Saturday, July 03, 2010

कलंक-हास्य कविता

समाज सेवक ने अपने पुराने चमचे को बुलाया
और कहा
‘क्या बात है
इतने दिनों से लापता हो
कभी अपना चेहरा नहीं दिखाया,
भूल गये वह समय जो हमने
तुम्हारे साथ बिताया,
अरे, कुछ इज्जत करो हमारी
तो बन जायेगी जिंदगी तुम्हारी
वरना जिंदगी में कुछ हाथ नहीं आयेगा।’
चमचे ने कहा
‘हुजूर छोटे के अगाड़ी
बड़े के पिछाड़ी नहीं चलना चाहिये
आपकी संगत में यही बात समझ में आयी
जब तक नहीं जमी थी
आपकी समाज सेवा की दुकान
तब तक ही पाते रहे सम्मान
जब मिलने लगा आपको ढेर सारा चंदा,
हमें भूल कर याद रहा बस आपको धंधा,
घर से बाहर निकले कार में,
अपने कुनबे को ही लगा लिया
ज़़माने की भलाई के व्यापार में,
सुना है किसी प्रकरण में
आपकी चर्चा भी अखबार में आई,
सिमट सकती है आपकी दुकान
शायद इसलिये आपको मेरी याद आई,
मगर हमें माफ करियेगा
अब नहीं निभेगी आपके साथ
हमने पाया आपकी संगत से बुरा अहसास,
नहीं करना चाहिए बड़े इंसानों से कोई आस,
सारे दाग मिट जायेंगे किसी भी साबुन से
पर किसी के चमचे बने तो
ऐसा कलंक कभी नहीं मिट पायेगा।’
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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1 comment:

Jandunia said...

खूबसूरत प्रयास

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