Tuesday, July 26, 2011

बूढ़ा फंसे या जवान-हिन्दी हास्य कविता (boodha fanse ya jawan-hindi hasya kavita)

चेला भागता हुआ गुरु के पास आया
और बोला
‘‘अपने पास यह कैसा धर्म संकट आया है,
अपनी अधिग्रहीत जमीन वापस पाने की चाहत में
एक किसान ने दी है अपने आश्रम में हाजिरी
तो उधर एक उसकी जमीन पर
फ्लेट खरीदने वाले क्लर्क ने
भी आपका दरवाजा खटखटाया है,
आप तो बस, तथास्तु कहकर
छूट जाते हैं
मुझे ही करने पड़ते हैं
आपके आशीर्वाद को सत्य सिद्ध करने का काम,
इससे ही बढ़ता रहा है आपका नाम,
आपको शायद मालुम नहीं
किसान से कम भाव पर खरीदकर
भवन निर्माता को दी गयी,
इधर क्लर्क को घन का सपना दिखाकर
भारी रकम ली गयी,
मामला अब उलझ गया है,
यह मामला एकदम नया है,
किसान चला रहा है
अपने साथियों से मिलकर
जमीन वापस पाने का अभियान,,
इधर क्लर्क भी अपनी बाहें रहा है तान,
इन दोनों के हल कैसे होगा
मेरी समझ में नहीं आया।’’

सुनकर गुरूजी हंसे फिर बोले
‘इसलिये हम गुरु बने रहे
तू रहा पुराना चेला
जबकि तेरे जैसे मेरे पास कई चेले नये हैं,
किसान और क्लर्क ही
अपने पास नहीं आते,
बड़े बड़े दौलतमंद और ओहदेदार
मेरे यहां सिर झुकाते
सभी को देते हम विजयी भव का आशीर्वाद,
जो जीता वह हमारे गुण गाता
जो हारा नहीं रहता उसे कुछ याद,
जिसका काम हो जाये
उस पर हमारी कृपा होने का तुम दावा करना,
जिसका न बने उसका जिम्मा
सर्वशक्तिमान की इच्छा पर धरना,
आपना काम है बस दान और चंदा लेना,
समाज के ग्राहक को चमत्कार के नाम पर
धर्म का धंधा देना,
जाल में बूढ़ा फंसे या जवान,
हमें तो बस है आशीर्वाद देने से काम,
यही मेरे गुरु से मुझे बताया।’’
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
jpoet, Writer and editor-Deepak 'Bharatdeep',Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
 
यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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Saturday, July 16, 2011

याद्दाश्त असली दुश्मन है-हिन्दी शायरियां yaddashta asli dushman-hindi shayriyan)

हमने उनको भुलाने की
कोशिश बहुत की
पर याद आते हैं
उनके तसल्ली दिलाने वाले वादे
कहते थे
तुम्हारी जिंदगी जन्नत बना देंगे
मगर दे गये जुदाई का गम
दुनियां बना दी
हमारे लिये हर पल की जहन्नुम
-----
किसी की यादों के सहारे
कब तक जिंदा रहते
इसलिये भूलने लगे हैं
अपनी जिंदगी के खुशनुमा पल भी
सुकूल मिला है इतना
लगा है कि इंसान की
असली दुश्मन उसकी याद्दाश्त होती है।


कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
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Thursday, July 07, 2011

सोने के खजाने से बड़ा है आम आदमी का पसीना-हिन्दी लेख (sone ke khazane se bada hai aam admi ka pasina-hindi lekh


  त्रावणकोर के स्वामी पद्मनाभ मंदिर में सोने का खजाना मिलने को अनेक प्रकार की बहस चल रही है।  एक लेखक, एक योग साधक और एक विष्णु भक्त होने के कारण इस खजाने में इस लेखक दिलचस्पी बस इतनी ही है कि संसार इस खजाने के बारे में क्या सोच रहा है? क्या देख रहा है? सबसे बड़ा सवाल इस खजाने का क्या होगा?

