हम ही अमन का
पैगाम लिये चले आते हैं
तुम डरपोक समझो या
अमन का मसीहा
देखो
किसी पर हम क्या पत्थर उछालें
पत्थर ही उनसे टकरा जाते हैं।
कभी कभी गुस्सा आता है हमें
पर अमृत समझ पी जाते हैं
नहीं समझता जमाना
पर अपने दिल का हाल
कागज पर लफ्जों में बयां कर जाते हैं
पत्थर उड़ाने वाले भी
कौन होते कामयाब
कुछ का बहता खून
कुछ ही अपने ही नाखून
खुद के शरीर में चुभोये जाते है।
गोरे चेहरे अपनी काली नीयत
कितनी देर छिपा सकते हैं
उनके ख्याल आंखों के दरवाजे
पर आ ही जाते हैं
बहुत अभ्यास किया जिंदगी में
अनुभव से यही पाया
पत्थर कभी कलम से
अधिक घाव नहीं कर पाते हैं।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप
1 comment:
hey good poem and its very intresting i loved it
thank you i am learning little bit english
robert
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