Wednesday, June 24, 2009

चुभोने के लिये कांटे ढूंढ रहे हैं-व्यंग्य कविता

तुम लड़ना कभी बंद न करना
रुक जायेगी कलम हमारी वरना।
भाषा के तूणीर में तुम शब्द तीर भरकर
कागजी द्वंद्व करते हुए नायक बनना।
बाहर दर्शक बनकर देखेंगे तुम्हारा द्वंद्व
तुम्हारी अदाओं पर करेंगे कभी रचना।।
संकोच की कोई बात नहीं है लड़ने में
हर हालत में गुस्सा अपने अंदर भरना।
दुनियां के सारी सोच बनी है जंग पर
हम तो हैं दर्शक, तुम महायोद्धा बनना।
कुछ लोग रोऐंगे तुम्हारे हाल पर
कुछ हंसेंगे, तुम कभी परवाह न करना।
तलवार युग गया, तुम कलम वैसे चलाओ
लिखो लड़ने की तरह, हमें तो है पढ़ना।।
सच यह है तुमसे ही समझे अमन के फायदे
बीत जाती द्वंद्वों में अपनी जिंदगी भी वरना।
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कुछ नहीं देखा
कुछ नहीं सुना
कुछ नहीं बोला
देखो कितना अमन है।
फंसे हैं जो द्वंद्वों में,
फूलों को लेकर
किसी को तोहफे में देने की बजाय
चुभोने के लिये कांटे ढूंढ रहे है
उनके लिये अस्त्रागार
और हमारे लिये विश्रामगृह यह चमन है।

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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

1 comment:

ओम आर्य said...

satik byanbaaji ..........bahut khub

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