‘अपनी जाति पर तुम गर्व क्यों करते हो
अपने हर पर्व पर तुम आहें क्यो भरते हो
कहीं अपनी पहचान ढूंढते हो
कहीं अपने जन्म की पहचान
चीखों में भरते हो।’
जवाब मिला
‘अपने दबे कुचले होने की बात कहने से
हमदर्द ढेर सारे मिल जाते हैं
यहां जज्बातों के सौदागर
अन्याय की बात पर दौड़े आते
हर जगह सुर्खियों में जगह पाते
अपनी अदाओं से तो वैसे ही चमकते हैं
जब होता है काम फीका
तब अपने खिलाफ अन्याय का दर्द भर कर
लोगों कें दिलों में जगह बनाये रखने
और मशहूरी के लिये
यह अभिनय भी हम अच्छी तरह करते हैं
हम तो दोनों हाथों मे लड्डू भरते हैं
इससे फर्क नहीं पड़ता कि
तुम देखकर बस,आहें भरते हो।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप
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