शहर को बढ़ते देखा
सड़कों को सिकुड़ते देखा,
इंसानों की जिंदगी में
बढ़ते हुए दर्द के साथ
हमदर्दी को कम होते देखा।
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आसमान छूने की चाहत में
कई लोगों को जमीन पर
औंधे मुंह गिरते देखा,
बार बार खाया धोखा
फिर भी हर नये ठग की
चालों में उनको घिरते देखा।
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हिन्दी में पैदा हुए
अंग्रेजी के बने दीवाने
पढ़े लिखे लोगों की
जुबां को लड़खड़ाते देखा।
भाषा और संस्कार
इंसान की बुनियाद होती है
मगर अपने अंदर बनाने की बजाय
लोगों को बाजार से खरीदते देखा
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ख्वाहिशें पूरी करने के लिये
आंखों से ताक रहे हैं,
बोलते ज्यादा, सुनते कम
लोग सोच से भाग रहे हैं
समझदार को भी
चिल्लाते हुए देखा।
सभ्य शब्द का उच्चारण
बन गया है कायरता का प्रमाण
बहादुरी दिखाने के लिये
लोगों को गाली लिखते देखा।
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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