Thursday, October 29, 2009

समाज में ‘हिंदी’ का उपयोग सामान्य आदत बने-आलेख (hindi ek adat bane-hindi lekh)

सुना है अब इंटरनेट में लैटिन के साथ ही देवनागरी में भी खोज सुगम होने वाली है। यह एक अच्छी खबर है मगर इससे हिंदी भाषा के पढ़ने और लिखने वालों की संख्या बहुत तेजी से बढ़ जायेगी, यह आशा करना एकदम गलत होगा। सच तो यह है कि अगर देवनागरी में खोज सुगम हुई भी तो भी इसी मंथर गति से ही हिंदी लेखन और पठन में बढ़ोतरी होगी जैसे अब हो रही है। हिंदी को लेकर जितनी उछलकूल दिखती है उतनी वास्तविकता जमीन पर नहीं है। सच कहें तो कभी कभी तो लगता है कि हम हिंदी में इसलिये लिख पढ़े रहे हैं क्योंकि अंग्रेजी हमारे समझ में नहीं आती। हम हिंदी में लिख पढ़ते भी इसलिये भी है ताकि जैसा लेखक ने लिखा है वैसा ही समझ में आये। वरना तो जिनको थोड़ी बहुत अंग्रेजी आती है उनको तो हिंदी में लिखा दोयम दर्जे का लगता है। वैसे अंतर्जाल पर हम लोगों की अंग्रेजी देखने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे है कि लोगों की अंग्रेजी भी कोई परिपक्व है इस पर विश्वास नहीं करना चाहिए-क्योंकि बात समझ में आ गयी तो फिर कौन उसका व्याकरण देखता है और अगर दूसरे ढंग से भी समझा तो कौन परख सकता है कि उसने वैसा ही पढ़ा जैसा लिखा गया था। बहरहाल अंग्रेजी के प्रति मोह लोगों का इसलिये अधिक नहीं है कि उसमें बहुत कुछ लिखा गया है बल्कि वह दिखाते हैं ताकि लोग उनको पढ़ालिखा इंसान समझें।
‘आप इतना पढ़ें लिखें हैं फिर भी आपको अंग्रेजी नहीं आती-‘’हिंदी में पढ़े लिखे एक सज्जन से उनके पहचान वाले लड़के ने कहा’‘-हमें तो आती है, क्योंकि अंग्रेजी माध्यम से पढ़े हैं न!’
मध्यम वर्ग की यह नयी पीढ़ी हिंदी के प्रति रुझान दिखाने की बजाय उसकी उपेक्षा में आधुनिकता का बोध इस तरह कराती है जैसे कि ‘नयी भारतीय सभ्यता’ का यह एक एक प्रतीक हो।
जैसे जैसे हिंदी भाषी क्षेत्रों में सरकारी क्षेत्र के विद्यालयों और महाविद्यालयों के प्रति लोगों का रुझान कम हुआ है-निजी क्षेत्र में अंग्रेजी की शिक्षा का प्रसार बढ़ा है। एक दौर था जब सरकारी विद्यालयों में प्रवेश पाना ही एक विजय समझा जाता था-उस समय निजी क्षेत्र के छात्रों को फुरसतिया समझा जाता था। उस समय के दौर के विद्यार्थियों ने हिंदी का अध्ययन अच्छी तरह किया। शायद उनमें से ही अब ऐसे लोग हैं जो हिंदी में लेखन बेहतर ढंग से करते हैं। अब अगर हिंदी अच्छे लिखेंगे तो वही लोग जिनके माता पिता फीस के कारण अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के निजी विद्यालयों में नहीं पढ़ा सकते और सरकारी विद्यालयों में ही जो अपना भविष्य बनाने जाते हैं।
एक समय इस लेखक ने अंग्रेजी के एक प्रसिद्ध स्तंभकार श्री खुशवंत सिंह के इस बयान पर विरोध करते हुए एक अखबार में पत्र तक लिख डाला‘जिसमें उन्होंने कहा था कि हिंदी गरीब भाषा है।’
बाद में पता लगा कि उन्होंने ऐसा नहीं कहा बल्कि उनका आशय था कि ‘हिन्दुस्तान में हिंदी गरीबों की भाषा है’। तब अखबार वालों पर भरोसा था इसलिये मानते थे कि उन्होंने ऐसा कहा होगा पर अब जब अपनी आंखों के सामने बयानों की तोड़मोड़ देख रहे हैं तो मानना पड़ता है कि ऐसा ही हुआ होगा। बहरहाल यह लेखक उनकी आलोचना के लिये अब क्षमाप्रार्थी है क्योंकि अब यह लगने लगा है कि वाकई हिंदी गरीबों की भाषा है। इन्हीं अल्पधनी परिवारों में ही हिंदी का अब भविष्य निर्भर है इसमें संदेह नहीं और यह आशा करना भी बुरा नहीं कि आगे इसका प्रसार अंतर्जाल पर बढ़ेगा, क्योंकि यही वर्ग हमारे देश में सबसे बड़ा है।

