वह कहीं भीड़ में
अब होश आया तो
अपनी असलियत ढूंढ रहा है
जो टुकड़ा टुकड़ा हो गयी है।
चारों तरफ नरमुंडों के
झुंड के बीच वह खड़ा
फिर भी अकेलेपन का अहसास उसे सताता है
इस भीड़ का घर छोड़ा
दूसरी भीड़ के दरवाजे से नाता जोड़ा
फिर भी नहीं ढूंढ पाया अपना अक्स
वह शख्स!
लोगों के झुंड का बाहर से एकजुट होने भ्रम था
वह भीड़ अंदर टुकड़ा टुकड़ा हो गयी है।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप
1 comment:
बहुत खूब। कहते हैं कि-
सभी के साथ में जीकर भी अलग रहा हूँ मैं
दब गया राख में तो पर भी सुलग रहा हूँ मैं।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
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