          कुछ लोगों को यह लग रहा है कि इस खजाने का प्रचार अधिक नहीं होना चाहिए था क्योंकि अब इसके लुट जाने का डर है।  इतिहासकार अपने अपने ढंग से इतिहास का व्याख्या करते हैं पर अध्यात्मिक ज्ञानियों का अपना एक अलग नजरिया होता है। दोनों एक नाव पर सवारी नहीं करते भले ही एक घर में रहते हों। इस समय लोग स्विस बैंकों में कथित रूप से भारतीयों के जमा चार लाख करोड़ के काले धन की बात भूल रहे हैं। इसके बारे में कहा जा रहा था कि यह रकम अगर भारत आ जाये तो देश के हालत सुधर जायें।  अब त्रावनकोर के पद्मनाभ मंदिर के खजाने की राशि पांच लाख करोड़ तक पहुंचने का अनुमान लगाया जा रहा है। बहस अब स्विस बैंक से हटकर पद्मनाभ मंदिर में  पहुंच गयी है।
हमारी दिलचस्पी खजाने के संग्रह की प्रक्रिया में थी कि त्रावणकोर के राजाओं ने इतना सोना जुटाया कैसे? इससे पहले इतिहासकारों से यह भी पूछने चाहेंगे कि उनके इस कथन की अब क्या स्थिति है जिसमें वह कहते हैं कि भारत की स्वतंत्रता के समय देश के दो रियासतें सबसे अमीर थी एक हैदराबाद दूसरा ग्वालियर।  कहा जाता है कि उस समय हैदराबाद के निजाम तथा ग्वालियर के सिंधियावंश के पास सबसे अधिक  संपत्ति थी।  त्रावणकोर के राजवंश का नाम नहीं आता पर अब लगता है कि इसकी संभावना अधिक है कि वह सबसे अमीर रहा होगा। मतलब यह कि इतिहास कभी झूठ भी बोल सकता है इसकी संभावना सामने आ रही है। बहरहाल त्रावणकोर के राजवंश विदेशी व्यापार करता था।  बताया जाता है कि इंग्लैंड के राजाओं के महल तक उनका सामान जाता था। हम सब जानते हैं कि केरल प्राकृतिक रूप से संपन्न राज्य रहा है।  फिर त्रावणकोर समुद्र के किनारे बसा है।  इसलिये विश्व में जल और नभ परिवहन के विकास के चलते उसे सबसे पहले लाभ होना ही था।  पूरे देश के लिये विदेशी सामान वहां के बंदरगाह पर आता होगा तो  यहां से जाता भी होगा।  पहले भारत का विश्व से संपर्क थल मार्ग से था। यहां के व्यापारी सामान लेकर मध्य एशिया के मार्ग से जाते थे। तमाम तरह के राजनीतिक और धार्मिक परिवर्तनों के चलते यह मार्ग दुरुह होता गया होगा तो जल मार्ग के साधनों के विकास का उपयोग तो बढ़ना ही था।  भारत में उत्तर और पश्चिम से मध्य एशियाई देशों से हमले हुए पर जल परिवहन के विकास के साथ ही  पश्चिमी देशों से भी लोग आये। पहले पुर्तगाली फिर फ्रांसिसी और फिर अंग्रेज।  ऐसे में भारत के दक्षिणी भाग में भी उथल पुथल हुई।  संभवत अपने काल के  शक्तिशाली और धनी राज्य होने के कारण त्रावनकोर के तत्कालीन राजाओं को विदेशों से संपर्क बढ़ा ही होगा।  खजाने के इतिहास की जो जानकारी आ रही है उसमें विदेशों से सोना उपहार में मिलने की भी चर्चा है।  यह उपहार फोकट में नहीं मिले होंगे।  यकीनन विदेशियों को अनेक प्रकार का लाभ हुआ होगा। सबसे बड़ी बात यह है कि इस मार्ग से भारत में आना सुविधाजनक रहा होगा।  विदेशियों ने सोना दिया तो उनको क्या मिला होगा? यकीनन भारत की प्रकृतिक संपदा मिली होगी जिसे हम कभी सोने जैसा नहीं मानते। बताया गया है कि त्रावणकोर का राजवंश चाय, कॉफी और काली मिर्च के व्यापार से जुड़ा रहा है।  मतलब यह कि चाय कॉफी और काली मिर्च हमारे लिये सोना नहीं है पर विदेशियों से उसे सोने के बदले लिया।
सोना भारतीयों की कमजोरी रहा है तो भारत की प्राकृतिक और मानव संपदा विदेशियों के लिये बहुत लाभकारी रही है।  केवल त्रावणकोर का राजवंश ही नहीं भारत के अनेक बड़े व्यवसायी उस समय सोना लाते  और भारत की कृषि और हस्तकरघा से जुड़ी सामग्री बाहर ले जाते  थे।
        सोने की खदानों में मजदूर काम करता है तो प्रकृतिक संपदा का दोहन भी मजदूर ही करता है। मतलब पसीना ही सोने का सृजन करता है।
         अपने लेखों में शायद यह पचासवीं बार यह बात दोहरा रहे हैं कि विश्व के भूविशेषज्ञ भारत पर प्रकृति की बहुत कृपा मानते हैं।  यहां भारत का अर्थ व्यापक है जिसमें पाकिस्तान, अफगानिस्तान नेपाल, श्रीलंका,बंग्लादेश और भूटान भी शामिल है।  इस पूरे क्षेत्र को भारतीय उपमहाद्वीप कहा जाता रहा है पर पाकिस्तान से मित्रता की मजबूरी के चलते इसे हम लोग आजकल दक्षिण एशिया कहते हैं। 
