Monday, November 24, 2008

भीड़ में अपनी पहचान हो जाने की चिंता-हिंदी शायरी

नायक बेचने के लिये
उनको खलनायक भी चाहिए
अपने सुर अच्छे साबित करने के लिये
उनको बेसुरे लोग भी चाहिए
यह बाजार है
जहां बेचने वाला
खरीददार की फिक्र करता नहीं
उसकी जेब का कद्रदान होता है
सौदा बेचने के लिये
बेकद्री भी होना चाहिए
ओ बाजार में अपने लिये
चैन ढूंढने वालों
जेब में पैसा हो तो
खर्च करने के लिये अक्ल भी चाहिए
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बाजार में भीड़
पर भीड़ में अक्ल नहीं होती
बिकती अक्ल बाजार में
तो भला भीड़ कहां से होती
इसलिये सौदागर चाहे जो चीज
बाजार में बेच जाते हैं
जो ठगे गये खरीददार
शर्म के मारे कहां शिकायत लेकर आते हैं
भीड़ में अपनी कमअक्ल की
पहचान हो जाने की चिंता सभी में होती

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Sunday, November 16, 2008

एक बिचारा,जिम्मेदारी का मारा- व्यंग्य आलेख

अपने देश के बुद्धिजीवियों का एक वर्ग है जो हमेशा हर दुर्घटना के प्रति समाज की संवेदनहीनता को उबार कर सामने ले आता है-देखिये जनाब! यह दुर्घटना हुई पर लोग हैं कि इस तरफ ध्यान नहीं दे रहे, या देखिये सभी लोग स्वार्थी हो गये हैं और देश में कहीं सूखा, अकाल या बीमारी का प्रकोप है तो कहीं बमकांड और अग्निकांड की वजह से लोग मरे पर लोग अपने कामों में वैसे ही व्यस्त थे जैसे पहले थे।
ऐसे लोगों का उद्देश्य भले ही अपने को संवेदनशील साबित करना हो पर वह होते नहीं बल्कि उनको लिखने या बोलने के लिये कोई विषय नहीं होता तो वह एक चालू विषय उठा लेना होता है। ‘संवेदनायें मर गयी हैं’ इस विषय पर मैं भी तब कोई कविता चिपका देता हूं जब खालीपीली बैठे लिखने का ख्याल आ जाता है क्योंकि आखिर अपने लिखने पढ़ने का शुरुआती दौर इन्हीं लोगों के साथ गुजरा है जो केवल समाज की संवेदनहीनता पर ही विचार करते हैं-यह आदत बहुत प्रयास करने पर भी नहीं जा पाती। हालांकि समाज की संवेदनायें एक विषय है पर धरातल पर इसका क्या स्वरूप है कोई नहीं जानता।

इस प्रसंग पर लिखते हुए एक दिलचस्प फोटो का विचार आया जो एक ब्लागर मित्र ने भेजा था। हमारे यह मित्र ब्लागर उत्साही है और ऐसा कोई दिन नहीं जाता जब उनकी तरफ से ऐसे दिलचस्प फोटो न आते हों। बात उस फोटो की करें। कहीं बाढ़ आयी हुई थी। एक मकान मेंें परिवार के सभी सदस्य अपने कमरे में रखे सोफों पर बैठकर टीवी पर अपने मनोरंजन कार्यक्रम देख रहे थे सिवाय उस गृहस्वामी के जो मकान के बाहर खड़ा अंदर मौजूद पानी को बाहर निकालने की चिंता में मग्न था। परिवार के अन्य सदस्यों को कहीं दूसरी जगह बाढ़ आने की चिंता क्या होती उनके स्वयं के घटनों तक पानी था। गृहस्वामी अंदर की तरफ झांक रहा था क्योंकि ऐसा लगता था कि परिवार के अन्य सदस्यों ने यह मान लिया था कि अगर मुखिया कहलाने को गौरव उसके पास है तो बाहर खड़ा वह शख्स स्वयं ही इसका बाढ़ के पानी को किसी भी तरह बाहर निकालकर अपनी भूमिका निभायेगा।

