Sunday, May 17, 2009

कमजोर याददाश्त का बोझ-व्यंग्य क्षणिकाएँ

खूबसूरत चेहरे
यूं ही नहीं हो जाते मशहूर.
सौन्दर्य सामग्री से चमक आती है
आवाज खराब हो तो
कोयल भी खरीद कर सुर देने आती है
देखने वाले क्या
पहचाने सौन्दर्य और आवाज़
सुरक्षा की दीवार कर देती उनको दूर.
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अपनी अदाओं के जलवे दिखाने
तमाम वादों और उम्मीदों का दावा
अपने नाम लिखाने
ढेर सारे अदाकार
चौराहों पर आते हैं.
लोग देखते हैं आँखों से
सुनते हैं कानों से
अक्ल के दरवाजे बंद कर
भीड़ की तरह जुट जाते हैं.
दिन के उजाले में बेचते हैं अंधे जज़्बात
वह सौदागर रात को गुम हो जाते हैं.
मगर नाम उनके फिर भी
जमाने में छा जाते हैं.
बरसों तक लुटते हैं लोग
कहीं पैसा तो कहीं यकीन खो दिया
पर क्या करें लोग
रोटी के टुकड़े और पानी को तरसते
साथ में कमजोर याददाश्त का
बोझ भी उठाते हैं.

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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

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