आधुनिक युग में
एक बिचारी।
स्वतंत्रता!
दिलाने की फिर भी
एक लाचारी।
काव्यात्मक
अभिव्यक्ति में
दिखायें हारी।
व्यर्थ होगा
अगर दिखाते हैं
विजेता नारी।
कम शब्द
दर्द अधिक मांगें
ये व्यापारी।
इतने घाव
दिखते नहीं होंगे
बेचें लाचारी।
खरीददार
फंस जाता जाल में
अक्ल मारी।
बदलाव की
केवल बात देखें
कोशिशें जारी।
चलता चक्र
निरंतर स्वयं
बातें हैं सारी।
स्त्री पुरुष
उगे हैं यहां पर
अटूट यारी।
.........................
लेखक के अन्य ब्लाग/पत्रिकाएं भी हैं। वह अवश्य पढ़ें।
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका
4.अनंत शब्दयोग
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप
1 comment:
बहुत ही भावमय अभिव्यक्ति है बधाई
Post a Comment