उस फोटो को देखकर मुझे हंसी आयी। भला बाढ़ पर कोई हंसने जैसी बात हो सकती है? अरे, उस पर तो दर्द भरे लेख, समाचार और कवितायें ही लिखी जानी चाहिये। मगर फोटो! जब सारे प्रचार माध्यम दर्दनाक फोटो छापते हों तब मित्र ब्लागर एकदम अलग और असाधारण फोटो भेजकर जो कहना चाहते थे वह तो कोई भी समझ सकता है कि ऊंचाई पर होने के बावजूद जिस मकान में सोफे में बैठने की जगह से एक इंच नीचे पानी भरा हो और लोग बैठकर आराम से टीवी देख रहे हों तब हंसे कि दुःख व्यक्त करें। हमारे इन मित्र ब्लागर की सक्रियता वाकई बहुत लुभावनी है। (वैसे जिन लोगों को अलग से कुछ फोटो वगैरह देखने की इच्छा हो तो वहा कमेंट में अपना ईमेल पता छोड़ दें तब मैं उनको भेज दूंगा। हालांकि उनके मुताबिक वह भी इंटरनेट से ही यही कलेक्ट करते हैं पर अगर आसानी से उपलब्ध हो तो बुराई क्या है?)

बहरहाल बात करें समाज की संवेदनाओं की! लगता है कि अंग्रेज अपना काम कर गये। लार्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति अब अपना रंग दिखाने लगी है और यही कारण है कि लोग जिस समाज में रह रहे हैं उसके ही मूल स्वभाव को नहीं समझ पाते। लिखते हैं समाज पर उसे परे होकर-तब उन्हें लगता है कि इस समाज से परे दिखना जरूरी है क्योंकि तब उसकी बुराईयों से अपने को परे दिखा पायेंगे।