         कहा जाता है कि कुछ भारतीय राज्य तो ऐसे भी हुए हैं जिनका तिब्बत तक राज्य फैला हुआ था।  दरअसल उस समय के राजाओं में आत्मविश्वास था और इसका कारण था अपने गुरुओं से मिला  अध्यात्मिक ज्ञान!  वह युद्ध और शांति में अपनी प्रजा का हित ही सोचते थे।  अक्सर अनेक लोग कहते हैं कि केवल अध्यात्मिक ज्ञान में लिप्तता की वजह से यह देश विदेशी आक्राताओं का शिकार बना। यह उनका भ्रम है। दरअसल अध्यात्मिक शिक्षा से अधिक आर्थिक लोभ की वजह से हमें सदैव संकटों का सामना करना पड़ा।  समय के साथ अध्यात्म के नाम पर धार्मिक पांखड और उसकी आड़ में आमजन की भावनाओं से खिलवाड़ का ही यह परिणाम हुआ कि यहां के राजा, जमीदार, और साहुकार उखड़ते गये।
         सोने से न पेट भरता है न प्यास बुझती है।  किसी समय सोने की मुद्रायें प्रचलन में थी पर उससे आवश्यकता की वस्तुऐं खरीदी बेची जाती थी। बाद में अन्य धातुओं की राज मुद्रायें बनी पर उनके पीछे उतने ही मूल्य  के सोने का भंडार रखने का सिद्धांत पालन में लाया जाता था। आधुनिक समय में पत्र मुद्रा प्रचलन में है पर उसके पास सिद्धातं यह बनाया गया कि राज्य जितनी मुद्रा बनाये उतने ही मूल्य का सोना अपने भंडार में रखे।  गड़बड़झाला यही से शुरु हुआ। कुछ देशों ने अपनी पत्र मुद्रा जारी करने के पीछे कुछ प्रतिशत सोना रखना शुरु किया।  पश्चिमी देशों का पता नहीं पर विकासशील देशों के गरीब होने कारण यही है कि जितनी मुद्रा प्रचलन में है उतना सोना नहीं है।  अनेक देशों की सरकारों पर आरोप है कि प्रचलित मुद्रा के पीछे सोने का प्रतिशत शून्य रखे हुए हैं। अगर हमारी मुद्रा के पीछे विकसित देशों की तरह ही अधिक प्रतिशत में सोना हो तो शायद उसका मूल्य विश्व में बहुत अच्छा रहे।
विशेषज्ञ बहुत समय से कहते रहे हैं कि भारतीयों के पास अन्य देशों से अधिक अनुपात में सोना है।  मतलब यह सोना हमारी प्राकृतिक तथा मानव संपदा की वजह से है।  यह देश लुटा है फिर भी यहां इतना सोना कैसे रह जाता है? स्पष्टतः हमारी प्राकृतिक संपदा का दोहन आमजन अपने पसीने से करता है जिससे सोना ही   सोने में बदलता है।  सोना लुटने की घटनायें तो कभी कभार होती होंगी पर आमजन के पसीने से सोना बनाने की पक्रिया कभी थमी नहीं होगी।
भारत में आमजन जानते हैं कि सोना केवल आपातकालीन मुद्रा है।  कुछ लोग कह रहे थे कि स्विस बैंकों से अगर काला धन वापस आ जाये तो देश विकास करेगा मगर उतनी रकम तो हमारे यहां मौजूद है।  अगर ढूंढने निकलें तो सोने के बहुत सारे खजाने सामने आयेंगे पर समस्या यह है कि हमारे यहां प्रबंध कौशल वाले लोग नहीं है।  अगर होते तो ऐसे एक नहीं हजारों खजाने बन जाते। प्रचार माध्यम इस खजाने की चर्चा खूब कर रहे हैं पर आमजन उदासीन है। केवल इसलिये उसे पता है कि इस तरह के खजाने उसके काम नहीं आने वाले। सुनते हैं कि त्रावणकोर के राजवंश ने अपनी प्रजा की विपत्ति में भी इसका उपयोग नहीं किया था।  इसका मतलब है कि उस समय भी वह अपने संघर्ष और परिश्रम से अपने को जिंदा रख सकी थी। बहरहाल यह विषय बौद्धिक विलासिता वाले लोगों के लिये बहुत रुचिकर है तो अध्यात्मिक साधकों के लिये अपना बौद्धिक ज्ञान बघारने का भी आया है।  जिनके सिर पर सोन का ताज था वही कटे जिनके पास खजाने हैं वही लुटे जो अपने पसीने से अपनी रोटी का सोना कमाता है वह हमेशा ही सुरक्षित रहा।  हमारे देश में पहले अमीरी और खजाने भी दिख रहे हैं पर इससे बेपरवाह समाज अधिक है क्योंकि उसके पास सोना के रूप में बस अपना पसीना है।  यह अलग बात है कि उसकी एक रोटी में से आधी छीनकर सोना बनाया जाता है।
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कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
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Friday, July 01, 2011

