Monday, December 29, 2008

अपना लेखक घर पर ही टांगकर सम्मलेन में जायें-व्यंग्य

अक्सर कुछ लेखक जब कहीं बड़े लेखकों की साहित्य से संबंधित ऐसी बात सुनते हैं जो उनको अरुचिकर लगे तो उस पर अपनी कड़ी प्रतिक्रिया कहीं अखबार में पत्र संपादक में लिखते हैं-उनको अखबार अन्य कहीं जगह दे भी नहीं सकते क्योंकि बड़े साहित्यकारों के लिये सभी जगह सुरक्षित है। आजकल अंतर्जाल पर भी ऐसी ही प्रतिक्रियायें पढ़ने को मिल रही हैं।

हिंदी में कुछ ऐसे लेखक हैं जो मशहूर नहीं है पर साहित्य में रुचि होने के कारण लिखते भी हैं और अवसर मिल जाये तो ऐसे सम्मेलनों मे जाते हें जहां साहित्य या उससे जुड़ी किसी विद्या पर चर्चा होती है । कहा जाये तो ऐसे सम्मेलनों में अंशकालिक लेखक आम श्रोता और वक्ता के रूप में जाते हैं। वहां कुछ कथित बड़े साहित्यकार आते हैं जो प्रसिद्धि के शिखर पर होने के कारण वहां वह भाषण वगैरह करते हैं। हिंदी साहित्य में दो तरह के लेखक हैं एक तो वह जो केवल पूर्णकालिक लेखक हैं उन्हें बड़ा साहित्यकार इसलिये माना जाता है कि वह केवल लिखते हैं और उनके संबंध इस तरह बन जाते हैं कि उनको पुरस्कार भी मिलते हें। अंशकालिक लेखक वह हैं जो अपनी रोजी रोटी अन्य काम कर चलाते हैं और लिखना उनके के लिये एक स्वांत सुखाय विधा है। तय बात है साहित्येत्तर सक्रियता न होने के कारण उनको इनाम या सम्मान नहीं मिलता इसलिये वह छोटे साहित्यकार कहलाते हैं। इन अंशकालिक लेखकों की बड़े साहित्यकारों की नजर में कोई अहमियत नहीं होती।

बहरहाल अंशकालिक साहित्यकार होने के बावजूद इस लेखक ने देखा है कि अनेक कथित बड़े साहित्यकार अपनी रचनाओं की वजह से कम वक्तव्यों की वजह से अधिक जाने जाते हैं। दरअसल ऐसे बड़े साहित्यकारों को यह अहंकार है कि वह समाज का मार्गदर्शन कर रहे हैं पर अगर समाज की वर्र्तमान हालत देखें तो यह आसानी से समझा जा सकता है कि इन साहित्यकारों ने अपनी सारहीन और काल्पनिक रचनाओं के अलावा कुछ नहीं दिया। ऐसे अनेक कथित बड़े साहित्यकार हैं जिनका नाम आम आदमी नहीं जानता। उनके चेले चपाटे गाहे बगाहे उनकी प्रशंसा में गुणगान अवश्य करते हैं पर हिंदी भाषा का पाठक वर्ग उनको नहीं जानता। आम पाठक की बात ही क्या अनेक लेखक तक उनको नहीं पढ़ पाये। आखिर ऐसा क्यों हैं कि हिंदी में मूर्धन्य साहित्यकार हैं पर हिंदी भाषी लोगों की जुबान पर नहीं चढ़ा।

थोड़ा विचार करें तों स्वतंत्रता के बाद इस देश में अव्यवस्थित विकास के साथ हिंदी का प्रचार बढ़ा। एक प्रगतिशील विचाराधारा के लोगों ने सभी जगह अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया। उसके लेखक पश्चिमी विचाराधाराओं से प्रभावित हो। यहां हम अगर देखें तो राष्ट्रवादी और प्रगतिशील विचाराधारा दोनों ही पश्चिम से आयातित है। भारत में व्यक्ति,परिवार, समाज और राष्ट्र के ं क्रम चलता है जबकि पश्चिम में इसके विपरीत है। प्रगतिशील तो इससे भी आगे हैं वह सभी को टुकड़ों में बांटकर चलते हैं। भारतीय विचार कहता है कि किसी एक व्यक्ति का कल्याण करो तो वह उसका लाभ अपने परिवार को भी देता है। इस तरह परिवार, परिवार से समाज और समाज राष्ट्र का कल्याण होता है। पश्चिमी विचार धारा कहती है कि राष्ट्र का कल्याण करो तो व्यक्ति का कल्याण होगा। प्रगतिशील विचार धारा हर जगह व्यक्ति,परिवार,समाज, और राष्ट्र में भेद करती हुई चलती है। इसी प्रगतिशील विचारधारा ने एकछत्र राज्य किया। दरअसल इसके लेखक पश्चिम के लेखकों और दार्शनिकों के विचारों को यहां प्रस्तुत करते और उसे आधुनिक कहकर बताते और अपनी रचनाये करते गये। उनकी रचनाओं में पात्र या क्षेत्र भारत के हैं पर उस पर उनकी लेखकीय दृष्टि पश्चिमी ढंग की है। बांटकर खाओ का नारा लगता है तो पहले व्यक्ति ओर शय दोनों को ही अलग कर देखना पड़ता है। बांटने के लिये काटना पड़ता है और इस तरह शुरु हो जाता है नकारात्मक विचाराधारा।

