग लगने की खबर
तैयार हो जाते हैं रहबर
साथ में ले जाते हैं
छपे बयानों का पुलिंदा
देखते हैं पहले कितने मरे कितने बचे जिंदा
फिर करते हैं अपनी बात
पानी की बोतल भी चलते हैं साथ लिए।
आग बुझाने के मतलब से नहीं
बल्कि गले की प्यास बुझाने के लिए।
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कहीं भी हो हादसा
वह पकडते हैं वही रास्ता
प्रचार में चमकने के अलावा
उनका कोई दूसरा नहीं होता वास्ता।
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यह इंसानी फितरत ही है कि
हादसों में भी जाति और धर्म ढूंढने लगे हैं।
रहबरों ने भी तय कर लिया है
वह इधर जायेंगे, उधर नहीं
जहां आसार हो दौलत और शौहरत मिलने
वहीं बांटते और बेचते हैं हमदर्दी
कौन कहता है कि रहबर जगे हैं।
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1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका
4.अनंत शब्दयोग
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप
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