समाज के संवेदनशील या असंवेदनशील होने को विषय आज तक विवादास्पद है। अगर एक तरह से देखें तो समाज की कोई संवेदना हो भी नहीं सकती क्योंकि वह तो प्रत्येक जीव के स्वभाव का भाग है। समाज कोई पैदा नहीं होता व्यक्ति पैदा होता और मरता है। फिर संवेदनाओं को प्रकट करने से क्या लाभ? किसी दुर्घटना में अगर किसी की मृत्यु हो जाये तो उससे भला क्या कोई संवेदना जतायेगा क्योंकि समस्या तो उसके आश्रितों के सामने आने वाली होती है। उनका काम केवल संवेदना से नहीं बल्कि सहायता से भी चलता है। खालीपीली शाब्दिक संवेदना तो दिखावे की होती है। पीडि़तों के निकट जो लोग होते हैं उनके कुछ दयालू होते हैं। समाज की संवेदनाओं पर विचार करने वाले इस बात को याद रखें कि समाज के बुरे लोग रहेंेंगे तो भले भी रहेंगे। सभी लुटेरे नहीं होंगे वहां कुछ दानी भी होंगें।
अकाल,बाढ़,अग्निकांड,बमकांड,सांप्रदायिक या सामूहिक हत्यायें जैसे हादसों को यह देश झेलने का अभ्यस्त हो चुका है। क्या यह आज हो रहा है? क्या यह पहले नहीं हुआ। इस देश में जब रियासतें थी तब उनकी जंगों के इतिहास को भला कौन भूल सकता है। छोटी छोटी बातों पर युद्ध और खून खराबे होते थे। लोग मरते थे। अकाल और बाढ़ भी बहुत बार आयी होगी तब क्या लोगों ने उसका मुकाबला नहीं किया होगा? अनेक भारत विरोधी विदेशी आज भी कहते हैं कि भारत में अंधविश्वास और रूढि़वादिता अधिक है पर वह अपने देशों में निजी दानदाताओं द्वारा बनायी गयी इमारतें नहंी दिखा सकते। वह दिखा सकते हैं तो बस अपने यहां अपने राजाओं के महल। जहां तक विदेशी ज्ञानी विद्वानों का सवाल है तो वह आज भी मानते हैं कि भारत के लोग संक्रमण काल मेंे एक दूसरे के जितना काम आते हैं उतना अन्य कहीं नहीं। यही कारण है कि यह देश अनेक संकटों से उबर कर आता है-हालांकि इसका कारण यह भी है कि अपने देश पर प्राकृतिक की कृपा कम नहीं रहीं इसका प्रमाण वह अंतर्राष्ट्रीय रिपोर्ट है जिसमें कहा गया है कि जितना भूजल भारत में उपलब्ध है अन्यत्र कहीं नहीं।
फिर भारतीय अध्यात्म कहता है कि मरने वाले की चिंता मत करो जो जीवित है उसकी सहायता के लिये तत्पर रहो और इस देश के लोग तत्पर रहे हैं। अपने समाज की मूल अवधारणाओं से अलग सोचने वाले बुद्धिजीवी केवल मृतकों के प्रति संवेदनायें जताते है जीवित के लिये उनके मन में क्या स्थान है यह थोड़ा शोध का विषय है। जन्म और मरण दिन मनाने की परंपराओं की चर्चा देश के प्राचीन ग्रंथों में कतई नहीं है। किस्से पर किस्सा निकल आता है। भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण ने संपूर्ण देश को नयी दिशायें दीं (हालांकि उसका स्वरूप आज के स्वस्प से बड़ा था) और तमाम तरह के आदर्श स्थापित किये पर कभी उन्होंने अपना जन्म दिन मनाया हो इसकी चर्चा नहीं मिलती पर उनके नाम लेकर भारतीय समाज में कथित धर्मरक्षा में लगे अनेक लोग अपने जन्म दिन अपने जीवित रहते हुए ही मनवाते हैं-हालांकि यह विषय अलग से चर्चा का विषय है।
सच बात तो यह है कि इस देश के आम लोग भावुक होते हैं। जानते सभी हैं पर सोचते हैं कि कहंकर भल किसी से बैर क्यों लिया जाये? फिर संतों की आलोचना में वह अपना समय नष्ट करने की बजाय भक्ति में लगाना अच्छा समझते हैं। किसी पर विपत्ति आ जाये तो जिसके मन में आ जाये और अगर पहुंच सकता है तो मदद करने चला जाता है पर वह कहीं जाकर गाता नहीं है। उसी तरह जो नहीं जाता या दूर होने के कारण नहीं पहुंच पाता वह जानता है कि शाब्दिक संवेदनाओं से से किसी का काम नहीं चलने वाला। जो इसमें समाज की संवेदनहीनता ढूंढते हैं तो केवल अज्ञानता ही कहा जा सकता है।

बात उस फोटो की करें। अंदर टीवी देख रहे सभी सदस्यों के चेहरे पर हंसी और प्रसन्नता थी पर अंदर की तरफ ताक रहे उस गृहस्वामी के चेहरे पर चिंता के भाव साफ दिखा रहे थे कि वह तनाव में था क्योंकि मुखिया होने के कारण बाहर से आये इस संकट को निकालने का जिम्मा उसे लेना ही था और उसके लिये संवेदनाओं के रूप में बस एक ही शब्द सही था ‘‘ एक बिचारा, जिम्मेदारी का मारा’’। उस फोटो को अन्य लोगों ने भी देखा होगा पर शायद ही उसके बारे में किसी ने ऐसी राय बनायी हो।
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Friday, November 07, 2008

