Wednesday, January 27, 2010

धोती और टोपी-हिन्दी हास्य व्यंग्य (dhoti aur topi-hindi hasya vyangya)

दीपक बापू जल्दी जल्दी सड़क पर जा रहे थे, सामने से थोड़ी दूरी पर स्कूटर पर सवार फंदेबाज आता दिखा। उनका दिल बैठ गया वह सोचने लगे कि ‘यह अब समय खराब करेगा। इससे बचने का उपाय भी तो नहीं है।’ फिर उन्होंने देखा कि वह तिराहे से गुजर रहे हैं और तत्काल अपने बायें तरफ मुड़कर दूसरे रास्ते पर चलें तो बच जायेंगे। उन्होंने यही किया पर स्कूटर पर सवार फंदेबाज उसी तिराहे से मुड़कर पीछे से आया और बोला-‘क्या बात है दीपक बापू! यह कैसे सोच लिया कि अपने इस आजीवन प्रशंसक से बचकर निकल जाओगे।’
दीपक बापू बोले-‘नहीं, यार, ऐसा नहीं है। दरअसल हमने अपने लिये एक टोपी खरीदी थी, वह उसी दुकान पर छोड़ आये। इधर कहीं शादी पर जाना है। इसलिये वही लेने जा रहे है। चलो, तुम मिल गये तो उस दुकान तक छोड़ दो।’
फंदेबाज ने ना में सिर हिलाते हुए कहा-‘अगर आपको अपनी टोपी बचानी है तो उसके लिये आपको स्वदेशी ढंग से ही प्रयास करना चाहिये। यह स्कूटर और पैट्रोल तो पाश्चात्य सभ्यता की देन है।’
दीपक बापू बोले-‘अच्छा, ठीक है! वैसे तुम्हें हमने अपने पीछे आने की दावत को नहीं दी थी। हम अपने मार्ग पर पैदल ही जा रहे थे।’
फंदेबाज ने कहा-‘हमने सोचा कोई दूसरी परेशानी है पर यह टोपी बचाने की समस्या ऐसी नहीं है कि हम आपके उसूलों के खिलाफ जाकर मदद करें। हां, आप चलते रहिये पीछे से हम स्कूटर पर धीरे धीरे आते रहेंगे। जब आप दूरे होंगे तो स्कूटर चलाते हुए आयेंगे। फिर रुक जायेंगे पर लौटते हुए जरूर वापस लायेंगे क्योंकि टोपी बचाने जैसा अहम विषय तब नहीं रहेगा।’
दीपक बापू फिर अपनी राह चले। रास्ते में ही उन्होंने देखा कि आलोचक महाराज एक पान की दुकान पर खड़े थे। वहां रास्ता बदलने की गुंजायश नहीं थी। तब उन्होंने दायें चलने की बजाय बायें किनारे से चलने का निर्णय लिया, मगर आलोचक महाराज की नज़र उन पर पड़ ही गयी। वह ऊं ऊं कर उनको बुलाते रहे पर दीपक बापू अनसुनी कर आगे बढ़ गये मगर पीछे से आ रहे फंदेबाज ने आगे स्कूटर खड़ा कर दिया और कहा-‘अरे, आलोचक महाराज आपको बुला रहे हैं। उनसे मिला करो, हो सकता है कि आपकी कुछ कवितायें अखबारों में छपवा दें। उनकी बहुत जान पहचान बहुत है। हो सकता है कभी कोई सम्मान वगैरह भी दिलवा दें।’
दीपक बापू ने आखें तरेरी-‘तुम्हें सब मालुम है फिर काहे आकर हमें उनसे मजाक में उलझा रहे हो।’
फंदेबाज ने भी उनकी बात को अनसुना कर दिया, बल्कि वह आलोचक महाराज की तरफ हाथ उठाकर इशारा कर बताने लगा कि उसने उनका संदेश उनके शिकार तक पहुंचा दिया है। दीपक बापू ने आलोचक महाराज को देखा और फिर पीछे लौटकर उनके पास गये और बड़े आदर से बोले-‘आलोचक महाराज नमस्कार! बड़े भाग्य जो आपके दर्शन हुए।’
आलोचक महाराज ने उंगली से रुकने का इशारा किया और थूकने के लिये थोड़ी दूर गये और फिर लौटे और बोले-‘मालुम है कि तुम हमारी कितनी इज्जत करते हो! हमारी पीठ पीछे तुम्हारी बयानीबाजी भी हम तक पहुंच जाती है। अगर हमारी इज्जत कर रहे होते तो तुम इस कदर फ्लाप नहीं हुए होते। इतने साल हो गये लिखते हुए पर इतनी अक्ल नहीं आयी कि जब तक हम जैसों की सेवा नहीं करोगे तब लेखन जगत में अपना नाम नहीं कमा सकते। घिसो अपनी उंगलियां, देखते हैं कब तक घिसते हो?’
दीपक बापू बोले-‘‘आपका कहना सही है पर अपनी रोटी की जुगाड़ के पास इतना समय भी बड़ा मुश्किल से मिल पाता है कि लिखें। अब या तो हम लिखें नहीं या फिर पुराने लिखे को लेकर इधर उधर डोलते फिरें कि ‘भईये, हमारा लिखा हुआ पढ़ो और छापो, नहीं पढ़ते तो हमसे सुनो’। आपकी सेवा का सुअवसर हमें कभी कभार ही मिल पाता है। अब आप ही बताईये कि क्या करें कि हमारा जीवन धन्य हो जाये!’