समस्या यह है कि इस समय कितने लोग हैं जो अब तक विलासिता की शय समझे जा रहे अंतर्जाल पर सक्रिय होंगे या उसका खर्च वहन कर सकते हैं। इस समय तो धनी, उच्च मध्यम, सामान्य मध्यम वर्ग तथा निम्न मध्यम वर्ग के लोगों के लिये ही यह एक ऐसी सुविधा है जिसका वह प्रयोग कर रहे हैं और इनमें अधिकतर की नयी पीढ़ी अंग्रेजी माध्यम से शिक्षित है। जब हम अंतर्जाल की बात करते हैं तो इन्हीं वर्गों में सक्रिय प्रयोक्ताओं से अभी वास्ता पड़ता है और उनके लिये अभी भी अंग्रेजी पढ़ना ही एक ‘फैशनेबल’ बात है। ऐसे में भले ही सर्च इंजिनों में भले ही देवनागरी करण हो जाये पर लोगों की आदत ऐसे नहीं जायेगी। अभी क्या गूगल हिंदी के लिये कम सुविधा दे रहा है। उसके ईमेल पर भी हिंदी की सुविधा है। ब्लाग स्पाट पर हिंदी लिखने की सुविधा का उपयेाग करते हुए अनेक लोगों को तीन साल का समय हो गया है। अगर हिंदी में लिखने की इच्छा वाले पूरा समाज होता तो क्या इतने कम ब्लाग लेखक होते? पढ़ने वालों का आंकड़ा भी कोई गुणात्मक वुद्धि नहीं दर्शा रहा।
गूगल के ईमेल पर हिंदी लिखने की सुविधा की चर्चा करने पर एक नवयौवना का जवाब बड़ा अच्छा था-‘अंकल हम उसका यूज (उपयोग) नहीं करते, हमारे मोस्टली (अधिकतर) फ्रैंड्स हिंदी नहीं समझते। हिंदी भी उनको इंग्लिश (रोमन लिपि) में लिखना पसंद है। सभी अंग्रेजी माध्यम से पढ़े हैं। जो हिंदी वाले भी हैं वह भी इससे नहीं लिखते।’
ऐसे लोगों को समझाना कठिन है। कहने का तात्पर्य यह है कि हिंदी की कितनी भी सुविधा अंतर्जाल पर आ जाये उसका लाभ तब तक नहीं है जब तक उसे सामान्य समाज की आदत नहीं बनाया जाता। इसका दूसरा मार्ग यह है कि इंटरनेट कनेक्शन सस्ते हो जायें तो अल्प धन वाला वर्ग भी इससे जुड़ेे जिसके बच्चों को हिंदी माध्यम में शिक्षा मजबूरीवश लेनी पड़ रही है। यकीनन इसी वर्ग के हिंदी भाषा का भविष्य को समृद्ध करेगा। ऐसा नहीं कि उच्च वर्ग में हिंदी प्रेम करने वाले नहीं है-अगर ऐसा होता तो इस समय इतने लिखने वाले नहीं होते-पर उनकी संख्या कम है। ऐसा लिखने वाले निरंकार भाव से लिख रहे हैं पर उनके सामने जो समाज है वह अहंकार भाव से फैशन की राह पर चलकर अपने को श्रेष्ठ समझता है जिसमे हिंदी से मूंह फेरना एक प्रतीक माना जाता है।
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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2 comments:

Udan Tashtari said...

आपसे पूर्णतः सहमत.

शरद कोकास said...

बनते बनते बनेगी यह आदत

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