घर का ज्ञानी बैल समान-व्यंग्य आलेख

पता नहीं कब कैसे इस देश में यह परंपरा शुरू हुई कि बाहर से जब तक आदमी प्रमाण पत्र नहीं मिले उसे घर में भी सम्मान नहीं मिलता। यहाँ कुछ लोकोक्तियाँ प्रचलित हैं जैसे-घर का ज्ञानी बैल सामान ,दूसरे गाँव का सिद्ध, और अपने घर में तो हर आदमी शेर होता है,आदि आदि। यह अपने देश के लोगों की मूल प्रवृतियों का परिचायक है। कितना भी अच्छा करो पर जब तक विदेश से कोई प्रमाणपत्र न मिले तब तक यहाँ किसी को सम्मानीय नहीं माना जा सकता।
हालांकि लोगों को समझाने के लिए यह भी कहा गया है कि दूर के ढोल सुहानी-यानी परे लगने वाली सभी शये आकर्षक लगती हैं। आजकल तो कई शहरों में कचडे के रंग बिरंगे डिब्बे भी दिखते हैं। दूर से देखने पर ऐसे दिखते हैं कि वहां कोई खानपान की दूकान होगी। पास जाने पर पता लगता है कि वह तो कचडे का डिब्बा है। बहरहाल यह लोगों की आदत हो गयी है कि कहीं भी जाकर अपने लिए ढोल बजवा लो तभी यहाँ आपको सम्मान मिलेगा। अपने देश के लोगों की आदत देखकर तो यही लगता है कि अगर दक्षिण अफ्रीका में महात्मा गांधी जी अगर अंग्रेजों को खिलाफ विजय दर्ज नहीं की होती तो शायद ही इसे देश के लोग उनका लोहा मानते हुए उनके अनुयायी बनते। उनका जीवन सदैव संघर्षमय रहा। दक्षिण अफ्रीका में उन्होंने संघर्ष अपनी आत्मा की आवाज पर शुरू किया था। उनकी कथनी और करनी में कभी कोई अंतर नहीं रहा पर लोगों ने उनसे कुछ और नहीं सीखा सिवाय इसके कि यहाँ लोकप्रिय होने के लिए विदेश में नाम कमाओ चाहे जिस तरह। उन्होंने अपने आन्दोलन के दौरान जो श्रम किया वह किसी के बूते का नहीं है-खासतौर से इस सुविधाभोगी युग में तो कतई नहीं। पर हाँ उन जितना तो नहीं पर उनकी तरह नाम कमाने की ललक कई महानुभावों में है।
लोगों की मानसिकता शायद इसी तरह की है कि वह दूसरे देशों या समाजों से सम्मानित होने पर ही लोहा मानते हैं। यही कारण है कि अधिकतर लब्ध प्रतिष्ठत लोग अपने लिए विदेश से कोई न कोई प्रमाण पत्र जुटाते हैं। इसके अलावा जिन महानुभावों को लगता है कि यहाँ नाम करने के लिए मेहनत करने की जगह सीधे विदेश से कोई सम्मान प्राप्त कर लो और वह सफल भी होते हैं। वैसे तो पहले विदेशी यहाँ सौ फीसदी विश्वसनीय माने जाते थे पर जब से फिक्सिंग वगैरह की बात चली है तो ऐसा भी लगता है कि विदेशी भी जरूर अपने लोगों को यहाँ प्रतिष्ठत करने के लिए कोई पुरस्कार दे सकते हैं। कुछ लोग अब जाकर ऐसे संशय उठाते हैं कि क्योंकि कुछ प्रतिभाशाली लोगों का यहाँ नाम इसलिए हुआ है कि वह विदेश से सम्मानित हैं। इनमें कुछ लेखक और चित्रकार हैं जो पहले विदेश में सम्मानित हुए तब यहाँ ऐसे चर्चित हुए कि प्रचार माध्यम उनकी बातें प्रकाशित ऐसे करते हैं जैसे कि वह ब्रह्म वाक्य हो।
अमेरिका की अनेक पत्रिकाएँ अपने यहाँ विश्व के प्रभावशाली,सैक्सी,धनी, विद्वान तथा अन्य अनेक तरह की सूचियां छपते हैं जिसमें स्त्री पुरुष दोनों के नाम होते हैं। इसमें अगर किसी भारतीय का नाम होता है तो अपने प्रचार मध्य उछाले लगते हैं। दूसरे से लेकर दसवें तक हो तो भी उछालते हैं और पहले पर हो तो कहना ही क्या? लगता है कि भारत की वजह से उन्होंने तमाम तरह की श्रेणियां भी बना दीं हैं। किसी की आँखें सेक्सी तो किसी की टांगें तो किसी की आवाज को सेक्सी घोषित कर देते हैं। अनेक लोग समाज सेवा और अपने प्रभाव की कारण भी चर्चित होते हैं।
इनमें जो नाम होते हैं उनमें कई लोगों का नाम चचित भी नहीं होता क्योंकि जन सामान्य उनका कोई सीधे सरोकार नहीं होता पर जो उनके 'प्रभाव क्षेत्र' में होते हैं वह आम आदमी का ही नही बल्कि समाज और देश का भविष्य तय करते हैं। कई लोगों को गलतफ़हमी होती है कि अमेरिका, ब्रिटेन और अन्य यूरोपीय देशो के राज प्रमुख दुनिया से सबसे ताक़तवर और प्रभावशाली लोग हैं उन्हें ऎसी रिपोर्ट बडे ध्यान से पढ़ना चाहिए। आखिर वह अपने राष्ट्र प्रमुखों को प्रभावशाली क्यों नहीं मानते जबकि विश्व में उनको सबसे ताक़तवर माना जाता है। आजकल भारत पर उनको अधिक ही मेहरबानी हैं और यहाँ के अभिनेता और अभिनेत्रियों के नाम भी इन आलीशानों की सूची में शामिल करते हैं।