जनसुविधा केंद्र अधिक बनाने की मांग होनी चाहिए-हिन्दी लेख (jansuvidha kendra adhik banane ki mang hona chahie-hindi lekh)

             यह शर्म की बात है कि एक टीवी चैनल ने दिल्ली में फैली गंदगी के नाम पर वहां के निवासियों के यहां वहां पेशाब करने का स्टिंग ऑपरेशन किया। यह दूसरा ऐसा स्टिंग ऑपरेशन हैं जिसमें पिशाब मुद्दा बना है। इससे पहले पुणे के एक टिकिया बेचने का ठेला चलाने वाले का स्टिंग ऑपरेशन प्रस्तुत किया गया था। उसे उस लोटे में पिशाब करते हुए दिखा गया था जिससे वह अपने ग्राहकों को पानी पिलाता था।
              दिल्ली की गंदगी में जनभागीदारी दिखाने के लिये पेशाब करते हुए पकड़े गये लोगों के बयान दिखाये गये। यह दिखाना अनुचित लग रहा था। कुछ सवाल हुए जिनसे क्षोभ हुआ तो हंसी भी आई।
          एक बुजुर्ग से पूछा गया कि ‘आप तो बुजुर्ग हैं फिर ऐसे खुले में पेशाब क्यों करते हैं।’
          हम तो यह कहेंगे कि जितनी उनकी उम्र थी उसे देखते हुए तो यही कम नहीं था कि वह स्वयं पिशाब कर रहे थे। अपने स्वास्थ्य का स्तर अभी भी स्वयं चलने लायक बनाये रखा था। इसके अलावा वह कैमरे के सामने आकर भी अपने हृदय को मजबूत रख सके, यह बात कम प्रशंसनीय है।
         कैमरे के सामने पकड़े गये लोगों का चेहरा भारी तनाव में था। ऐसा तनाव पैदा करना हमारे हिसाब से अपराध है। यह ठीक है कि कहीं खुले में पिशाब करना ठीक नहीं है पर मुश्किल यह है कि देश का विकास बहुत हुआ है और उसने जनसुविधाओं को लील लिया है। उसके अलावा उसने लोगों की सहनशीलता को भी समाप्त कर दिया है। लोगों को अपनी जीवन की हर आवश्यकता पूरी करने के लिये पहले से अधिक दूर जाना पड़ता है। शहर अब बड़े हो गये हैं और रोजगार की स्थितियों में भारी बदलावा आया है। आदमी के पास साइकिल हो या कार या स्कूटर उसकी दैहिक क्रियायें पहले की तरह हैं। आदमी लोहे पर लोहा खरीदता जा रहा है, पत्थर सजा रहा है पर उसकी देह लोहा की नहीं बनी और न दिल पत्थर की तरह मजबूत हो सकता है। दरअसल मलमूत्र के त्याग से मनुष्य शरीर तनाव मुक्त होता है।
                 आदमी का तो ठीक है स्त्रियों के साथ भी समस्या अधिक विकट होती जा रही है। स्त्रियों पहले से अधिक घर से बाहर निकलने लगी हैं। इसका कारण यह है कि कार्यस्थल और घर की दूरियां बढ़ने से वह पुरुषों की घर की जिम्मेदारी में हिस्सा बंटाने के लिये जहां सामान वगैरह खरीदने जाने लगी हैं तो वहीं कमाने के लिये उनको भी अधिक दूरी वैसे ही तय करनी पड़ती है जैसे पुरुष करते हैं। उनके लिये तो वैसे भी जनसुविधा केंद्र कम बने हैं। स्त्रियों के विकास की बात बहुत करने वो हैं पर उनके लिये अधिक से अधिक जनसुविधा केंद्र बनाने की कोई मांग नहंी करतां।