आलोचक महाराज बोले-‘अभी तो हमारी सेवा नहीं करनी पर एक सम्मेलन हो रहा है। तीन दिन तक चलेगा। अब तुम तो जानते हो कि आजकल धूल कितनी है। इसलिये हर दिन कुर्सियों की झाड़ पौंछ के लिये कपड़ा चाहिये। हमने सोचा तुम्हारे यहां पुरानी धोतियां होंगी। वह जरा भिजवा देना।’
इससे पहले दीपक बापू कुछ बोलते, बीच में फंदेबाज बोल पड़ा-‘महाराज, कुछ सम्मेलन की इज्जत का ख्याल भी करो। यह धोती पहनते हुए उसका कचूमर निकाल देते हैं। वह इतनी पुरानी है कि धूल के कण क्या हटेंगे, बल्कि उनकी मार से इनकी धोती के टुकड़े होकर गिरने लगेंगे।’
आलोचक महाराज ने फंदेबाज की तरफ गुस्से में देखा और कहा-‘देखो, हम तुम्हारे बारे में इतना ही जातने हैं कि तुम इसके ऐसे दोस्त हो जो अनेक बार इनकी टोपी उछालते हो जिससे व्यथित होकर यह हास्य कवितायें लिखते हैं। यह धोती खींचने वाला काम हमारे सामने मत करो। यह काम केवल हमारा है।’’
दीपक बापू बोले-‘महाराज, अब आप इसे छोड़े। मैं आपको एक नहंी पंद्रह धोतियां भिजवा दूंगा। कुछ पुरानी टोपियां भी रखी हैं। वह इस काम में लेना।’
आलोचक महाराज बोले-‘‘‘फिर तुमने हमारे साथ चालाकी की! धोती को देखकर कोई नहीं पूछेगा कि वह कहां से आयी? टोपी देख कर कोई भी सवाल कर सकता है तब तुम्हारा नाम पता चल जायेगा। इस तरह तुम अपना नाम कराना चाहते हो।’
दीपक बापू हंसकर बोले-‘क्या बात करते हैं महाराज! हमने कभी आपके साथ क्या किसी के साथ भी चालाकी की है? आपके पास प्रमाण हो तो बता दें। कब है सम्मेलन?’’
आलोचक महाराज बोले-तीन बाद है! पर तुम क्यों पूछ रहे हो? क्या वहां आकर लोगों कों बताओगे कि तुम्हारी पुरानी धोतियां झाड़ने पौंछने के लिये यहां लायी गयी हैं। ऐ भईये, तुम उधर झांकना भी मत, चाहे धोतियां दो या नहीं। भई, हमने तो यह सोचा कि चलो सम्मेलन वालों का भी काम हो जाये और तुम्हारे घर का सामान भी ठिकाने लग जाये। वैसे पुरानी धोतियों का होता भी क्या है? उन पर तो पुराने कपड़े लेने वाले कोई सामान भी नहीं देते। इस तरह तुम्हारे घर की भी सफाई हो जायेगी।’
फंदेबाज को अपना अपमान बहुत बुरा लगा था और बाद में दीपक बापू उसकी हंसी न उड़ायें इसलिये आलोचक महाराज से प्रशंसा पाने की गरज से बोला-’आप कहें तो वहां अपनी पुराने पैंट शर्ट भी भिजवा दूं।’
आलोचक महाराज ने कहा-‘तुमसे कहा था न कि चुप रहो! अरे, यह पैंट शर्ट सामा्रज्यवाद की पहचान है, जिसे अंग्रेज यहां छोड़ गये। हम तो कुर्ता पायजामा वाले ठेठ सभ्य भारतीय हैं। तुम मसखरी मत करो।’
इधर दीपक बापू ने उनसे कहा-‘मसखरी तो आप हमसे कर रहे है। हमने भला उस सम्मेलन में आने की बात कब कही? अरे ऐसे सम्मेलन थकेले, बुझेले, अकड़ेले और अठखेले लोगों के मिलन को ही कहा जाता हैं। हम इस श्रेणी में नहीं आते। लेखन हमारा व्यवसाय नहीं शौक है! आपको पुरानी धोतियां भिजवा देंगे। नमस्कार, अब चलता हूं।’
दीपक बापू चल पड़े तो पींछे से फंदेबाज भी आ गया और बोला-‘चलो, दीपक बापू। उन आलोचक महाराज ने आपको दुःखी किया इसलिये मेरा दायित्व बनता है कि आपको स्कूटर बिठाकर ले चलूं।’
दीपक बापू बोले-‘उन आलोचक महाराज ने हमारी टोपी बख्श दी, यही हमारे लिये बहुत है। अब तुम भी रास्ता नापो। अपनी टोपी हम खुद बचा लेंगे।’
फंदेबाज बोला-‘ठीक है, पर यह थकेले, बुझेले, अकड़ेले, और अठखेले लोगों से क्या आशय था?
‘नहीं मालुम!’यह कहते हुए दीपक बापू आगे बढ गये-‘अब यह कभी अगली किश्त में बतायेंगे जब तुम हमारी टोपी पर संकट पैदा करोंगे?’
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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