हमारे देश में अगर आप किसी व्यक्ति से प्रभावशाली लोगों के बारे में सवाल करेंगे तो वह अपने विचार के अनुसार अलग-अलग तरह के प्रभाव के रुप बताएंगे। हाँ यहाँ उन लोगों को जरूर प्रभावशाली माना जाता है जो घरेलू हितों के लिए सार्वजनिक काम में पहुँच बनाकर करा लाते हैं। आम आदमी की दृष्टि में प्रभाव का सीधा अर्थ है 'पहुंच'। लोगों के निजी और सार्वजानिक कामों में कठिनाई और लंबी प्रक्रिया के चलते इस देश में उसी व्यक्ति को प्रभावशाली माना जाता रहा है जो अपनी पहुँच का उपयोग कर उसे करा ले आये। इस कारण दलाल टाईप के लोग भी 'प्रभावशाली ' जैसी छबि बना लेते हैं। अब जैसे-जैसे निजीकरण बढ़ रहा है वैसे ही उन लोगों की भी पूछ परख बढ़ रही है जो धनाढ्य लोगों के मूंह लगे हैं, क्योंकि वह भी अपने यहाँ लोगों को नौकरी पर लगवाने और निकलवाने की ताक़त रखने लगे हैं। हर जगह तथाकथित रुप से प्रभावशाली लोगों का जमावड़ा है और तय बात है कि वहाँ चाटुकारिता भी है। इसके बावजूद उनको सम्मानीय नहीं माना जाता क्यों कि इसके लिए उनके पास विदेश से प्रमाण पत्र के रूप में कोई सम्मान नहीं होता।

प्रभावशीलता और चाटुकारिता का चोली दामन का साथ है। सही मायने में वही व्यक्ति प्रभावशाली है जिसे आसपास चाटुकारों का जमावड़ा है-क्योंकि यही लोगों वह काम करके लाते हैं जो प्रभावी व्यक्ति स्वयं नहीं कर सकता है। वैसे भी हमारे देश में बचपन से ही अपने छोटे और बड़े होने का अहसास इस तरह भर दिया जाता है कि आदमी उम्र भर इसके साथ जीता है और इसी कारण तो कई लोग इसलिये प्रभावशाली बन जाते हैं क्योंकि वह लोगों के ऐसे छोटे-मोटे कुछ पैसे लेकर करवा देते हैं जो वह स्वयं ही करा सकते हैं-जिसे दलाल या एजेंट काम भी कहा जाता है और लोग उनका इसलिये भी डरकर सम्मान करते हैं कि पता नहीं कब इस आदमी में काम पड़ जाये। मजे की बात यह है कि घर का आदमी ही बाहर का मुश्किल काम कराकर लाये तो उसे "पहुँच" वाला नहीं माना जाता जब तक बाहर सम्मानित न हो जाए।
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Wednesday, November 05, 2008