कहने का अभिप्राय यह है कि जो पहले से ही उपलब्ध जनसुविधा केंद्र थे उनकी संख्या कई गुना बढ़ना चाहिए था पर हो उल्टा हो रहा है। अनेक जगह पुराने जनसुविधा केंद्र लापता हो गये हैं और जो नये बने होंगे वह उनसे कम ही होंगे। मुश्किल यह है कि जनता की चिंता करने वाले जितने भी लोग हैं उनके सामने शायद ऐसी समस्यायें नहीं आती इसलिये वह इसकी चिंता नहंी करते। पत्रकारिता करने वालों को भी शायद इसका आभास नहीं है कि सामान्य आदमी के लिये संघर्ष बहुत आसान नहीं है और ऐसे में उसे जनसुविधा केंद्रों अधिक निर्माण होना चाहिए। एक बात तय है कि जो देश की समस्याओं के बारे में सोचते हैं या प्रचार करते हैं उनमें से सभी के पास पेट्रोल चालित वाहन होंगे। पैदल या साइकिल पर शायद कोई चलता होगा इसलिये उनको नहीं पता शरीर के अधिक संचालन से पसीना और पेशाब शरीर से बाहर अधिक निकलता है। इनमें शायद ही किसी ने जिंदगी में ठेला चलाकर देखा होगा। दोष उनका नहीं है। उनके मस्तिष्क तथा हृदय में संवेदनाओं का प्रवाह केवल अपने स्वार्थों तक ही सीमित है। उनका दोष नहीं है इस पूरे समाज की स्थिति यही है। गरीब और मजदूर की उपस्थिति को यहां मनुष्य की तरह देखा ही कहां जाता है?
             अभी तक हम लोग विकास का सपना अमेरिका जैसा देख रहे हैं। पता नहीं वहां जनसुविधा केंद्रों की स्थिति क्या है? अलबत्ता अमेरिका में आबादी कम है फिर वहां के दृश्य हम टीवी या फिल्मों पर देखते हैं उससे तो लगता है कि शायद वहां जनसुविधा केंद्र पर्याप्त मात्रा में होंगे। मगर हमारे देश में विकास उनको लील रहा है।
हमारे एक दोस्त ने हमसे मजेदार बात कही कि ‘‘मैं जब घर से निकालता हूं तो दो चीजें नहीं भूलता। एक तो पानी की बोतल साथ लेना दूसरा निकलने से पहले अपने जलविकार निष्कासित करना। मार्ग में प्यास और पेशाब का संकट अत्यंत तनाव का कारण बनता है।’’
           इधर हम स्वास्थ्य विशेषज्ञों की इस चेतावनी को अनदेखा कर रहे हैं कि हमारे देश में चालीस प्रतिशत से अधिक लोग उच्चरक्तचाप के शिकार हैं और इनमें से कई तो इसे जानते भी नहीं। दरअसल पेशाब उच्च रक्तचाप को कम करता है। फिर पेशाब करते समय जानवर तक को मारना वर्जित है तो फिर इंसान की बात ही क्या? अगर इस तरह आपॅरेशन करते हुए किसी का पेशाब बंद हो गया तो उसके लिये खतरनाक भी हो सकता है। दूसरा यह भी कि शारीरिक श्रम करने पर जहां बाहर पसीना निकलता है वहीं देह को मौजूद जल भी निकासी की तरफ बढ़ता है। यह बात समझना चाहिए। कुछ लोगों को शायद यह अजीब लगे पर हमारा मानना है कि जनसुविधा केंद्र बनाने का अभियान छेड़ना चाहिए।
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