शिक्षा,कला,फिल्म,पत्रकारिता तथा साहित्य में इस विचाराधारा के लोगों का वर्चस्व रहा। रचनाऐं खूब हुईं पर भारतीय पुट नदारद रहा। लेखक प्रसिद्ध होकर इनाम और सम्मान प्राप्त करते गये पर पाठक का प्रेम उनको कभी नहंीं मिला। इनका शिक्षा जगत पर प्रभाव इतना रहा कि राष्ट्रवादी विचारा धारा के लेखक भी उसमें बहते गये। अब राष्ट्रवादी लेखक भी प्रगतिशीलों से अलग होने का दावा करते हैं पर कार्यशैली के बारे में वह कोई उनसे अलग नहीं है। दोनों की नारों और वाद की लय में चलते हैं पर समाज की वास्तविकताओं को दोनों ने नजरअंदाज किया।

जब कुछ अंशकालिक लेखक इन बड़ लेखकों की बात सुनकर दुःखी होते हैं तो उनके पास कोई चारा नहीं होता कि तत्काल इसका प्रतिवाद करें। वह अखबारों में पाठकों के पत्र पर अपना विरोध करते हैं। आजकल अंंतर्जाल पर ब्लाग लिखने वाले भी अपना दुःख व्यक्त करने लगे हैं। दरअसल उन्हें यह भ्रम हो जाता है कि इतने बड़े साहित्यकार कैसी बेतुकी बातें कर रहे हैं पर बड़े यानि क्या? सबसे ज्यादा छपते हैं तो यहां अगर संबंध हों तो कोई भी छप सकता है। वैसे भी आजकल साहित्यक पत्र पत्रिकाओंं में जो लोग छप रहे हैं वह प्रसिद्ध लोग हैं। आम आदमी के लिये तो लेखन एक विलासिता बन गयी है और यह सब इ्रन्हीं प्रगतिशील लोगों द्वारा बनायी गयी वैचारिक व्यवस्था का परिणाम है।

यह लेखक इतने बड़े हैं और क्रांति करने वाली रचनायें करते हैं तो समाज इतना कायर कैसे हो गया? जवाब है कि फिल्मों ने कायर बनाया। एक हीरो सारे खलनायकों का नाश करता है उसे कहीं आम आदमी की भीड़ लगाते हुए देखा नहीं जाता। जनता की एकता का सपना देखने वाले किसी प्रगतिशील ने इसका कभी विरोधी नहीं किया जबकि वह जानते थे कि समाज कायरता की तरफ जा रहा हैं। ऐसे कई दृश्य फिल्मों में दिखाये गये जिसमे ईमानदारी पुलिस कर्मी के परिवार का खलनायक ने बर्बाद किया। इन फिल्मों से पहले कभी ऐसा नहीं हुआ पर आदमी डरता चला गया। कई फिल्मों में गवाह को डराते हुए दिखाया गया। ऐसे अनेक दृश्य हैं जिन्हें देखते हुए अन्याय के खिलाफ लड़ने पर उसका दुष्परिणाम देखकर किसी के अंदर साहस नहीं हो सकता। ऐसे में इन बड़े लेखकों ने आंखें मूंद रखीं। एक और दिलचस्प बात यह है कि विदेश से पुरस्कार प्राप्त लोगों को सिर पर उठाया गया। इसके बारे में विख्यात साहित्यकार नरेंद्र कोहली जी का कहना कि वह एक साजिश के तरह भारत विरोधियों को दिये जाते हैं। हां, इस देश में कायरता के बीज बोने वालों को ही प्रोत्साहित किया गया ताकि उनके झंडे तले ही भीड़ आये कहीं स्वतंत्र रूप से कार्यवाही न करे।

इन कथित बड़े लेखकों ने रहीम और कबीर का मजाक उड़ाया। जानते हैं क्यों? उन जैसा कोई सच लिख नहीं सकता। इन्होंने पूज्यनीय धार्मिक पात्रों को मिथक बताकर प्रचार किया। जानते हैं क्यों? ताकि लोग उनको भूल जायें और उनके द्वारा सुझाये गये नये भगवानों को पूजें। उनके अधिकतर पात्र विदेशों में राज्य कर रहे नेता ही रहे हैं? उनका बयान इस तरह करते हैं जैसे कि उनमें कोई दोष नहीं था। उनकी जनता उनसे बहुत खुश रही थी। भारत में पूज्यनीय धार्मिक पात्रों के दोष गिनाते हैं पर उनके विदेशी पात्रों के दोष कौन देखने बाहर जाये?

पहली बात तो यह है कि अंशकालिक लेखकों को यह भ्रम नहीं पालना चाहिये कि वह किसी बड़े लेखक को सुनने जा रहे हैं। ऐसे सम्मेलनों में जाना चाहिये क्योंकि व्यंग्य लिखने के लिये वहां अच्छी सामग्री मिल जाती है। लेखक कोई बड़ा या छोटा नहीं होता। उसकी रचना कितनी प्रभावी है यह महत्वपूर्ण है और यकीनन इस समय देश में उंगलियों पर गिनने लायक ही ऐसे कुछ लेखक हैं जिनका वाकई हिंदी के आम पाठक पर प्रभाव है पर उनको कोई बड़े इनाम नहीं मिले। इसलिए ऐसे सम्मेलनों में बड़े आराम से जायें पर अपना लेखक घर पर ही टांग जायें तो कोई अफसोस नहीं होगा।
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