सभी जगह होते हैं मध्यस्थ-आलेख

धर्म के नाम पर व्यापार करने वाले बहुत हैं पर उसके धर्म ग्रंथों का ज्ञान कितनों को है यह एक विचार का विषय है। देखा जाए तो ज्ञान न होने की वजह से ही आम लोग हर किसी रंग विशेष के वस्त्र पहनने वाले को संत मान लेते हैं। उसने कोई बात कही तो उसकी चर्चा तो लोग करते हैं पर जो गृहस्थ हैं उनको तो ज्ञान देना का अधिकार ही नहीं है यह मान कर लोग भारी गलती करते हैं। आखिर रंग विशेष के वस्त्र पहनी वाले व्यक्तियों की बात को ही महत्व क्यों दिया जाता है और सामान्य वेशधारी गृहस्थ को कोई भी आदमी एक ज्ञान या विद्वान के रूप में सम्मान क्यों नहीं देता? फिर भगवाधारी-कहीं श्वेत वस्त्रधारी भी-को बिना प्रमाण के ही सन्यासी,धर्मात्मा या ज्ञानी मान लेना एक और गलती है।
शायद इसका कारण मनुष्य का यह स्वभाव है कि वह अपने जैसे दिखने,बोलने और चलने वाले को महत्व नहीं देता क्योंकि उसके अंदर तब अपने समान दृष्टिगोचर होने वाले की बात मानने पर कुंठा पैदा होती है। आपने सुना होगा कि विपरीत लिंग वालों में एक दूसरे के प्रति आकर्षण होता है और यही नियम अपने से अलग दिखने वाले व्यक्ति पर भी लागू हो जाता है। सभी व्यक्ति अपने से प्रथक दृष्टिगोचर व्यक्ति का सम्मान कर यह दिखाते हैं कि वह स्वयं भी कोई निम्न कोटि के नहीं है। अपने जैसे दृष्टिगोचर व्यक्ति को देखकर सम्मान देने में उनको शायद हीनता का अनुभव होता है।

ऐसा ही भगवाधारी और श्वेतधारी कथित साधुओंसन्यासियो और संतों के साथ भी होता है। कोई भी अपने आश्रम या मंच पर दूसरे भगवा और श्वेत वस्त्रधारी संत,साधू सन्यासी को अपने बराबर के आसन पर नहीं बिठाता-यदि सामान्य स्थिति हो तो, आपातकाल में तो सभी सन्यासी या गृहस्थ एक हो जाते है। इस तरह कथित साधु और सन्यासी हो या सामान्य आदमी वह इसी भावना का शिकार होते हैं। संत, साधु सन्यासी भी अपने सामने जुटी भीड़ दिखाकर एक दूसरे के साथ प्रतिद्वंद्वता करते हैं। सभी लोगों में हर जगह अपने आश्रम बनाने की होड़ लगी है यह तो कोई भी देख सकता है। सच तो यह है कि ईंट और पत्थर के आश्रम बनाये जाते हैं पर नाम दिया जाता है कुटिया-पुराने धर्म ग्रंथों में यह धास फूंस की बनती थी।

