Saturday, September 02, 2017

हर दर के बाहर फरिश्ते की नाम पट्टिका लगी है-दीपकबापूवाणी(Har Ghar ke bahar Farishtey ki nam Plate lagt hai-DeepakBapuWani)

कोई मुंह फेरता कोई निहारता
सबके अलग अंदाज हैं।
फकीरों ने पाई आजादी
राजाओं के बंधन अपने राज हैं।
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अपनों ने ही नश्तर चुभोये हैं,
इतिहास में गैर तो दुश्मनी ढोये हैं।
‘दीपकबापू’ अपने काम का बहीखाता देखें
अपनी नाकामी आप बोये हैं।
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हर दर के बाहर
फरिश्ते की नाम पट्टिका लगी है।
चमकते अक्षर बताते
कहीं न कहीं पहचान की ठगी है।
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दिल दिमाग में उसका नाम नहीं होता,
जिसमें कभी काम नहीं होता।
‘दीपकबापू’ यायावार होने का लेते मजा,
यार बांके की यारी का दाम नहीं होता।।
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सड़क के राहगीर कहां पहचाने जाते,
पाप ढोते धोने चाहे जहां नहाने जाते।
‘दीपकबापू’ ईमानदार हिसाब नहीं देते
अब बेईमानों के प्रहरी जो जाने जाते।
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विकास के साथ
कचड़े का भी पहाड़ खड़ा है।
दीवार पर चमकती तस्चीर के पीछे
काले कागज की तरह जड़ा है।।
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यह जो तुम विकास दिखा रहे हो,
वह कचड़े का पहाड़ क्यों छिपा रहे हो।
‘दीपकबापू’ विष के उगाये पहाड़
प्रचार में अमृत लिखा रहे हो।।
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वह अपने घर में लगाते तस्वीर
हमारी दीवार पर भी दिख जाती है।
दूर बैठे तो भेंट नहीं होती
उनकी हंसी दिल पर खुशी लिख जाती है।

Friday, February 24, 2017

उनकी अदाओं पर मर मिटे थे हम-दीपकबापूवाणी (Unki adaon par mar mite The ham-Deepakbapuwani)

पुण्य का फल हर कोई मजे से चखता, पाप का हिसाब कभी नहीं रखता।
‘दीपकबापू’ कर ली ढेर सारी रौशनी, न जाने अंधेरों से भी कोई तकता।।
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जुबान से वार तो उन्होंने खूब किये हमने भी दिल पर पत्थर रखा।
जज़्बात को बचाने के लिये ढूंढ लिया एक बेजुबान पर मजबूत सखा।
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रुपहले पर्द पर नये दृश्य दिखते, समाचार भी कथाकार ही लिखते।
‘दीपकबापू’ नाटक में खेलें रक्तपात, हमदर्द भी शुल्क लेकर बिकते।।
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अपने वैभव का प्रचार भी स्वयं चलाते, भ्रम यह कि ज़माने को जलाते।
‘दीपकबापू’ सब जाने मिट्टी हो जायेगा, फिर भी सिक्कों में जीवन गलाते।
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उनकी अदाओं पर मर मिटे थे हम, खुशी पर हंसे दुःख में आंख हुई नम।
उन्होंनें जब से आकाश पर उड़कर देखा अब वह हमें पहचानने लगे कम।।
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बेबस की बलि से बलवान कहलाते, रक्त से महल अपना धनवान नहलाते।
‘दीपकबापू’ बेदर्दो की महफिल में बैठे, हमदर्दी के गीतों से मन बहलाते।।
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दाना डाले पक्षी छत पर आते ही हैं, लालच में इंसान फंस जाते ही हैं।
‘दीपकबापू’ न मिले तो त्यागी बनते, मारा दाव साहुकार कहलाते ही हैं।
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मतलब निकले तो बदल देते यार, आदर्श दिखायें करें लालच से प्यार।
सीधी चाल साफ चरित्र होता नहीं, ‘दीपकबापू’ नकली चेहरे करें तैयार।।
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Monday, January 16, 2017

विशेष हिन्दी क्षणिकायें तथा हास्य कवितायें (Special Hindi Short poem And comedy)

जमाना बजा रहा ताली
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बाज़ार में सपने बिकते देखे।
खरीददार घुटने टेकते देखे।।
आत्मसम्मान मिट्टी में मिला
आजाद भेष में गुलाम देखे।।
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लालच के बने गुलाम-हिन्दी कविता
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देसी लोग
लिखपढ़कर विदेसी जैसे  हो जाते हैं।

अपनी ज़मीन नहीं दिखती
विदेशी सोच में खो जाते है।

देखा नहीं लंदन
लगा रहे  अंग्रेजी का चंदन
समझी नहीं गीता
गड़बड़ चिंत्तन से
अज्ञान का वाङ्मय ढो जाते हैं।

उठाते प्रश्न शोर मचाकर
फिर सो जाते हैं।

कहें दीपकबापू विचार के खजाने
खाली कर चुके अक्लमंद
हर हादसे पर
हमदर्दी में बस रो जाते हैं।
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हमसे वह बहुत बड़े हैं
हम ढूंढ रहे सफेद धन
बाहर लगी कतार में
करचारों के घर
लूटे बंडल पड़े हैं।
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Monday, January 09, 2017

लालच के बने गुलाम-हिन्दी कविता (Lalach Ke Gulam-Hindi Kavita)


अपने घर सजा रहे
पेड़ उजाड़कर
वन के माली।

खजाने के पहरेदार
लालच के बने गुलाम
कर दिया खाली।

माया का डंडा चलता
बजा रहा पूरा ज़माना
जोर जोर से ताली।
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देसी लोग
लिखपढ़कर विदेसी जैसी हो जाते हैं।

अपनी ज़मीन नहीं दिखती
विदेशी सोच में खो जाते है।

देखा नहीं लंदन
लगा रहे  अंग्रेजी का चंदन
समझी नहीं गीता
गड़बड़ चिंत्तन से
अज्ञान का वाङ्मय ढो जाते हैं।

उठाते प्रश्न शोर मचाकर
फिर सो जाते हैं।

कहें दीपकबापू विचार के खजाने
खाली कर चुके अक्लमंद
हर हादसे पर
हमदर्दी में बस रो जाते हैं।
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