कथित ज्ञानी और ध्यानी अपने प्रवचनों में पुरानी कहानियां सुनाते हैं पर उस मूल तत्त्व ज्ञान की चर्चा बिलकुल नहीं करते जो प्राचीन ग्रंथों में वर्णित है।
कहने को विश्व के सभी समाज सभ्य है पर जिस तरह विश्व में आतंक और अपराध बढे हैं और उससे आदमी पहले से अधिक डरपोक और अविश्वासी हो गया है। सभी कथित धर्मों के बीच में आम आदमी को उसके धर्म ग्रंथों की जानकारी देने वाला कोई न कोई मध्यस्थ होता है। सभी धर्मों में कर्म कांडों की रचना इस तरह की गयी है कि विवाह और अन्य धार्मिक कार्यक्रमों के लिए की मध्यस्थ की जरूरत पड़ जाती है। एक तरह से कहा जाए तो सभी मध्यस्थों को ही धर्म का प्रतीक बनाया गया है। आदमी के स्वतन्त्र रूप से सोचने और समझने का अवसर ही नहीं होता और यह मध्यस्थ उनको भेड़ की तरह हांके चला जाता है। एक मजे की बात यह कि सभी धर्मों में यह मध्यस्थ अपने कपडे के तय रंग रखते हैं जिससे समाज में उनको अलग से पहचान बनी रहे। हर धर्म आदमी के मनोविज्ञान को देखकर बनाया गया है कि वह अपने से अलग व्यक्तित्वों का ही सम्मान करता है।

यही वजह से सभी धर्मों के मध्यस्थों के कपडों के रंग ही उनके लोगों के लिए पवित्रता का प्रतीक माने जाते हैं। अनेक विज्ञानी और ज्ञानी इस संसार में हुए हैं पर कोई भी इस प्रवृति से मुक्ति नहीं पा सके। बहुत साधारण सी लगने वाली यह बात इतनी गूढ़ है कि इसे केवल गूढ़ ज्ञानी लोग ही जानते हैं।
अगर लोग यह चाहते हैं कि वह भ्रमित न हों तो उनको ऐसी बातों से मुक्त होना चाहिए। वह ऐसे लोगों से सिर्फ एक ही सवाल करें कि अगर वह ज्ञानी हैं और जीवन में निर्लिप्त भाव से रहते हैं तो फिर वह किसी ख़ास रंग का वस्त्र क्यों पहनते हैं जबकि सभी रंग पैदा इसी धरती पर होते हैं। उन्हें तो हर रंग में समान दिलचस्पी लेनी चाहिए। मगर नहीं! कोई ऐसा नहीं करेगा क्योंकि धर्म के नाम पर व्यवसाय बरसों से चल रहा है। ख़ास रंग की पहचान से वह लोगो अपनी पहचान बनाते हैं ताकि समाज उन पर यकीन करे।
इस प्रकार के ढोंग को रोकने ने लिए जरूरी है कि लोग इस बात को समझें कि धर्म के नाम पर भ्रमजाल में इस तरह फंसाया गया है कि न तो उनकी पहले वाली पीढियां मुक्त हो पायी और न आगे वाली मुक्त हो पाएंगी। लोगों को यह समझना चहिये कि धर्म का मतलब है अपने सांसरिक कर्तव्यों का प्रसन्नता पूवक निर्वहन और परमात्मा की भक्ति और ध्यान एकांत साधना है और उसमें भीड़ में लगने या मध्यस्थ के पास जाने की कोई आवश्यकता नहीं है. शेष फिर कभी।
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Sunday, November 02, 2008

शहर फिर भी लगते हैं वीरानों से -व्यंग्य कविता

इंसानों से नहीं होती अब वफादारी
फिर भी जमाने से चाहते हैं प्यार
हो गये हैं दीवानों से
लगाते हैं एक दूसरे पर इल्जाम
खेल रहे हैं दुनिया भर के ईमानों से
अपने तकदीर की लकीर बड़ी नहीं कर सकते
इसलिए एक दूसरे की थूक से मिटा रहे हैं
तय कर लिया है खेल आपस में
जंग का शतरंज की तरह
इसलिए अपने मोहरे पिटवा रहे हैं
जीतने वाले की तो होती चांदी
हारने वाले को भी मिलता है इनाम
नाम के लिए सभी मरे जा रहे हैं
सजाओं से बेखबर कसूर किये जा रहे हैं
कभी भेई टूट सकता है क़यामत का कहर
पर इंसान जिए जा रहे हैं अक्ल के परदे बंद कर
भीड़ दिखती हैं चारों तरफ पर
शहर फिर भी लगते हैं वीरानों से

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